बुधवार, 28 दिसंबर 2011

विजय मुकुट पहनायेंगे

आज माँ की काव्य मंजूषा से एक अनमोल रचना आपके लिये प्रस्तुत कर रही हूँ ! इसका सृजनकाल भारत की स्वतन्त्रता से पूर्व का है ! माँ की लेखनी की धार कितनी प्रखर और उनकी रचना का कथ्य कितना प्रेरक है इसका आकलन आप स्वयं करें और रचना का आनद उठायें !

आशायें हैं मुझे हँसाती भारत मेरे जीवन धन ,
आज नहीं तो कल तक तेरे कट जायेंगे सब बंधन !

तू स्वतंत्र होगा गूँजेगी घर-घर तेरी जय जयकार ,
विजय पताका फहराएगी कीर्ति दीप्त शोभा साकार !

मचल पड़े फिर मृत्युलोक में आने को वे तेरे लाल ,
भीष्म, भीम, अर्जुन, प्रताप, अभिमन्यु, शिवाजी, मोतीलाल !

हम सब पहन केसरी बाना साका साज सजायेंगे ,
अब भी भारत शून्य नहीं वीरों से यह दिखलायेंगे !

आज शिवा, दुर्गा, चामुण्डा देशभक्त ये वीर सुभट ,
ढिल्लन, सहगल, शाहनवाज़, सेनापति बन कर हुए प्रकट !

चमक पड़ी है अब कण-कण में बन स्वतन्त्रता चिनगारी ,
उमड़ उठे हैं शस्त्र उठाने बालक, वृद्ध, युवा, नारी !

पुन: पूर्व गौरव का तेरे मस्तक तिलक लगायेंगे ,
प्यारे भारत शीघ्र तुझे हम विजय मुकुट पहनायेंगे !

दे आशीष बढ़ा पग आगे विजय ध्वजा फहरायें हम ,
मातृभूमि पर हँसते-हँसते मस्तक भेंट चढायें हम !


किरण





शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

साध

लेकर के उर में एक साध !

मैं आई तेरे द्वार आज
पूरण कर मेरी अमिट चाह ,
सुस्मित अधरों से एक बार
दे बहा मधुर ध्वनि का प्रवाह ,

भर जाये प्रेम सागर अगाध !
कर पूरण मेरी अमर साध !

ऐसा मृदु मंजुल राग बजा ,
अविराम अचल अविरल अनंत ,
नीरस जग जीवन में फिर से
छा जाये कुसुमित नव वसन्त ,

मिट जावे जग से चिर विवाद !
कर पूरण मेरी अमर साध !

वन-वन उपवन गृह नगर-डगर
सौरभमय जिससे दिग्दिगंत ,
वितरित कर अपनी मलय पवन
सुरभित श्वांसों से रे अनंत ,

रे नहीं तुझे कुछ भी असाध !
कर पूरण मेरी अमर साध !

जग नयनों की जलधारा से
कर लेता तेरे पग पखार ,
जग की आहें बन कर पराग
पहुँचें तुझ तक कर क्षितिज पार ,

निर्विघ्न चली जायें अबाध !
कर पूरण मेरी अमर साध !

हो जाये तरल तेरी करुणा
दुखियों पर बरबस पड़े बरस ,
लहलहा उठें सूखे जीवन
हो जायें मधुर, हो उठें सरस ,

निर्जीव बने नैराश्य व्याध !
कर पूरण मेरी अमर साध !

आनंद प्रेम से मतवाली
फिर चहक उठे दुनिया भोली ,
करुणामय करुणा कर इतनी
भर दे मेरी रीती झोली ,

मैं आई लेकर एक साध !
कर पूरण मेरी अमर साध !


किरण

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

आशा

देव ! तुम्हारा ध्यान हृदय में कई बार आता ,
नयी इक ज्योति जगा जाता ,
मान का कमल खिला जाता ,
योजना नयी बना जाता ,
दे जाता है अहा हृदय को वह सांत्वना महान ,
भूल जाती हूँ दुःख अपमान !

निराशा होती जीवन में ,
दुःख हो जाता है मन में ,
रोग लग जाते हैं तन में ,
तेल घटता है क्षण-क्षण में ,
तभी शीघ्र आ जाता प्रियतम अहा तुम्हारा ध्यान ,
फूल उठता है हृदयोद्यान !


किरण

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

माँ का चित्र


चतुर चितेरे अंकित कर दे
माँ का ऐसा रूप महान् ,
चित्रपटी पर रच दे सुन्दर
नयन नीर, मुख पर मुस्कान !

संसृति के विशाल प्रांगण में
ऐसा अद्भुत तने वितान ,
विजयोत्सव का दशों दिशा में
गूँजे अविरल शाश्वत गान !

रचना मरकत का सिंहासन
कदलि खम्भ चहुँ ओर सजे ,
देव देहधारी मनुजों से
अमरावति का रूप लजे !

सित वसना सुन्दरी एक
दिखलाना सिंहासन आसीन ,
पीत कमल, मुख पर स्मित की
खिली हुई हो रेखा क्षीण !

चित्रकार उस महिमामयी पर
बीते हों जितने दुःख भार ,
क्षत-विक्षत वृणपूर्ण देह में
दिखलाना दृढ़ धैर्य अपार !

नव आगत सुख के स्वागत में
झंकृत उर तंत्री के तार ,
ढुलकाना स्निग्ध नयन से
उर का सारा संचित प्यार !

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा
लहर-लहर लहराता हो ,
सत् रज तम तीनों भावों को
संसृति में फैलाता हो !

ध्वनि-प्रतिध्वनि होवे त्रिलोक में
भारत माँ का जय जयकार ,
ऐसा सुन्दर सत्य चित्र रच
बन जाओ गुण के आगार !


किरण




शनिवार, 3 दिसंबर 2011

उस पार


नभ गंगा की चारु चमक में
देख सखी एकांत विचार ,
पीत वसन, धर अधर मुरलिका
रख कर गौ पर कर का भार !

बने त्रिभंगी सुना रहे कुछ
अर्जुन को अर्जुन के गीत ,
तभी उठ रहा तारक द्युति से
मधुर-मधुर मधुमय संगीत !

यह जगमग आधीन पार्थ है
प्राणी तो बस साधन है ,
भ्रम है, व्यर्थ मोह है जग में
क्षण स्थाई जीवन है !

इसी भाँति संसृति के क्रम में
जीवन धन हैं बता रहे ,
भूले पथ पर चलने वालों को
सुराह हैं बता रहे !

हम भी भूले हैं पथ सजनी
भूले प्रियतम करुणागार ,
चलो ढूँढने चलें , "कहाँ ?"
"इस नभ गंगा के भी उस पार !"


किरण

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

गुरु तेग बहादुर

आज गुरु तेगबहादुर का जन्मदिवस है इस पुनीत अवसर पर आनंद उठाइये माँ की इस विशिष्ट श्रद्धांजलि का !

तेरे ऐसे रत्न हुए माँ जिनकी शोभा अनियारी ,
तेरे ऐसे दीप जले माँ जिनकी शाश्वत उजियारी !

तव बगिया के वृक्ष निराले अमिट सुखद जिनकी छाया ,
ऐसे राग बनाये तूने जिन्हें विश्व भर ने गाया !

तेरे ताल, सरोवर, निर्झर शीतल, निर्मल नीर भरे ,
तेरे लाल लाड़ले ऐसे जिन पर दुनिया गर्व करे !

रत्न खान पंजाब भूमि ने ऐसा दीप्त रत्न पाया ,
जिसके सद्गुण की आभा से जग आलोकित हो आया !

आनंदपुर ने दीप सँजोया जिसकी ज्योति जली अवदात ,
वर्ष तीन सौ बीत चुके पर स्वयम् प्रकाशित है दिन रात !

ऐसा वह वटवृक्ष निराला जिसकी छाया सुखदायी ,
सिसक रही मानवता उसके आँचल में जा मुस्काई !

पञ्च महानद की लहरों से ऐसा गूँजा अद्भुत राग ,
मृत जन जीवन के प्रति जागा मानव मन में नव अनुराग !

जिसने ज्ञान सरोवर में अवगाहन कर मन विमल किया ,
धन्य लाल वह तेरा माँ जिसने सिर देकर सी न किया !

जिसने धर्म ध्वजा फहराई जिसने रक्खा माँ का मान ,
दीन दुखी जन के रक्षण में जिसने प्राण किये कुरबान !

दानवता, अविचार मिटाने जिसकी तेग चली अविराम ,
उन गुरु तेग बहादुर के चरणों में अर्पित कोटि प्रणाम !


किरण

रविवार, 20 नवंबर 2011

सूने में प्रतिमा बोल पड़ी


सूने में प्रतिमा बोल पड़ी !

भोर हुआ पंछी वन बोले , किरणों ने घूँघट पट खोले ,
सूर्य कलश ले पूजन हित मंदिर में ऊषा दौड़ पड़ी !
सूने में प्रतिमा बोल पड़ी !

भक्त पुजारी सेवक आये, भेंट भोग बहुतेरा लाये ,
अरमानों को पूर्ण बनाने विनय सुनाई प्रेम भरी !
सूने में प्रतिमा बोल पड़ी !

इक दुखिया भी मंदिर आई , स्नेह सिंधु के मुक्ता लाई ,
नयन नीर , सूने कर दोनों , चढ़ी न सीढ़ी बड़ी-बड़ी !
सूने में प्रतिमा बोल पड़ी !

सब लौटे छाया सूनापन , चल पड़ी लौट वह भी उन्मन ,
"पगली अपनी स्नेह भेंट ला , ऐसे ही क्यों लौट पड़ी !"
सूने में प्रतिमा बोल पड़ी !

"साज बाज का काम नहीं कुछ , प्रेम प्रीति का दाम नहीं कुछ ,
तेरे भाव कुसुम की कीमत सबसे ऊँची और बड़ी !"
सूने में प्रतिमा बोल पड़ी !


किरण



रविवार, 13 नवंबर 2011

मंगल कामना


ओ शरद निशे ले आई हो
क्यों अद्भुत सुख भण्डार सखी ,
लहराता दसों दिशाओं में
आनंद का पारावार सखी !

ले मूक हुई वाणी, कैसे
अब करूँ प्रकट उद्गार सखी ,
सह सकता कैसे दीन हृदय
कब इतने सुख का भार सखी !

बिखरा कर मधुर चंद्रिका यह
किसका तू है स्वागत करती ,
देती बिखेर स्वर्णिम तारे
मानों निर्धन का घर भरती !

मुक्तामय ओस गिरा कर जो
बहुमूल्य निछावर तू करती ,
किसका इस मदिर पवन द्वारा
आराधन, आवाहन करती !

कुछ ऊली फूली बढ़ी चली
किस ओर अरी जाती सजनी ,
द्रुम दल को हिला-हिला सजनी
कल कीर्ति मधुर गाती सजनी !

यदि लाल किले के सुदृढ़ मार्ग
की ओर चली जाती सजनी ,
तो हृदय कुञ्ज के भाव कुसुम
पहुँचा उन तक आती सजनी !

देती बिखेर उन चरणों पर
इस तुच्छ हृदय का प्यार सखी ,
लेती पखार फिर युगल चरण
निर्मल नयनांजलि ढार सखी !

पुलकित उर वीणा की उन तक
पहुँचाना यह झंकार सखी ,
तेरे स्वर में मिलकर ये स्वर
कर उठें मधुर गुंजार सखी !

पृथ्वी, जल, वायु रहे जब तक
गंगा जमुना की धार सखी ,
शशि रहे चंद्रिकायुक्त, रवि
रहे ज्योति का आगार सखी !

लहराए तिरंगा भारत का
सत् रज तम हो साकार सखी ,
हो सुदृढ़ राष्ट्र की नींव
अखंडित हो स्वतंत्र सरकार सखी !


किरण






शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

दीवानी दुनिया के पार




दूर क्षितिज के धूमिल तट पर देखो तो सजनी उस पार ,
देख रहा है अरे चमकता शुचि सुन्दर सा किसका द्वार !

अरी कौन आता पागल सा बता रहा जो सुन्दर रीत ,
उस अभिनव मंदिर से किसकी स्तुति में गाता सा गीत !

ठहरो! सुनो, कह रहा वह क्या "हैं! यह है कैसा संगीत !
अरी रहा सारी संसृति को अपनी स्वर लहरी से जीत "!

दीवानी दुनिया के प्राणी सुनो सुनो कुछ देकर ध्यान ,
व्यर्थ भटकते क्यों माया में गाओ प्रियतम का गुणगान !

आओ चलो प्रेम मंदिर तक, प्रेम देव के चरणों तक ,
सेवा, स्नेह, हृदय, यह जीवन बलि कर दो स्वर्णिम सुख तक !

सजनि ! पथिक के राग सुनो कैसा सुन्दर उपदेश अरे !
करने प्रेम देव की पूजा जग से यदि हो जायें परे !

तो सजनी चल के ढूँढें अब पावन उस प्रियतम का द्वार ,
चलो चलें उस ओर वहीं, इस दीवानी दुनिया के पार !



किरण

रविवार, 30 अक्टूबर 2011

चलो नया संसार बसायें


चलो नया संसार बसायें !
अवनी का कठोर अंचल तज
नभ में नव घर एक बनायें !
चलो नया संसार बसायें !

जहाँ तेरा मेरा कर यह
जग अपने को छले सखे ,
जहाँ चिंता चिनगारी से
यह अपना तन जले सखे ,
व्यर्थ जग की निष्ठुरता में
पड़ यह अपना अंग घुलायें !

चलो नया संसार बसायें !

जहाँ सुख-दुःख और
निराशा आशाओं के बंधन होवें ,
जहाँ औरों के फंदे में
फँस कर हम अपनापन खोवें ,
जहाँ अरमानों की आहुतियाँ
दे जीवन यज्ञ रचायें !

चलो नया संसार बसायें !

केवल जग के ऊपर निर्भर
जहाँ जीना मरना होगा ,
जहाँ उर में शान्ति तृप्ति
लाने को आँसू झरना होगा ,
और व्यर्थ हँसने रोने में
क्यों यह अपना समय गवाँयें !

चलो नया संसार बसायें !


किरण

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

दीपावली - एक विरल दृष्टि




माँ की सतत संवेदनशील दृष्टि ने उस समय की विसंगतियों को कितनी खूबसूरती के साथ इस रचना में उतारा है आप स्वयं देखें ! आश्चर्य होता है ये रचनाएं आज भी कितनी सामयिक एवं प्रासंगिक लगती हैं !

दीपावली
आज भूतल पर गगन का साज साजा जा रहा है ,
देख लो !
धवल मरकत का गगनचुम्बी महल जो दीखता है ,
लग रहा लघु श्वेत बालक एक उड़ना सीखता है ,
और बिजली का लगा उस पर बड़ा लट्टू सुनहरा ,
पूर्णिमा के पूर्ण शशि को भी लजाने जा रहा है ,
देख लो !
उस तरफ मीनार पर है हरी बिजली जल रही जो ,
शुक्र की शुभ शांत आभा सी सभी को छल रही जो ,
अस्त उसका शुक्र के ही अस्त सा देगा सदा फल ,
कोटियों का भाग्य तारा अस्त होने जा रहा है ,
देख लो !

और देखो उस तरफ है दीन उजड़ी झोंपड़ीं कुछ ,
टिमटिमाते दीप कुछ के द्वार पर, सूनी पड़ीं कुछ ,
ज्योति के इस पुंज में मद्धिम प्रभा जो निज छिपाये ,
जल रहे ज्यों गगन के ये हिरण भू पर आ रहे हैं ,
देख लो !


उस तरफ है दीपकों की क्षीण लौ बुझती हुई सी ,
इस तरफ विद्युत् छटा है आँख में चुँधती हुई सी ,
नभ सरित सी कान्ति भू पर आज छाते तेल दीपक ,
अरुन्धती उड़ सप्तॠषि संग टिमटिमाता जा रहा है ,
देख लो !
छुट रही जो फुलझड़ी लगती सलोनी मन लुभानी ,
ज्यों बिखरते तारकों की ज्योति लगती है सुहानी ,
और वह आकाश तारा उड़ चला भू पर बिखरने ,
धूमकेतू सा धरा की ओर बढ़ता आ रहा है ,
देख लो !
यह दिवाली की निशा है कर रही कुछ का दिवाला ,
कुछ उमंग में फिर रहे हैं छीन औरों का निवाला ,
आज जन में और धन में होड़ कुछ ऐसी लगी है ,
द्रव्य ज्योतित सूर्य शशि सा, अस्त मानव हो रहा है ,
देख लो !
आज भूतल पर गगन का साज साजा जा रहा है ,
देख लो !


किरण

शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2011

अभिसार


चलो चलें उस ओर प्रेम की
मधुर ज्योति जहाँ जगे सखी ,
प्रेम वायु के शीतल झोंके
इधर-उधर से लगें सखी !

प्रेम सिंधु के उर प्रांगण में
चलो तरंगें बनें सखी ,
मिल कर प्रियतम के संग हम तुम
प्रेम केलि में पगें सखी !

आओ बना प्रेम का मंदिर
प्रिय की मूर्ति बिठायें सखी ,
जग के हर कोने-कोने में
प्रेम सुधा सरसायें सखी !

गा-गा करके राग प्रेम के
प्रियतम को हरषायें सखी ,
तन मन धन सब आज गँवा कर
प्रिय प्रसाद को पायें सखी !


किरण

चित्र गूगल से साभार

शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

शतश: प्रणाम


ओ आज़ादी के दीवानों , ओ स्वातंत्र्य युद्ध के वीरों ,
ओ रणचण्डी के खप्पर को भरने वाले रणवीरों !

देकर तन मन धन की आहुति जीवन यज्ञ रचाने वालों ,
अपने दृढ़ निश्चय के दीपक जला पंथ दिखलाने वालों !

बने नींव के पत्थर पल क्षण अपनी भेंट चढ़ाने वालों ,
विजय दुर्ग की प्राचीरों को दृढ़ करने वाले मतवालों !

ओ भारत के कोहेनूर गाँधी बाबा तुमको प्रणाम ,
ओ अमर शहीदों भक्तिपूर्ण तुमको प्रणाम शतश: प्रणाम !


किरण

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

दुविधा


करूँ प्रसन्न तुम्हें मैं कैसे
क्या दूँ मैं प्रियतम उपहार ,
दीन हीन, तन क्षीण भिखारिन
मैं, प्रभु हो तुम रत्नागार !

पुष्प करूँ यदि भेंट दयामय
नंदन वन है यहाँ कहाँ ,
दीपक भेंट करूँ यदि तुमको
सूर्य ज्योत्सना नहीं यहाँ !

वस्त्र नहीं दे सकती प्रभुवर
मिलें कहाँ से वे पट पीत ,
माखन मिश्री भोजन हित मैं
पाऊँ कैसे मेरे मीत !

लक्ष्मी माता अर्द्धांगिनी हैं
पैसा भेंट करूँ कैसे ,
मेरे पास नहीं कुछ है प्रभु
दीन सुदामा हूँ जैसे !

सभी वस्तु की खान तुम्हीं हो
क्या दूँ भेंट प्रभु तुमको ,
एक वस्तु तव पास नहीं है
अति आनंद यही मुझको !

हृदय कमल तो चुरा लिया है
राधा रानी ने तेरा ,
रिक्त पड़ा अब तक वह स्थल
वहाँ बिठा लो मन मेरा !

कभी न ये आहें आवाजें
कान तुम्हारे पड़ती हैं ,
अति आरत हो तभी धरिणी माँ
दुःख से थर-थर कँपती है !

हृदय रहेगा पास तुम्हारे
तो सबकी सुन लोगे खूब ,
अभी असर नहीं होता होगा
जाते होगे सबसे ऊब !

उर की चाह तुम्हें है भगवन्
धन की चाह लगी मुझको ,
भक्ति सम्पदा मुझको दे दो
यह उर भेंट प्रभो तुमको !


किरण


शनिवार, 17 सितंबर 2011

उत्कण्ठा


आज प्रिय घर आयेंगे !
प्राण प्रमुदित हैं सखी प्रियतम सुदर्शन पायेंगे !
सखि आज प्रिय घर आयेंगे !

नयन निर्झरिणी उमड़ कर यह प्रकट करती रही कि ,
आज अपने प्राणधन पर हम ही अर्ध्य चढ़ायेंगे !
सखि आज प्रिय घर आयेंगे !

हृदय उपवन में सखी मन मालि चुन कर पुष्प मृदु ,
सोचता यह हार गुँथ कर हम उन्हें पहनायेंगे !
सखि आज प्रिय घर आयेंगे !

कह उठे कर आज सेवा करके हम होंगे सफल ,
पैर बोले आज स्वागत को प्रथम हम जायेंगे !
सखि आज प्रिय घर आयेंगे !

कहा जिह्वा ने कि स्तुति करके होऊँ धन्य मैं ,
कर्ण बोले शब्द उनके सुनके हम सुख पायेंगे !
सखि आज प्रिय घर आयेंगे !

हो उठी उन्मत्त मैं सखि आगमन लख नाथ का ,
आज मम मानस बिहारी हंस उड़ कर आयेंगे !
सखि आज प्रिय घर आयेंगे !


किरण

चित्र गूगल से साभार


सोमवार, 12 सितंबर 2011

आये बिन बनेगी ना

हिन्दी भाषा के उत्थान के लिये मेरी माँ उस युग में भी कितनी व्यग्र थीं ज़रा उसकी बानगी देखिये उनकी इस रचना में !


बिन सूत्रधार हुए आपके हे यदुनाथ
हिन्दू जाति उच्चता को प्राप्त अब करेगी ना ,

सो रही जो वर्षों से अज्ञानता की नींद में
बिन चौकीदार के जगाये वह जगेगी ना ,

भूल चुकी संस्कृत, बिसार चुकी हिन्दी जो
बिन सिखलाये 'कैट' 'रैट' ज़िद से हटेगी ना ,

इसलिये पुकार कर ये कहती 'ज्ञान' बार-बार
नाथ अब भारत में आये बिन बनेगी ना !


किरण

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

सखी युग ने करवट बदली

सखी युग ने करवट बदली !

आज नया यह पुण्य प्रभात ,
आज प्रफुल्लित है उर गात ,
घटा शोक, संताप, विषाद ,
छाया सुखद मधुर आल्हाद ,
भाग्य सूर्य भारत का चमका फटी दुखों की बदली !
सखी युग ने करवट बदली !

आज हमारा सच्चा देश ,
आज हमारा सच्चा वेश ,
दूर हुआ सब कोढ़ कलंक ,
मिटा व्यर्थ का भय आतंक ,
भारत के निर्मल सागर से हटी सरित वह गँदली !
सखी युग ने करवट बदली !

आओ मंगल साज सजें सखि ,
घर-घर मंगल वाद्य बजें सखि ,
दूर करें ईसा सम्वत्सर
नव सम्वत्सर आज लिखें सखि ,
पूजें विजय देवी हर्षित हो चढ़ा आम्रफल कदली !
सखि युग ने करवट बदली !

किरण




रविवार, 28 अगस्त 2011

यह मेरी भारत माता है


अन्ना के आह्वान पर भारत की जनता का बारह दिनों तक अहर्निश चलने वाला ऐतिहासिक आंदोलन और आशा निराशा, विश्वास अविश्वास और आश्वासन एवं विश्वासघात के प्रहारों से हर पल जर्जर होने के स्थान पर और सुदृढ़ होती जनता की देशभक्ति ने गर्व से हर भारतीय का सीना चौड़ा कर दिया है ! आज जीत की इस शुभ बेला में अपनी माँ की बेहद खूबसूरत कविता प्रस्तुत कर रही हूँ जिसे आप तक पहुँचाने के लिये मैं उचित अवसर की तलाश में थी कि पाठक इस कविता का आनंद उठाने के लिये मानसिक रूप से भी तैयार हों ! और आज जैसी विजय मिली है उससे बढ़ कर और सुअवसर क्या होगा ! तो लीजिए इसका आनंद उठाइये !


यह मेरी भारतमाता है

शीर्ष मुकुट कंचनजंगा का, कमर मेखला विन्ध्याचल की ,
जिसके पावन युगल चरण पर सागर अर्ध्य चढ़ाता है !
यह मेरी भारतमाता है !

अमृत पय गंगा जमुना का, सरयु, गोमती, वेदवती ,
चम्बल, रेवा, क्षिप्रा का जल नित स्नान कराता है !
तरला यह भारतमाता है !

सुजल नर्मदा और गोदावरी, महानदी, कृष्णा, कावेरी ,
बृह्मपुत्र का विमल नीर हर तन की प्यास बुझाता है !
सुजला यह भारतमाता है !

इसकी वन संपदा अपरिमित, सुमधुर फल, फूलों से सुरभित ,
हरी चूनरी लहरा माँ की मलय पवन इतराता है !
सुफला यह भारतमाता है !

उज्ज्वल खनिज रत्न अनियारे, हीरा, पन्ना, मोती प्यारे ,
जिनकी झिलमिल विमल कांति से अन्धकार घबराता है !
सुखदा यह भारतमाता है !

वीर शिवा, राणा प्रताप से भगत सिंह और बाल, पाल से ,
लाल निछावर हुए अनेकों, गुण जिनके जग गाता है !
यशदा यह भारतमाता है !

सीता, सावित्री, मैत्रेयी, पन्ना, लक्ष्मी, माँ कैकेयी ,
त्यागी बलिदानी नारी की खान यही सुखदाता है !
वरदा यह भारतमाता है !

इसके दीपक अमरज्योति से कलि मल हर ज्योतित जग करते ,
सिंहवाहिनी, मोक्षदायिनी अभिनव जीवनदाता है !
शुभदा यह भारतमाता है !

आओ इसके बलि-बलि जायें, आरति उतारें, पुष्प चढायें ,
गरिमामय मूरत पर इसकी बलिहारी जग जाता है !
सरला यह भारतमाता है !


किरण




रविवार, 21 अगस्त 2011

कन्हैया












गोकुल के रचैया अरु गोकुल के बसैया हरी ,
माखन के लुटैया पर माखन के रखैया तुम !

गोधन के कन्हैया अरु गोवर्धन उठैया नाथ ,
बृज के बसैया श्याम बृज के बचैया तुम !

भारत रचैया अरु भारत बचैया कृष्ण ,
गीता के सुनैया अरु गीता के रचैया तुम !

बंसी के बजैया अरु चीर के चुरैया हरि ,
नागन के ऊपर चढ़ि नृत्य के करैया तुम !

सारी के चुरैया अरु सारी के बढ़ैया साथ ,
भरी सभा द्रौपदी की लाज के रखैया तुम !

राधा के गहैया श्याम राधा के छुड़ैया योगी ,
गोपिन संग कुंजन में रास के रचैया तुम !

पापी अरु पापिन को स्वर्ग के दिलैया नाथ ,
शरण हूँ मैं लाज राखो कुँवर कन्हैया तुम !


किरण








शनिवार, 20 अगस्त 2011

अभिलाषा

देशप्रेम की अद्भुत भीनी-भीनी बयार आजकल भारत की फिजाओं में बह रही है ! आज अपनी मम्मी की देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत एक बहुत ही सुन्दर रचना प्रस्तुत कर रही हूँ ! आशा है आप सबको अवश्य पसंद आयेगी !

जो मेरा जन्म दोबारा हो !

तो दीप बनूँ उस कुटिया का जो दुःख की झंझा से उजड़ी ,
निज प्राणों का नित स्नेह जला करता रहता उजियारा हो !

जो मेरा जन्म दोबारा हो !

तो बनूँ कृषक ऊसर जग में बो दूँ अरमानों के मोती ,
मेटूँ नैराश्य फसल जिससे जीवन को तनिक सहारा हो !

जो मेरा जन्म दोबारा हो !

तो बनूँ हिमालय का पत्थर कल-कल करती निर्झरिणी का ,
चरणों से टकरा बिखर पडूँ तट की रज का अंगारा हो !

जो मेरा जन्म दोबारा हो !

तो पुष्प बनूँ उस उपवन का जो गया उजड़ हो पतझड़ में ,
कोकिल ने पल भर को ही फिर निज स्वर से जिसे गुंजारा हो !

जो मेरा जन्म दोबारा हो !

तो नीर बनूँ उस मरुथल का जिसमें प्यासा खोया-खोया ,
मृगजल से जाकर छला खोजता रेती में जलधारा हो !

जो मेरा जन्म दोबारा हो !

तो बनूँ आह दुर्बल उर की जग से ठुकराया जाकर जो ,
अपने जीवन का भार लिये गिनता रजनी का तारा हो !

जो मेरा जन्म दोबारा हो !

तो बनूँ द्वार उस मंदिर का, खंडहर बन निर्जन में एकल
हो पड़ा हुआ, जिसमें भूले पंथी ने समय गुज़ारा हो !

जो मेरा जन्म दोबारा हो !

तो आस बनूँ दुखिया मन की जो सदा अभावों से लड़ कर ,
थक हार विवश आकुल-व्याकुल पीता अश्रु जल धारा हो !

जो मेरा जन्म दोबारा हो !

पतवार बनूँ उस नौका की जो बीच भँवर में जा उलझी ,
खो चुकी दिशायें लहरों में नज़रों से दूर किनारा हो !

जो मेरा जन्म दोबारा हो !


किरण




गुरुवार, 11 अगस्त 2011

अभिनन्दन













स्वंत्रता दिवस पर सभी देशवासियों को हार्दिक शुभकामनायें ! आज अपनी माँ की मंजूषा से उनकी कविता के रूप में यह अनमोल रत्न निकाल कर आप सबके सामने प्रस्तुत कर रही हूँ जो कदाचित उन्होंने भारत की स्वतन्त्रता की पहली वर्षगाँठ पर लिखी होगी ! लीजिए आप भी इसका आनंद उठाइये !

अभिनन्दन

ओ स्वतंत्र भारत तेरे गौरव का फिर शुभ दिन आया ,
बाल अरुण निज स्वर्ण पात्र में कुमकुम भर कर ले आया !

तारागण बिखेर जीवन निधि मना रहे दीवाली सी ,
कुहुक उठी पूजन बेला में यह कोकिल मतवाली सी !

विजय हार पहनाने को ऋतुपति कुसुमायुध ले आया ,
श्रम सीकर चुन-चुन मलयानिल आर्द्र भाव से सकुचाया !

शुभ्र किरीट पहन है हिमगिरि आज गर्व से उन्नत और ,
हर्ष वेग से उछला पड़ता छू सागर चरणों की कोर !

तेरे वीर सुपुत्रों के मस्तक तेरे मणिहार बने ,
झिलमिल करते दिग्दिगंत जो उज्ज्वल रत्नागार बने !

आज वारने को तुझ पर रत्नों को ले अगणित आये ,
दर्शन कर तेरी सुषमा का जीवन धन्य बना पाये !

प्यारे भारत हृदय कुञ्ज के कुसुमों की गूँथी माला ,
आज तुझे पहनाने को लेकर आई है यह बाला !

स्वीकृत कर कृतकृत्य बना इस मन का भी रख लेना मान ,
मैं भी सफल पुजारिन हूँ यह जान मुझे होगा अभिमान !


किरण

चित्र गूगल से साभार !






मंगलवार, 2 अगस्त 2011

आँधी आई


सारे जग में आँधी आई !
पृथ्वी के कण-कण से उठ कर
जड़ चेतन तक सबमें छाई !
जग जीवन में आँधी आई !

तरु से विलग हुए नव पल्लव
पुष्प गुच्छ सुन्दर सुकुमार ,
नन्हें-नन्हें फल डालों से
गिरे अधपके हो जग भार !
दीन झोंपड़ी से दावानल
की लपटें उठ-उठ छाईं !

जग जीवन में आँधी आई !

युवकों में छाया जोश नया
अरु जग में फ़ैली क्रान्ति बयार ,
गिरते हुए देश में फिर से
नयी शक्ति का था संचार !
आँधी बन कर क्रान्ति
नया संदेशा भारत में लाई !

जग जीवन में आँधी आई !

सूक्ष्म रूप से हृदय कुटी में
पहुँची ले उन्माद नया ,
भोलापन उसके संग में पड़
अपने हाथों गया छला !
आग लगा जीवन वन में
धर नया रूप आँधी आई !

सारे जग में आँधी आई ,
जग जीवन में आँधी छाई !


किरण

भारत में


गुरुवार, 28 जुलाई 2011

जगमग जग हो जाये

कवि तुम ऐसी ज्योति जलाओ
जगमग जगमग जग हो जाये !

नील गगन के दीप सुनहरे
लाकर धरती पर बिखराओ ,
सप्त सिंधु की लोल लहरियों
पर जागृति का साज सजाओ ,

कवि तुम ऐसा राग सुनाओ
छोड़ उदासी सब मुस्कायें !
कवि तुम ऐसी ज्योति जलाओ
जगमग जगमग जग हो जाये !

बाल सूर्य की सुघर रश्मियाँ
लाकर कण-कण ज्योतित कर दो ,
अरुण उषा का पिला सोमरस
रागान्वित सबका मन कर दो ,

कवि तुम ऐसी बीन बजाओ
तन मन धन की सुधि खो जाये !
कवि तुम ऐसी ज्योति जलाओ
जगमग जगमग जग हो जाये !

शीतल स्वाति बूँद चुन-चुन कर
शान्ति सुधा रस ला बरसाओ ,
तप्त धरणी, संतप्त प्राण उर
में शीतलता आ फैलाओ ,

कवि तुम ऐसी प्रीति जगाओ
राग द्वेष सब क्षय हो जाये !
कवि तुम ऐसी ज्योति जलाओ
जगमग जगमग जग हो जाये !


किरण

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

कृतघ्न मानव

निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !

प्रथम स्नेह का सम्बल देकर दीपक को भरमाया ,
सरल वर्तिका के जीवन को तिल-तिल कर जलवाया ,
जिसने ज्योति बिखेरी सब पर उसके तले अँधेरा ,
पर उपकारी इस दीपक ने जग से है क्या पाया !

इसने चुप-चुप जलना सीखा, जग ने इसे जलाना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !

जिस माटी से अन्न उगा, जिसमें जीवन के कण हैं ,
मिलता अमृत सा जल जिसके अंतर से प्रतिक्षण है ,
किन्तु इसे ही व्यर्थ समझ कर सबने की अवहेला ,
जग के अत्याचारों के उस पर कितने ही व्रण हैं !

इसने पल-पल गलना सीखा, जग ने इसे गलाना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !

निर्धन कृषकों की मेहनत का फल है सबने देखा ,
उसके अगणित उपकारों का कहो कहाँ पर लेखा ,
रूखी-सूखी खाकर वे औरों पर अन्न लुटाते ,
अंग-अंग से बहा पसीना, मुख स्मित की रेखा !

फिर भी इसने डरना सीखा, जग ने इसे डराना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !

जिस नारी के रक्तदान से नर ने यह तन पाया ,
जिसने गीले में सोकर सूखे में इसे सुलाया ,
आज उसी को पशु बतला कर करते हाय अनादर ,
जिसने बरसों भूखी रह कर मन भर इसे खिलाया !

इसने केवल रोना जाना, जग ने इसे रुलाना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !


किरण


मंगलवार, 5 जुलाई 2011

कहो क्यों कर बैठे हो मान

माँ की रचनाओं में से आज मैंने एक बहुत पुरानी रचना चुनी है ! इसका सृजन काल भारत के स्वतंत्र होने से पूर्व का है ! उस समय एक आम भारतीय किस विवशता, व्याकुलता एवं पीड़ा के मानस को भोग रहा था यह कविता उस वेदना को बड़े ही सशक्त तरीके से अभिव्यंजित करती है ! आशा है इस कविता का रसास्वादन आप सभी इसके रचनाकाल को ध्यान में रख कर करेंगे और उस पीड़ा के सहभागी बनेंगे जिसे हर भारतीय ने तब झेला था !


कहो क्यों कर बैठे हो मान !
क्यों रूठे हो हाय बता दो हम तो हैं अनजान !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !

पराधीनता में जकड़ी है यह भारत संतान ,
दाने-दाने को तरसे है खोकर सब अभिमान ,
नित्य सहते हैं हम अपमान !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !

धन, वैभव, विद्या, बल, पौरुष पहुँचे इंग्लिस्तान ,
बुद्धि हुई है भ्रष्ट हमारी हृदय हुआ अज्ञान ,
बिसारा दया, धर्म अरु दान !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !

मृतक समान पड़े हैं हम सब खोकर जन, धन, मान ,
बस केवल उन्नति की आशा बचा रही है प्राण ,
हाय कब आओगे भगवान !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !

यदि अनजाने हुआ दयामय हमसे कुछ नुकसान ,
क्षमा करो अपराध कृपा कर विवश ना हो अवसान ,
कृपा कर दो स्वतन्त्रता दान !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !


किरण




बुधवार, 29 जून 2011

बादल आये

साथी बादल घिर कर आये !
नया संदेशा इस धरती के लिये खोज कर वे लाये ,
साथी बादल घिर कर आये !

हरी भरी हो उठी धरिणी यह सबको जीवन दान मिला है ,
झुलसे सूखे तरु पुंजों को फलने का वरदान मिला है ,
पाया कृषकों ने अपना धन ये बादल उसके मन भाये !

साथी बादल घिर कर आये !

सूखे खेतों की मिट्टी में आई फिर से नयी जवानी ,
प्यासे सागर, तालों में भर गया मधुर अमृत सा पानी ,
सुखी हुई सब सृष्टि, सभी प्राणी सुख से भर कर मुस्काये !

साथी बादल घिर कर आये !

सुखद वायु बह उठी पूर्व से गीत जागरण का गाती सी ,
द्वेलित करती सबका मन , चंचलता से इठलाती सी ,
चातक, दादुर, मोर उदासी तज पागल होकर हर्षाये !

साथी बादल घिर कर आये !

किन्तु जीर्ण कुटिया वह देखी साथी अब भी सूनी-सूनी ,
देख-देख कर सबका सुख नित आहें भरती दूनी-दूनी ,
उसके लिये सभी कुछ सूना कौन उसे अब धीर बँधाये !

साथी बादल घिर कर आये !

बैठी उसकी तरुणी बाला बाट जोहती निज प्रियतम की ,
ठगी-ठगी सी चौंक-चौंक पड़ती सुध-बुध खो निज तन मन की ,
उसके परदेसी प्रियतम का कौन संदेशा बादल लाये !

साथी बादल घिर कर आये !

घोर निराशा के बादल उसके उर के आँगन में छाये ,
आहों की पुरवा बहती, नित नयन नीर सावन बरसाये ,
सखी कौन इस पावस की तुलना उस पावस से कर पाये !

साथी बादल घिर कर आये !


किरण

शनिवार, 25 जून 2011

कृष्ण से अनुनय



एक
बार बस एक बार
इस भारत में प्रभु आ जाओ !

सोते
से इसे जगा जाओ ,
भूलों को राह दिखा जाओ ,
बिछडों को गले लगा जाओ ,
गीता का ज्ञान सिखा जाओ !
हे नाथ यहाँ आकर के फिर
अर्जुन से वीर बना जाओ !

एक बार बस एक बार
इस भारत में फिर आ जाओ !

थीं दूध दही की नदी जहाँ ,
कटती हैं गउएँ नित्य वहाँ ,
होते हैं पापाचार महा ,
तुम छिपे हुए हो कृष्ण कहाँ ,
क्या नहीं सुनाई देता है
यह अत्याचार अरे जाओ !

एक बार बस एक बार
इस भारत में फिर आ जाओ !

मुरली बिन सुने तरसते हैं ,
नयनों से अश्रु बरसते हैं ,
बृज, गोकुल, मथुरा फिरते हैं ,
बेबस गोपाल भटकते हैं ,
अब धर्म हानि को प्राप्त हुआ ,
आकर के इसे बचा जाओ !

एक बार बस एक बार
इस भारत में फिर आ जाओ !

हर साल बुला रह जाते हैं ,
व्याकुल जन अब अकुलाते हैं ,
हे नाथ न क्यों आ जाते हो ,
क्यों इतनी राह दिखाते हो ,
क्यों रुष्ट हुए हो हाय कहो ,
आकर के तनिक बता जाओ !

एक बार बस एक बार
इस भारत में फिर आ जाओ !

किरण

सोमवार, 20 जून 2011

प्रेरणा

युग बदलता देख कवि तुम भी बदल दो भावनायें !

वेदना की ज्वाल जग में शान्ति का संदेश लाये ,
धधकती चिंता चिता बन राख जग में मुक्ति पाये ,
त्याग की दृढ़ भावना कवि हृदय की बहुमूल्य निधि हो ,
वज्र सा कर्तव्य पथ हो सुगम, दायें हाथ विधि हो ,
पा नया अवलंब पुष्पित पल्लवित हों कामनायें !
युग बदलता देख कवि तुम भी बदल दो भावनायें !

शून्य नभ में झिलमिलायें आश के स्वर्णिम सितारे ,
नयन सीपि के धवल मुक्ता दया करके पग पखारें ,
आपदाओं की लहरियों बीच पंकज सरसरायें ,
खिल उठें कवि हृदय, हों सुकुमार सुख की लालसायें ,
नित्य पलटें पृष्ठ जीवन का नया कवि कल्पनायें !
युग बदलता देख कवि तुम भी बदल दो भावनायें !

मधुर स्मृति गीत हर लें उर क्षतों की विषद् पीड़ा ,
अमर जीवन में विरह की एक होवे मिलन व्रीड़ा ,
जागरण की मधुर स्मृति स्वप्न में बन मूर्त आयें ,
विश्व की रंगीनियाँ उर पर न अब अधिकार पायें ,
दूर रह कर प्रिय करें स्वीकृत अकिंचन अर्चनायें !
युग बदलता देख कवि तुम भी बदल दो भावनायें !


किरण

शुक्रवार, 17 जून 2011

ऐ मेरी तूलिके महान्






मेरी तूलिके महान् !

चल री चल अब उस प्रदेश, हो देश प्रेम जहाँ मूरतमान !

ऐ मेरी तूलिके महान् !

माता पुत्र, बहन भाई को निज कर्तव्य बताती हो ,
प्रिया प्राणपति को जिस स्थल सच्चा पथ दिखलाती हो ,
चलो सखी वहीं जहाँ युवक गाते हों देश प्रेम का गान !

ऐ मेरी तूलिके महान् !

"रण विजयी हो पुत्र ", प्रेम से माँ यह आशिष देती हो ,
"भाई लौट न पीठ दिखाना", बहन गर्व से कहती हो ,
कहती हो पतिप्राणा पत्नी, "जय पाना प्राणों के प्राण" !

ऐ मेरी तूलिके महान् !

कहें सुकोमल बाल पिता से, "पिता हमें भी संग लो आज ,
मातृ भूमि हित बलि हो जावें इससे बढ़ कर कौन सुकाज ,
गर्व करे जनजीवन हम पर, हमें देश पर हो अभिमान ! "

ऐ मेरी तूलिके महान् !


किरण

शुक्रवार, 10 जून 2011

बाँध लो कर्म की डोरियों से इसे

ओ भ्रमित मानवों जा रहा है समय ,
बाँध लो कर्म की डोरियों से इसे !

क्या पता चाँदनी यूँ खिलेगी सदा ,
क्या पता यामिनी यूँ मिलेगी सदा ,
क्या पता सूर्य की ये प्रखर रश्मियाँ
यूँ तपाने धरा को चलेंगी सदा !

फिर मलय फूल को क्या खिला पायेगा ,
क्या न बन ज्वाल जग को जला जायेगा ,
या तुम्हारी विषम भावना का गरल
मेट सौंदर्य सबका चला जायेगा !

भावना भीति की मत हृदय में भरो ,
देख रोड़े डगर में न मन में डरो ,
हो चकित सृष्टि सब देखती ही रहे
जो भी करना है ऐसा निराला करो !

भेंट दो व्यर्थ की भ्रान्तियाँ शान्ति से ,
क्या मिलेगा तुम्हें नित्य की क्रान्ति से ,
यह न जीवन किसी का अमर है यहाँ
जगमगा दो जगत कर्म की क्रान्ति से !

बंद कर दो यह नरमेध बेकार है ,
ज़िंदगी का सहारा अरे प्यार है ,
है इसीमें वतन की सुरक्षा निहित
नाश का मन्त्र यह विश्व संहार है !

देखती क्षुब्ध संध्या बिखरते महल ,
खोजता है गगन भूमि पर कुछ पहल ,
प्रश्न उठते अनेकों प्रकृति से सदा
जो न मुश्किल हैं समझो न जिनको सहल !

है उनींदा कदम काल की चाल का ,
साध लो प्रीति की लोरियों से इसे !
ओ भ्रमित मानवों जा रहा है समय
बाँध लो कर्म की डोरियों से इसे !


किरण



शुक्रवार, 3 जून 2011

गायक से

उद्बोधन
-------------

किस शान्ति सुधा की आशा में ,
कविता की इस परिभाषा में ,
नैराश्य तमावृत तन और मन ,
ज्योतित करता यह उद्बोधन !

गायक से
--------------

गायक ऐसा गा दे गान !
उमड़ उठें सातों ही सागर ,
हिल जावे यह विश्व महान् !
गायक ऐसा गा दे गान !

उठें क्रान्ति की प्रबल तरंगें
छा जावें तीनों भुवनों में ,
जगे महा आंदोलन फिर से
जगती के व्यापक प्रांगण में ,
नभ, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि में
होवे फिर संघर्ष महान् !
गायक ऐसा गा दे गान !

पर्वत पर्वत से टकराये,
नदिया से नदिया भिड़ जाये ,
मलयानिल हो जाये झंझा
सूर्य तेज से और तपाये ,
शीतल रजनी के तारों में
तड़ित वेग का हो आधान !
गायक ऐसा गा दे गान !

ऊँच-नीच का भूत भगा कर ,
हों समान सब प्रेम भाव धर ,
हो अखण्ड साम्राज्य शान्ति का ,
उमड़ें सप्त सिंधु मधु पथ पर ,
विषय वासना के महलों में
गूँजे देश प्रेम का गान !
गायक ऐसा गा दे गान !

रहें प्रेम से भाई-भाई ,
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई ,
हिन्दी, हिन्दू, हिंद देश की
फिर से जग में फिरे दुहाई ,
पहने तब प्यारी भारत माँ
निज गौरव का ताज महान् !
गायक ऐसा गा दे गान !


किरण





शुक्रवार, 27 मई 2011

बधाई लो

आज आपको माँ की एक और विशिष्ट रचना पढ़वाने जा रही हूँ जो आश्चर्यजनक रूप से आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी शायद तब होगी जब वर्षों पहले माँ ने इसकी रचना की होगी !

कई वर्ष बीते आज़ादी को, लो देश बधाई लो ,
मेरे देश बधाई लो, प्यारे देश बधाई लो !

तुमने बहुत आपदा झेलीं, सहे बहुत तुमने आघात ,
अंग भंग हो गये तुम्हारे, हुए कष्टकारी उत्पात ,
क्षीण कलेवर, दुखियारे मन, बिखरे केश बधाई लो !
मेरे देश बधाई लो, प्यारे देश बधाई लो !

लुटे कोष, सूने घर, उजड़े खेत, जमी जीवन पर धूल ,
बिना चढ़े ही मुरझाये अनखिले देव प्रतिमा पर फूल ,
औरों की करुणा पर आश्रित ओ दरवेश बधाई लो !
मेरे देश बधाई लो, प्यारे देश बधाई लो !

तूने जिन्हें रत्न माना था वे शीशे के नग निकले ,
अधिकारों की मंज़िल पाने बँधे हुए जन पग निकले ,
स्वार्थ पंक से मज्जित चर्चित उजले वेश बधाई लो !
मेरे देश बधाई लो, प्यारे देश बधाई लो !

कितने रावण, कुम्भकर्ण हैं, कितने क्रूर कंस हैं आज ,
हैं कितने जयचंद, विभीषण बेच रहे जो घर की लाज ,
राम, कृष्ण, गौतम की करुणा के अवशेष बधाई लो !
मेरे देश बधाई लो, प्यारे देश बधाई लो !

तलवारों में जंग लगी है, है कुण्ठित कृपाण की धार ,
सिंह सुतों की जननी सिसकी भर रोती है ज़ारोंज़ार ,
लुटी हुई पांचाली के हारे आवेश बधाई लो !
मेरे देश बधाई लो, प्यारे देश बधाई लो !


किरण

सोमवार, 23 मई 2011

कैसा है संसार


अहो यह कैसा है संसार !

यहाँ पर मर मिटने का खेल ,
यहाँ है फूल शूल का मेल ,
कहीं वैभव छलकाते गान ,
कहीं पर सुख का है अवसान ,
कहीं यौवन का मेला है ,
कहीं बालकपन खेला है ,
वृद्ध कहते सिर पर कर मार ,
"हाय, दुखमय है यह संसार !"

कोई सुख में रहता है लीन ,
कोई रहता हरदम ग़मगीन ,
किसीको है जीवन की चाह ,
कोई मरता भर-भर कर आह ,
धर्म, धन, मान कोई पाता ,
कोई है भीख माँग खाता ,
सभी कह रहे पुकार-पुकार ,
"मोह माया मय है संसार !"

भानु का जब होता अवसान ,
चंद्र का होता है उत्थान ,
पुष्प ने पाया बालापन ,
निराला उसका आकर्षण ,
तुरत आया उसका यौवन ,
अंत बन बिखरा वह रज कण ,
शून्य हो कहते मेघ पुकार ,
"अरे, क्षणभंगुर है संसार !"

प्रथम बालापन है आया ,
युवावस्था ने भरमाया ,
देख कर धन, वैभव, माया ,
सभी कुछ पल में बिसराया ,
अनन्तर वृद्धापन आया ,
रोग ने आकर डरपाया ,
लिया तब औषधि का आधार ,
"प्रमादी है सारा संसार !"

हाय मन अटकाया धन में ,
पुत्र, पति, मात-पिता गण में ,
लिया नहीं राम नाम मन में ,
तेल जीवन घटता क्षण में ,
अंत में हुआ दीप निर्वाण ,
चिता का किया गया निर्माण ,
अग्नि कह रही पुकार-पुकार ,
"अरे अस्थिर है यह संसार !"


किरण

छत्र गूगल से साभार








शुक्रवार, 20 मई 2011

कृष्णागमन















चित्रकार तूलिका उठाओ !
जैसा-जैसा कहूँ आज मैं वैसा चित्र बनाओ !
चित्रकार तूलिका उठाओ !

एक अँधेरा भग्न भवन हो ,
हर कोने में सूनापन हो ,
जिसमें इक दुखिया बैठी हो ,
नयन नीर नदिया बहती हो !

ऐ गुणीवर उसकी स्वासों से
करुणा जल बिखराओ !
चित्रकार तूलिका उठाओ !

तन पर फटी हुई हो सारी ,
गीली, अश्रु नीर से भारी ,
हाथों में हथकड़ी पड़ी हो ,
बेड़ी पैरों बीच अड़ी हो !

रह-रह दीर्घ श्वांस ले-लेकर
कहती हो, 'ऐ प्रभु आओ' !
चित्रकार तूलिका उठाओ !

चित्रकार फिर यह दिखलाना ,
सूने घर में ज्योति जगाना ,
चौंक अचानक पड़ना उसका ,
दौड़ अचानक पड़ना उसका !

मृदु मराल गति आते हँसते
मुरलीधर दिखलाओ !
चित्रकार तूलिका उठाओ !


किरण
चित्र गूगल से साभार

सोमवार, 16 मई 2011

भिखारिणी



फटी साड़ी में लिपटी मौन
नयन भर करुणा रस का भार ,
आज यह खड़ी द्वार पर कौन
सरलता सुषमा सी साकार !

अनावृत आधे-आधे पैर
शीश के केश पीठ, कुछ हाथ ,
छिपाये तन को किसी प्रकार
शील और लज्जा के वे साथ !

अंक में सुन्दर सा वह बाल
किसीकी आशा सा सुकुमार ,
सो रहा सुख निद्रा में मौन
दीन माँ का प्यारा आधार !

शून्य दृष्टि से चारों ओर
देखती ठिठक भयानक मौन ,
निरखती फिर-फिर अपना लाल
खड़ी है ममता सी यह कौन !

फटे आँचल को तनिक पसार
बढ़ा कर अपना दुर्बल हाथ ,
शीश तक ले जाती फिर उसे
और कुछ कहती मुख के साथ !

भिखारिन है यह अबला दीन
मनुज की बर्बरता की मूर्ति ,
बहा नयनों से निर्मल नीर
कर रही करुणा रस की पूर्ति !


किरण

बुधवार, 11 मई 2011

अनासक्ति

हमको देश विदेश एक सा !

यह जीवन वह बहती सरिता, एक ठौर जो रुक न सकी है ,
यह कोमल वल्लरी स्नेह की, कभी किसीसे झुक न सकी है ,
सुख-दुःख एक समान हमें है, मिलन-विरह परिवेश एक सा !

हमको देश विदेश एक सा !

यह जीवन वह जलता दीपक, जिसने निशि दिन जलना जाना ,
सभी एक सम ज्योतित करता, भले-बुरे में भेद न माना ,
मंदिर, मस्जिद, महल झोंपड़ी का करता अभिषेक एक सा !

हमको देश विदेश एक सा !

इस जीवन उपवन में आता ग्रीष्म सभी कुछ झुलसाता सा ,
पावन करुणा की रिमझिम से दुखिया मन को सरसाता सा ,
पतझड़ की वीरानी, मधुॠतु की मस्ती का मान एक सा !

हमको देश विदेश एक सा !


किरण

शुक्रवार, 6 मई 2011

अंतिम विदा

आज आपको अपनी माँ द्वारा रचित अपनी पसंद की सबसे खूबसूरत रचना पढ़वाने जा रही हूँ ! उज्जैन से शाजापुर की यात्रा के दौरान बस में इस रचना ने उनके मन में आकार लिया था ! रास्ते में एक दृश्य ने उन्हें इतना विचलित कर दिया कि उनका संवेदनशील हृदय स्वयं को रोक नहीं पाया और इस रचना का जन्म हुआ ! इस यात्रा में मैं भी उनके साथ थी !

अंतिम विदा

जा रहे प्रिय के नगर को सज गयी बरात राही !

हरे बाँसों पर बिछा तृण वस्त्र है डोली सजाई ,
बाँध कर पंचरंग कलावा पान फूलों से सजाई ,
बंधु बांधव पा निमंत्रण द्वार पर आकर खड़े हैं ,
और तुम सोये पड़े हो, कौन सी यह बात राही !

जा रहे प्रिय के नगर को सज गयी बारात राही !

अंग उबट स्नान करवा भाल पर चन्दन लगाया ,
और नूतन वस्त्र से तव अंग को सबने सजाया ,
पालकी में ला सुलाया रामधुन करने लगे सब ,
और तव परिवार पर तो हुआ उल्कापात राही !

जा रहे प्रिय के नगर को सज गयी बारात राही !

दृश्य यह अंतिम विदा का देख तो लो लौट कर तुम ,
वह उधर माता बिलखती, इधर नारी पड़ी गुमसुम ,
उधर रोकर मचल कर बालक बुला कर हारते हैं ,
कर चले हो किस हृदय से यह कठिन आघात राही !

जा रहे प्रिय के नगर को सज गयी बारात राही !

देख तो लो तुम जहाँ जन्मे वही यह घर तुम्हारा ,
देख तो लो तुम जहाँ खेले वही यह दर तुम्हारा ,
देख लो तुम तड़प जाते जो भरे नैना निरख कर ,
कर रहे अविरल वही तुम पर उमड़ बरसात राही !

जा रहे प्रिय के नगर को सज गयी बारात राही !

एक के ही साथ बँध कर साथ सबका छोड़ भागे ,
सो रहे यों प्रियतमा सँग जो जगाये भी न जागे ,
यह सलोनी कामिनी ऐसी तुम्हारे मन बसी है ,
ध्यान भी इसका न आया दिवस है या रात राही !

जा रहे प्रिय के नगर को सज गयी बारात राही !

जा रहे तुम चार के कन्धों निराली पालकी में ,
जा करोगे अब बसेरा विरस नगरी काल की में ,
अग्नि रथ पर जा चढ़े तुम लपट पथ दर्शक बनी है ,
ज़िंदगी की चाल पर है यह निराली मात राही !

जा रहे प्रिय के नगर को सज गयी बारात राही !

किरण

सोमवार, 2 मई 2011

तुमने तो भारत देखा है


तुमने तो भारत देखा है, देख नहीं पाये परदेसी ,
इसके अंतर में कितनी ज्वाला कितना विप्लव छाया है !

देखी है तुमने सुन्दर, नव परिणीता सी दुल्हन देहली ,
देखी हैं सज्जित कोठी, बंगले, कारें, सड़कें अलबेली,
देखा है खादी का झुरमुट, देखी है रेशम की टोली ,
देखे हैं प्रभुत्व के नाटक, देखी अधिकारों की बोली !

तुमने रंगमंच देखे हैं, रंगमहल की रंगरलियाँ भी ,
देखे खिलते फूल सुनहरे, मुस्काती कोमल कलियाँ भी ,
बंबई का वैभव देखा, कलकत्ते का व्यापार निहारा ,
काश्मीर की सुषमा पर तुमने अपने तन मन को वारा !

बाहर का श्रृंगार सुघर है कितना यह तो देख चुके हो ,
देखो भीतर इस भारत की यह कैसी जर्जर काया है !
तुमने तो भारत देखा है, देख नहीं पाये परदेसी ,
इसके अंतर में कितनी ज्वाला कितना विप्लव छाया है !

आओ तुम्हें दिखाऊँ ग्रामों में उजड़ी कुटियों का वैभव ,
फटे वस्त्र, सूखे तन वाले इन पृथ्वीपतियों का वैभव ,
देखो तो निर्धन के अंतर में कितना साहस उमड़ा है ,
देखो केवल भूख मिटाने को मानव कितना उजड़ा है !

जिन्हें स्वप्न हैं सुख के सपने उन्हें देखते जाओ राही ,
ज्वाल अभावों की जलती है नेत्र सेकते जाओ राही ,
अधिकारों की ठोकर से जनजीवन कुचले जाते देखो ,
नयनों के निर्झर से सिंचित उर शीतलता पाते देखो !

जो केवल प्राणों की रक्षा को निशि दिन सम देख रहे हैं ,
देखो तो उन पर कैसा विपदा का बादल मँडराया है !
तुमने तो भारत देखा है, देख नहीं पाये परदेसी ,
इसके अंतर में कितनी ज्वाला कितना विप्लव छाया है !

चलो दिखाऊँ वह गृहरानी थिगड़ों की साड़ी में लिपटी ,
देखो भूखे बच्चों से छिप रोती माँ कोने से चिपटी ,
देखो विद्युत् हल से उजड़े खेत, लुटे कृषकों के जीवन ,
नव युग के नव निर्माणों पर बिका हुआ भारत का तन-मन !

सड़क किनारे तोड़ रहे पत्थर उनका पुरुषारथ देखो ,
व्याकुल बेकारों को देखो, धनपतियों का स्वारथ देखो ,
देखो नये करों का बंधन, देखो शोषित मानव का बल ,
देखो जलयानों पर जाती हुई हिंद की लक्ष्मी चंचल !

क्यों राही मुख मोड़ रहे क्यों, क्या न अधिक अब देख सकोगे ?
बोलो गौरव शाली भारत अब तुमको कितना भाया है !
तुमने तो भारत देखा है, देख नहीं पाये परदेसी ,
इसके अंतर में कितनी ज्वाला, कितना विप्लव छाया है !

वर्षों पहले लिखी यह कालजयी रचना आज के संदर्भों में भी उतनी ही प्रासंगिक एवं सामयिक है ! कदाचित मात्र इतना अंतर आया है कि आज हिंद की चंचल लक्ष्मी जलयानों के स्थान पर वायुयानों के माध्यम से स्विटज़रलैण्ड के बैंकों की शोभा बढ़ा रही है !
किरण

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

प्रेम नगर

अंधकार सावन की रिमझिम, यह बादल की बेला ,
विद्युत की गर्जन, मारुत का झोंका और झमेला !
बीहड़ वन है, नदी भयानक, बाधाओं का मेला ,
नगर अगम्य, डगर अनजानी, तू चल पड़ा अकेला !

रुक न सकोगे बोलो कैसी चलने की मजबूरी ,
राही तेरे प्रेमनगर की मंजिल की क्या दूरी !

सिसक रही हैं कहीं किसीके पागलपन की चाहें ,
टूटी साँसों की सीमा में कहीं तड़पती आहें !
फ़ैली ही रह गयीं युगों जाने कितनी ही बाहें ,
कहीं कराहें, कस कर रोतीं कहीं निराश निगाहें !

टूटे दिल हैं बिछे, बिछी हैं कितनी आँखें गीली !
राही तेरे प्रेमनगर की पगडंडी पथरीली !

वहाँ उमंगों में सरिता है, धुन में है परवाना ,
कंठों में चातक रागों में रट कर एक तराना !
आँखों में गतिहीन चकोरी, मन मयूर मनमाना ,
अरमानों में अपने को ही अपने आप मिटाना !

पीड़ा का मधुमास वहाँ है, आँसू की बरसातें ,
राही तेरे प्रेमनगर की बड़ी मनोरम बातें !

कोई किसको अपना समझे, समझे किसे पराया ,
आया जिसका ध्यान, जिसे भी जी चाहा अपनाया !
जाने किसने किस जादू का कैसा जाल बिछाया ,
वहाँ जेठ की दोपहरी है, किन्तु न कोई छाया !

प्राणों में है प्यास, रगों में मृगतृष्णा का पानी ,
राही तेरे प्रेमनगर की कैसी अजब कहानी !

उमड़ उठीं सूखी सरितायें, उमड़ा सागर खारा ,
हरियाली के ऊपर उठ कर अपना पंख पसारा !
नीरस मरु के आँगन में भी उमड़ उठी जलधारा,
किन्तु वहीं क्यों कबका प्यासा वह पंछी बेचारा !

टेक निबाहे, पीना चाहे, एक बूँद को तरसे ,
राही तेरे प्रेमनगर में रिमझिम बादल बरसे !

बह साहस का रक्त अचानक बना पसीना देखा ,
दो गज़ का दिल और वही गज़ भर का सीना देखा !
अरे अमृत की अभिलाषा में विष का पीना देखा ,
मरने में सौ बार खुशी से उसका जीना देखा !

घर जलता है पर घरवाले करते हैं रंगरेली ,
राही तेरे प्रेमनगर की कैसी जटिल पहेली !

एक खेल में इस जीवन का सुखकर सपना देखा ,
एक जाप ही दो प्राणों का मिल कर जपना देखा !
इन सूनी-सूनी आँखों में सुख का सपना होता ,
मैं होता फिर मेरे मन का कोई अपना होता !

कुछ उसकी सुनता, उससे भी कुछ अपनी कह पाता ,
राही तेरे प्रेमनगर में यदि मैं भी रह पाता !

यहाँ हमेशा दीवाली है, यहाँ हमेशा होली ,
मादकता से भरी सभी के उर अंतर की झोली !
'और''और' है और यहाँ है 'पियो''पियो' की बोली ,
किस मस्ती में झूम रही है दीवानों की टोली !

माटी का जीवन भी इसमें बन जाता है सोना ,
राही तेरा प्रेमनगर है कितना सुघर सलोना !


किरण





शनिवार, 23 अप्रैल 2011

एक अकेली सौदाई है

जनजीवन ही सस्ता है बस केवल इस संसार में ,
एक अकेली सौदाई है मौत भरे बाज़ार में !

निकल पड़ी है चौराहों पर नंगे भूखों की टोली ,
धू-धू कर जल रही हाट में अरे अभावों की होली ,
घूम रहे सब दिशाहीन से पाने को दो कौर अनाज ,
सरे आम नीलाम हो रही है घर की गृहणी की लाज !

दूध दही की नदियाँ बदलीं विवश अश्रु की धार में ,
एक अकेली सौदाई है मौत भरे बाज़ार में !

गेहूं, जौ, मक्का, चावल के खेत लुटे, रो रहा किसान ,
हर घर में घुस गये लुटेरे, लूट ले गये सब सामान ,
रक्षक ही भक्षक बन बैठे, कुचल रहे हैं जनजीवन ,
कौन सुने फ़रियाद कि कितने घायल हैं हर तन और मन !

घर में चूहे दण्ड पलते, सन्नाटा हर द्वार में ,
एक अकेली सौदाई है मौत भरे बाज़ार में !

जनता के प्रतिनिधि से माँगी पागल प्राणों ने रोटी ,
लाठी, गोली, अश्रु गैस से बिखर गयी बोटी-बोटी ,
खुल कर खेल रही दानवता, सिसक उठी है मानवता ,
सड़कों, गलियों, चौराहों पर कुचली जाती है ममता !

सत्ता के मद में हैं अंधे बैठे जो सरकार में ,
एक अकेली सौदाई है मौत भरे बाज़ार में !

जब-जब माँगा रक्त चंडिका ने आई जनता भोली ,
उस प्यासी खप्पर वाली को दिया रक्त, भर दी झोली ,
फिर भी उसकी प्यास अमिट ही रही, निराली धुन पाई ,
घर के दीपक बलिवेदी पर भेंट चढ़ा कर इतराई !

अजब शान्ति और तृप्ति मिल रही उसको इस अधिकार में ,
एक अकेली सौदाई है मौत भरे बाज़ार में !


किरण

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

दो तस्वीरें


चित्रकार इक चित्र बनाना !
जिसके एक ओर उजड़ा अति दलित ग्राम दर्शाना !
चित्रकार इक चित्र बनाना !

टूटे-फूटे गृह हों न्यारे ,
झुलसे खेत वृक्ष हों सारे ,
अग्नी का साम्राज्य वहाँ हो ,
सर्वनाश का राज्य वहाँ हो ,
भूखे नन्हे बच्चों का हा "माँ-माँ" कह चिल्लाना !
चित्रकार इक चित्र बनाना !

दुखी कृषक बैठे मन मारे ,
क्षुधित प्राण दुर्बल बेचारे ,
कृषक पत्नियाँ भी बैठी हों ,
नयन नीर नदियाँ बहती हों ,
मानों आई देह धार कर करुणा ही दिखलाना !
चित्रकार इक चित्र बनाना !

दूजी ओर फिर यह दर्शाना ,
सुन्दर मंदिर एक सजाना ,
चारों ओर अग्नि हो जलती ,
मानों दूजा मंदिर ढलती ,
उसके भीतर प्रलयंकारी महाशक्ति बिठलाना !
चित्रकार इक चित्र बनाना !

नयनों से हो अग्नि उगलती ,
अट्टहास कर मानों हँसती ,
दन्तपंक्ति विद्युत सम शोभित ,
मुण्डमाल हिय पर हो दर्शित,
साड़ी लाल, रुधिर से लथपथ सारी देह दिखाना !
चित्रकार इक चित्र बनाना !

एक हाथ दलितों के ऊपर ,
दूजे कर में हो कृपाण खर ,
अभयदान दीनों को देती ,
अन्यायी को भय से भरती ,
तेज पराक्रम का अखण्ड साम्राज्य वहाँ दर्शाना !
चित्रकार इक चित्र बनाना !


किरण

चित्र गूगल से साभार !

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

कब तक यह वैषम्य पलेगा







वर्षों पूर्व रचित माँ की इस अद्भुत रचना को पढ़िए और स्वयं देखिये कि यह रचना आज के सन्दर्भों में भी आश्चर्य जनक रूप से कितनी प्रासंगिक है !







कब तक यह वैषम्य पलेगा !

जहाँ गगनचुम्बी प्रासाद हैं वहीं झोंपड़ी दीन बेचारी ,
जहाँ भरा वैभव कुबेर का वहीं दीखते विवश दुखारी ,
जहाँ व्यर्थ जलपान प्रीतिभोजों में लुटता षठ रस व्यंजन ,
वहीं बिलखते सूखे टुकड़ों को ये भूखे नग्न भिखारी !

अरे न्यायकारी बतला दो कब तक तेरी इस धरती पर ,
केवल अन्न वस्त्र पाने को दुखिया प्राणी स्वयं गलेगा !

कब तक यह वैषम्य पलेगा !

इधर बंद कमरों, ऊनी कपड़ों में ठण्ड मिटाई जाती ,
बिजली के पंखों के नीचे गर्मी दूर भगाई जाती ,
उधर कडकती सर्दी में भी दाब दांत होंठों के भीतर ,
और जेठ की कड़ी धूप में ही किस्मत अजमाई जाती !

इन जर्जर देहों में भी तो वही रक्त है, वही प्राण हैं ,
फिर भी इतना भेदभाव क्यों , क्या यह यूँ ही सदा चलेगा !

कब तक यह वैषम्य पलेगा !

मत देखो ये मोटर कारें , मत देखो ये महल अटारी ,
मत देखो होटल के कमरे , मत देखो धन मद अधिकारी ,
देखो अगर देख सकते हो ये नंगे भूखों की टोली ,
ये देखो बेकारों के घर , देखो ये श्रमिकों की खोली !

धन वैभव के अटल सिंधु में जीवन नौका खे लेने को ,
क्या उजड़े भोले मानव को बस साहस पतवार मिलेगा !

कब तक यह वैषम्य पलेगा !

है यह अपना देश और सरकार हमारी है, सब कहते ,
प्रश्न न रोटी का हल होता वर्षों बीत गये दुःख सहते ,
सदा तरसते और बिलखते रहे, न घूरे से दिन लौटे ,
आश्वासन की मृगमारीचिका में झेलीं अनगिनती चोटें !

अपना स्वत्व स्वयं पाने को अपने ही वोटों के बल पर ,
चुने गये सत्ताधारी से कब तक यह संघर्ष चलेगा !

कब तक यह वैषम्य पलेगा !


किरण

रविवार, 10 अप्रैल 2011

भारत माता

ओ अगाध ममता की देवी ओ मेरी भारत माता ,
अन्यायों से नहीं झुकेंगे तेरे वीर कष्ट त्राता !

तेरी भव्य मूर्ति अंकित है जनमानस में अविचल शांत ,
रूप अलौकिक, अभिनव, ज्योतिर्मय मुखमंडल किंचित् श्रांत !

शुभ्र केश राशि पर सज्जित हिम किरीट स्वर्णाभ सुघर ,
है ललाट पर अंकित कुंकुम चर्चित अमरनाथ मंदिर !

गिरी कज्जल की ललित रेख से सज्जित कजरारे नैना ,
काश्मीर की केसर क्यारी से सुरभित मधुरिम बैना !

पञ्च महानद के आभामय मुक्ता तव गलहार बने ,
गुर्जर, बंग वीर रत्नों से गर्वित तव भुजपाश तने !

हरित शालिवन से तेरे धानी आँचल में रत्न जड़े ,
विन्ध्य, सतपुड़ा, नीलगिरी के कटिबंधों से पुष्प झड़े !

महाराष्ट्र, मद्रास, युगल चरणों में गोदावरि नूपुर ,
कृष्णा , कावेरी की पायल में रुनझुन का मधुरिम स्वर !

महादेवी तव युगल चरण को महा सिंधु नित धोता है ,
तेरे इस वैभव पर माता अरि दल सर धुन रोता है !

तेरी रक्षा में बलिवेदी पर चढ़ चले वीर अगणित ,
त्यागी, प्रेमी, धीर, वीर, व्रतधारी, सक्षम, शांत, सुचित !

तेरे इस अक्षय वैभव को चोर चुराने नित आते ,
देख पहरुए सजग, कर्मरत दुखी निराश लौट जाते !

मेरे मन की यह अभिलाषा माँ कैसे मैं बतलाऊँ ,
पूजा की विधि नहीं जानती कैसे मंदिर तक आऊँ !

है इतनी ही साध हृदय की कुछ तेरी पूजा कर लूँ ,
तेरी इस अपरूप माधुरी को अपने उर में भर लूँ !

एक कामना है यह मेरी किसी बेल का फूल बनूँ ,
बलिदानी वीरों की पदरज में अपना नव नीड़ चुनूँ !


किरण

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

दर्पण

आज से माँ की दूसरी पुस्तक 'सतरंगिनी' की रचनाएं इस ब्लॉग पर अपने पाठकों के लिये उपलब्ध करा रही हूँ ! इन रचनाओं का कथ्य, इनकी अभिव्यक्ति और इनका कलेवर आपको पहले की रचनाओं से भिन्न मिलेगा और आशा करती हूँ ये रचनाएं भी आपको अवश्य पसंद आयेंगी !


आज अभावों की ज्वाला में
झुलसा हर इंसान रो दिया ,
अन्वेषण से थक नयनों ने
भू में करुणा पुन्ज बो दिया ,
कुछ ऐसे मौसम में साथी
यह खेती लहलहा उठी है ,
जग ने निर्ममता अपना ली
मानवता ने प्यार खो दिया !


किरण

गुरुवार, 31 मार्च 2011

क्षणिकायें --५


दीप
की सुज्वाल में शलभ राख जा बना ,
उड्गनों की ज्योति से न हट सका कुहर घना ,
सृष्टि क्रम उलझ सुलझ खो रहा है ज़िंदगी ,
नियति खोजती सुपथ बढ़ रही है उन्मना !


देख कर अवसान तारक वृन्द का ,
खिलखिला कर हँस पड़े पक्षी मुखर ,
है पतन उत्थान का अंतिम चरण ,
क्या कभी देखा किसीने सोच कर !


शलभ दीपक की शिखा पर रीझ कर ,
जब बढ़ा तब काँप कर उसने कहा ,
'ज्वाल हूँ मैं दूर रह पागल शलभ' ,
किन्तु सात्विक प्रेम कुछ सुनता कहाँ !


कल्पना ने जब वरण कवि को किया ,
साधना ने शक्ति अरु साहस दिया ,
लगन ने बाँधा उन्हें दृढ़ पाश में ,
शारदा ने प्रेम का आशिष दिया !


किरण


सोमवार, 28 मार्च 2011

क्षणिकायें-- ४


बीज में ही वृक्ष का अस्तित्व है ,
दीप की लौ में दहन का तत्व है ,
लघु नहीं है कोई भी कण सृष्टि का ,
निहित शिशु में ही महा व्यक्तित्व है !


चाँदनी रोती रही है रात भर ,
आँसुओं से भर उठा सारा जहाँ ,
पर न निष्ठुर चाँद का पिघला हृदय ,
है पुरुष पाषाण में ममता कहाँ !


देवता पर फूल ही चढ़ते सदा ,
पर बेचारी धूल का अस्तित्व क्या ,
भूल जाते उस समय यह बात वे ,
धूल से ही फूल को जीवन मिला !


किरण



शुक्रवार, 25 मार्च 2011

क्षणिकायें - ३


हृदय
की कथा नयन कह भी न पाये ,
रहे छलछलाए , व्यथा सह न पाये ,
हुई मूक वाणी विदा के क्षणों में ,
वे रुक ना सके , पैर बढ़ भी न पाये !



जा रहा इस सृष्टि से विश्वास का बल भी ,
छिन रहा इस अवनि से अब स्नेह संबल भी ,
लुट रहा है आज प्राणी सब तरह बिलकुल ,
प्रभु हुए पाषाण तो फिर छा गया छल भी !


लाज का बंधन नयन कब मानते हैं ,
स्नेह की ही साधना सच जानते हैं ,
वे सदय हों या कि निष्ठुर कौन जाने ,
ये मधुर उस मूर्ति को पहचानते हैं !



देखता है भ्रमर खिलते फूल की हँसती जवानी ,
युगल तट को सरित देती धवल रज कण की निशानी ,
प्रेम का प्रतिदान पाना अमर फल सा है असंभव ,
आश तृष्णा मात्र है , विश्वास भूले की कहानी !




किरण


गुरुवार, 17 मार्च 2011

आई भारत में होली

आज माँ की कविताओं के संकलन से यह बेमिसाल रचना आपके लिये लेकर आई हूँ ! उनकी रचनाएं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी कितनी प्रासंगिक होती हैं यह देख कर विस्मय से भर जाती हूँ ! हर्ष और उल्लास से ओत प्रोत होली का पर्व द्वार पर दस्तक दे रहा है ! सभी रचनाकार इस पर्व पर अपनी भावनाओं, कल्पनाओं और कामनाओं को कलमबद्ध कर रहे हैं ! माँ की वर्षों पुरानी इस रचना में होली को उन्होंने कितनी अभिनव शैली में चित्रित किया है आप भी देखिये ! इसमें आपको होली के सभी रंगों का उल्लेख मिलेगा लेकिन एकदम अनोखे अंदाज़ में !

सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

नीला रंग खुशी का ओढ़े खिलती हँसती आई ,
धन वाले अधिकारी दल में शोखी मस्ती लाई ,
देखा कहीं सुरा के प्याले खनक रहे हैं खन-खन ,
कहीं भंग भोले बाबा की घुटती बँटती पाई !

रंग गुलाल अबीर छिड़कते मदमाते हमजोली,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

हरे रंग की चूनर में पीला नीला रंग भर कर ,
नये राष्ट्र की नयी नीति निकली अगणित कर लेकर ,
नयी समस्याएं आती रहती हैं सन्मुख हर दम ,
चलो जेल में मौज करो यदि तुम न चुका सकते कर !

अपने तन मन धन की भी बोलो नीलामी बोली ,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

पीला रंग खिला खेतों में किन्तु छिपा कोठों में ,
एक आह उठती अंतर से पर ताले होठों में ,
सस्ता माल खरीद कृषक से बेच रहे ये मँहगा ,
कैसा स्वार्थ समुद्र भरा इन पूंजीपति सेठों में !

एक क़र्ज़ दे चार लिखाते ठगते दुनिया भोली ,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

लाल चूनरी मिल से निकली मजदूरों की टोली ,
भेद भाव हों दूर माँगते वे फैला कर झोली ,
रहें न बिस्कुट चाय सिल्क मोटर बंगले या कोठी ,
एक समान वस्त्र भोजन हो और एक सी खोली !

इनकी यह आवाज़ दबाने छूटे डंडे गोली ,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

रंग गुलाबी ओढ़ पार्टी बाँदी बन मुस्काई ,
बीज बैर के और फूट के झोली भर कर लाई ,
एक दूसरे का अनिष्ट निज नया सोचते रहते ,
घोर अराजकता की बदली इस भारत पर है छाई !

रोज चुनाव हुआ करते हैं चलती गाली गोली ,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

काला रंग देश में कैसा बेकारी का छाया ,
कभी न तन पर कपड़ा पहना कभी न मन भर खाया ,
कोई डूब रहा पानी में, कोई फाँसी झूला ,
देखो तड़प रही धरती पर छिन्न-भिन्न इक काया !

माँ की गोद लुटा करती नित, नित पत्नी की रोली ,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

देख दुर्दशा भारत भू की लाल लाडला माँ का ,
केसरिया बाना धारण कर निकला करने साका ,
केसर की क्यारी पर उसने अपना लहू बहाया ,
पर भारत के अंग भंग को फिर भी बचा न पाया !

पर दुःख कातर आँखें मूँदीं, गयीं न फिर जो खोली ,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

श्वेत संदेशा शांति सुरक्षा का पूरब को देकर ,
शान्ति दूत कहलाये दुनिया भर में वीर जवाहर ,
गैरों ने भी बात मान ली किन्तु देश बहरा है ,
इसमें शान्ति न ला पाये हाँ बापू जी भी मर कर !

आग बुझी बाहर की लेकिन जलती घर में होली ,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

किरण









शुक्रवार, 11 मार्च 2011

क्षणिकायें -- २


छल
भरा नर तन स्वयम् बदनाम है,
खोजना छल छिद्र उसका काम है,
खोजती जो कालिमा रजनीश में,
आँख की पुतली स्वयम् भी श्याम है !


मृत्यु मानव के लिये अभिशाप है,
ज़िंदगी भी पाप है, परिताप है,
झूलता है मध्य में इनके मनुज ,
बना अनबूझी पहेली आप है !

3
कुछ फूलों में ही शूल हुआ करते हैं,
भावों के पंछी गगन छुआ करते हैं,
है भूल भरा जीवन बह जाने वाला,
रह जाने वाले कूल हुआ करते हैं !

किरण

सोमवार, 7 मार्च 2011

क्षणिकायें


समय के साथ जीवन में नया ही मोड़ आता है,
हृदय पट पर अनेकों घाव सुख के छोड़ जाता है,
कहाँ तक हम इन्हें भूलों में बहलाते रहें साथी ,
किसीका स्वप्न सारे बंधनों को तोड़ जाता है |



आज अभावों की ज्वाला में झुलसा हर इंसान रो दिया,
अन्वेषण से थक नयनों ने भू में करुणा पुन्ज बो दिया,
कुछ ऐसे मौसम में साथी यह खेती लहलहा उठी है,
जग ने निर्ममता अपना ली, मानवता ने प्यार खो दिया !



जीवन है अभाव की मंजिल, नहीं तृप्ति की परिभाषा,
है अतृप्ति की सफल शिखरिणी चिर अभिशापित अभिलाषा !


किरण

बुधवार, 2 मार्च 2011

संध्या का वियोग

झिलमिल करती झीनी किरणों का मुख पर अवगुंठन डाले ,
अरुण वदन, लज्जित अधरों में भर स्मिति के मधुमय प्याले !

प्रियागमन की किये प्रतीक्षा उत्सुक नयन बिछाये पथ पर ,
आशा अरु अरमान भरे अंतर में सिहरन का कम्पन भर !

पश्चिम दिशि में खड़ी हुई प्राची मुख नव वधु संध्या बाला ,
जब बिखराये सघन केश रजनी बुनती पट झीना काला !

नील गगन की सुघर सेज को चुन-चुन तारक कुसुम सजाई ,
नभ गंगा की धवल ज्योत्सना की अनुपम चादर फैलाई !

निकल रहे थे अंतरतम से गुनगुन गीत मिलन के पल छन ,
स्वर, लय, तान मिलाने उसमें झींगुर वाद्य बजाते झन-झन !

मस्त पवन अठखेली करके रह-रह उसका पट उलटाता ,
बादल आँख मिचौली करते, सारा जग था बलि-बलि जाता !

पहर तीसरा बीत चला प्रिय चंद्र न आया, म्लान थकी वह ,
उस निष्ठुर से हुई उपेक्षित यह अवहेला सह न सकी वह !

फूट-फूट रो उठी हाय वह आँसू बरस मही पर छाये ,
नव दूर्वा, मुकुलित कुसुमों ने अधर खोल जग को दिखलाये !

नयन थके रोते-रोते, लालिमा सुघर आनन पर छाई ,
नव प्रभात का देख आगमन व्यथित हुई, निराश, अकुलाई !

भ्रात सूर्य जब डाल रश्मि पट रथ लेकर लेने को आया ,
देख बहन की अवहेला नयनों में भर क्रोधानल लाया !

चला खोजने भगिनीपति वह शांत हृदय उसका करने को ,
दुखिया के सूने जीवन में फिर से नेह नीर भरने को !

नित्य क्रोध से भरा पूर्व से चलता खोज लगाने को वह ,
हो हताश सोता पश्चिम में जाकर उसे न पाने पर वह !

आदिकाल से चली आ रही खोज न पूरी कर पाया वह ,
चंद्र सूर्य मिल सके, न फिर संध्या पर नव निखार ही छाया !

किरण

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

बरखा वियोगिनी

है प्रफुल्लित धरिणी सारी और पादप झूमते हैं,
मत्त सारंग देख प्रियतम मेघ रह-रह कुहुकते हैं !

आज चातक की जलन हो शांत सुख में व्यस्त सोती,
त्रस्त सीपी स्वाति सुख में आज अपना दुःख डुबोती !

आज सजती प्रकृति अनुपम साज स्वप्नों में ठगी सी,
नाचती गाती मिलन के गीत प्रिय सुख में पगी सी !

लाज से भर सूर्य बैठे ओट में जा बादलों की ,
पूर्व की मृदु वायु बहती आज रह-रह पागलों सी !

सब सुखों में मस्त अपने किन्तु किसने खोज की है,
बरसती जो बूँद प्रतिपल कौन की परछाईं सी है !

विरह कातर विरहिणी की हृदय ज्वाला पिघल प्रतिपल,
नयन निर्झर से बहाती तरल करुणा धार अविरल !

या किसी पागल हृदय की आह बादल बन अड़ी है,
बरसती उसके नयन से अश्रुधारा की झड़ी है !

या बिछुडते दो हृदय रोते विरह के याद कर क्षण,
और वे आँसू बरसते मेघ का रख रूप हर क्षण !

देख करके क्रोध की ज्वाला तरिणी की दुखी हो वह,
रो रही है चंद्रिका प्रिय विरह में व्याकुल पड़ी वह !

सखे अद्भुत है कहानी इन बरसते बादलों की,
जो जलाती बूँद बन कर और दुनिया पागलों की !

किरण

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

मैं फूलों में मुस्काती हूँ

मैं फूलों में मुस्काती हूँ,
मैं कलियों में शरमाती हूँ,
मैं लहरों के संग गाती हूँ,
मैं तारों में छिप जाती हूँ !

चंदा तारे हैं मीत मेरे,
झंझा के झोंके गीत मेरे,
रिमझिम बादल की घुँघरू ध्वनि,
होते सुभाव अभिनीत मेरे !

यह अखिल विश्व रंगस्थल है,
इसमें जितनी भी हलचल है,
सब है जीवन का मोल भाव,
सबमें ममता, सब में छल है !

किरणों के झूले पर आती,
खिलखिल कर ऊषा हँस जाती,
संध्या वियोगिनी प्रिय सुधि में,
जब अरुण क्षितिज में खो जाती !

तब मेरे राग उभरते हैं,
तब मेरे प्राण उमड़ते हैं,
तब मेरे नयनों में करुणा
के घन चौकड़ियाँ भरते हैं !

क्यों ? नहीं जान मैं सकी कभी,
पर मन की गति ना रुकी कभी,
है एक यही कवि की थाती,
जो नहीं विश्व में बिकी कभी !

मैं हूँ सबमें, सब मुझमें हैं,
है यही चिरंतन शिवम् सत्य,
मैं भूतकाल, मैं वर्तमान ,
मैं ही आने वाला अगत्य !


किरण

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

प्रतीक्षा

आगमन सुन प्राणधन का
भर गया उल्लास मन में मिट गया सब क्लेश तन का !
आगमन सुन प्राणधन का !

साज भूषण, वसन नूतन, भेंट हित उत्सुक हृदय ले ,
चौक सुन्दर पूर कर डाले पलक के पाँवड़े ,
दीप साजे आरती को मैं चली ले स्नेह मन का !
आगमन सुन प्राणधन का !

जगत उपवन से निराली भाव कलिका का चयन कर ,
गूँथ ली इक प्रेम माला नयन मुक्ता कण पिरो कर ,
किन्तु भारी हो गया कटना मुझे हर एक छन का !
आगमन सुन प्राणधन का !

किन्तु रजनीपति छिपे, दीपक गगन के भी बुझे सब ,
वह हार भी मुरझा गया पर प्रिय ना आ पाये अभी तक ,
ज्योति नयनों की बुझी, पिघला न निष्ठुर हृदय उनका !
आगमन सुन प्राणधन का !


किरण

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

निज मन मंदिर में

निज मन मंदिर में मैंने है
अतिथि बसाया एक नया,
वार दिया उस पर अपनापन
उससे ही वैराग्य लिया !

अनजाने आ छिपा कहीं से
उसको नहीं देख पाई,
उसके आने से जीवन में
एक नयी आँधी आई !

उसने सुख के स्वप्न तोड़ कर
कुचल दिये सारे अरमान,
अभिलाषा का हव्य बना कर
महायज्ञ का किया विधान !

आशाओं के दुर्ग तोड़
अधिकार जमाया आ सब ओर,
एक निराशा भवन बना कर
उसमें आन छिपा वह चोर !

दो अक्षर का नाम बता कर
देता परिचय और नहीं,
सब संसार देख आई पर
हो न जहाँ वह ठौर नहीं !

अति आदर से हृदय कुञ्ज में
उसको ठहराया सजनी,
जीवन बना पहेली मेरा
जैसे भेद भरी रजनी !


किरण

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

मेरे भाव

मेरे इस सूने जीवन में
शरद पूर्णिमा बन आये तुम ,
अमा रात्रि से अंधकार में
पूर्ण चंद्र के छाये तुम !

उजड़ चुकी थी जब पतझड़ में
इस उपवन की सब हरियाली ,
सरस सरल मधुऋतु समान
आकर इसमें हो सरसाये तुम !

जब रोती सूनी निदाध में
विकल टिटहरी तड़प-तड़प कर ,
तब वर्षा के सघन मेघ बन
उसे रिझाने हो आये तुम !

विरह व्यथित चकवी निराश हो
जब जीवन आशा बिसराती ,
प्रथम किरण सी आस ज्योति ले
धैर्य बँधाने हो आये तुम !

तुम मेरे सुख दुःख के साथी
मेरे अरमानों की प्रतिलिपि
मुझे तोष है दुःख वारिधि में
कविता नौका ले आये तुम !

किरण

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

कवि तुम युग-युग के प्रतीक

कवि की वाणी के सौरभ से
सुरभित युग-युग के हैं कण-कण,
कवि की कविता से हरे भरे
रहते जन-जन के तन मन धन !

कवि भाव सुमन यों पुन्ज-पुन्ज
खिल उठे कल्पना लतिका में,
ज्यों नील गगन, चन्दा, तारे
प्रतिबिम्बित हों सुर सरिता में !

कवि के बंधन में बँधे हुए
हैं मेघ, पवन, ऋतु, काल सभी,
कवि के इंगित पर डोल उठे
इस प्रकृति नटी के बाल सभी !

कवि ने रति की नयनांजलि से
शिव की प्रतिमा को पिघलाया,
कवि ने लव कुश की वीणा से
रघुकुल के पति को दहलाया !

कवि की ही सफल प्रेरणा वह
जिसने गौरी का मान हना,
कवि की ही धन्य भावना वह
जो दुखी हृदय का त्राण बना !

कवि की कविता ने महलों में
रस रंग सुधा भी बिखरा दी,
कवि की ही कविता ने वसुधा
अरि के शोणित से पखरा दी !

कवि की वाणी ने दिला दिया
भारत माँ का उजड़ा गौरव,
कवि की फुलवारी से बिखरा
स्वातंत्र्य सुमन का शुचि सौरभ !

कवि ही मानव के अंतर से
करुणा धारा जग में लाया,
कवि ने इतिहास बदल डाले
कवि ने बदली युग की काया !

कवि कृति के हेम वर्ण होते
शारद के मस्तक के सुटीक,
वह धन्य धरा वह धन्य गगन
हों जिसके कवि युग के प्रतीक !


किरण

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

चल मन अपनी प्यास बुझाने !

चल मन अपनी प्यास बुझाने !
मानस सर के निर्मल जल में, निज जीवन के स्रोत मिलाने !
चल मन अपनी प्यास बुझाने !

मत बन चंचल तज जग वैभव,
मत इस सुख पर दीवाना बन,
क्षणभंगुर है यह जग, यह सुख,
क्षणभंगुर है जग का वैभव,
माया मृग से चंचल सपने, ले चल उसमें आज डुबाने !

चल मन अपनी प्यास बुझाने !

संकीर्ण पंथ है लक्ष्य दूर,
पग-पग पर कंटक जाल बिछे,
छू मत इन चंचल वृक्षों को,
अभिसिक्त मोह रूपी जल से,
चल मन इस पापी जीवन के, दागों को धो आज मिटाने !

चल मन अपनी प्यास बुझाने !

है प्यास प्यास कुछ और नहीं,
होतीं न तृप्त अभिलाषायें,
आशा के दीपक क्षीण पड़े,
छाईं घनघोर निराशायें,
अब यहाँ कौन आएगा रे मन, तुझको भूली राह बताने !

चल मन अपनी प्यास बुझाने !

वे पथ दर्शक तो चले गये,
उनकी कृतियों का आश्रय ले,
माया तृष्णा को त्याग अरे,
रीते घर में यह निधि भर ले,
यह मिथ्या जग इसका वैभव, ले चल दुःख पर आज लुटाने !

चल मन अपनी प्यास बुझाने !


किरण

रविवार, 30 जनवरी 2011

क्या यही तुम्हारा है वसन्त

तुम कहते यह फूली सरसों पृथ्वी पर नवयौवन लाई ,
पर मुझे दीखता रुग्ण धरा है पाण्डु रंग से सकुचाई !

तुमको फूले पलाश लगते प्रियतमा प्रकृति के आभूषण,
पर मुझे दग्ध अरमानों के लगते ये चमक रहे हैं कण !

क्यों तुम्हें प्रकृति का मदिर हास कोमल किसलय में दीख रहा,
मैं कहती पादप लुटा कोष हो दीन माँग अब भीख रहा !

मुकुलित पुष्पों की छटा देख कहते तारे फैले भू पर
मैं देख रही अवनि अंतर के व्रण ये झलक रहे ऊपर !

तुम कोकिल का पंचम स्वर सुन कहते गा स्वागत गीत रही,
मैं सोच रही यह बुला रही बिछुड़ा जो इसका मीत कहीं !

तुम कहते मलय पवन आक़र सुरभित कर जाता है कण-कण ,
मैं देख रही दुखिया उर से यह आह निकलती है प्रति क्षण !

लख आम्र बौर से लदी डाल तुम कहते नवजीवन आया ,
मैं सोच रही यह अमृत घट क्यों यहाँ स्वयं लुटने आया !

सुन-सुन गुंजन भौंरों का तुम कहते कितना मादक स्वर है ,
मैं कहती श्याम वस्त्र धारी स्यापे वालों का यह घर है !

जो बचपन, युवा, प्रौढ़ता की नश्वरता बता रहे गाकर ,
जब तक रस है सब अपने हैं फिर कौन यहाँ आता जाकर !

ये अपने-अपने भाव सखे, है दृष्टिकोण अपना-अपना ,
कहता इस जग को सत्य एक, कहता दूजा इसको सपना !

यदि यह ऋतुपति है, यही कहा जाता पृथ्वी का सत्य कंत ,
तो क्यों न सदा रहता भू पर, होता क्यों इसका शीघ्र अंत !

जिसकी थोथी मादक छवि का गुण गाते हैं कवि गण अनंत ,
क्या यही तुम्हारी है बहार, क्या यही तुम्हारा है वसन्त !

किरण












शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

कलिका के प्रति

री इठलाती क्यों बार-बार !
मदमस्त हुई चंचल कलिके,
क्यों झूल रही तू डार-डार !

री इठलाती क्यों बार-बार !

टुक दे तो ध्यान अरी पगली
क्या जीवन का है अर्थ अरे,
क्यों व्यर्थ गर्व में दीवानी
तू निज तन में सौंदर्य भरे,
ओ मतवाली ले नयन खोल
बस है जीवन में हार-हार !

री इठलाती क्यों बार-बार !

है अभी बालपन भोला सा
पर सजनि रहेगा सदा नहीं,
आयेगा मतवाला यौवन
जो ले जायेगा तुझे कहीं,
आयेंगे प्रेमी मधुप सखी
दो एक नहीं हाँ चार-चार !

री इठलाती क्यों बार-बार !

वे भरे स्वार्थ से मतवाले
तव सुषमा लूट चुकेंगे जब,
उड़ जायेंगे फिर दूर दिशा
तेरी मनुहार करेंगे कब,
हो जायेगा मधुरे तेरा
यह सुन्दर यौवन भार-भार !

री इठलाती क्यों बार-बार !

आवेगा बन प्रचण्ड झंझा
बहता रहता जो मलयानिल,
शीतलता देती चन्द्रकिरण
तब बन जायेगी अरी अनल,
गिर जायेगी फिर धरिणी पर
हाँ हो करके तू छार-छार !

री इठलाती क्यों बार-बार !

कर मर-मर शब्द कथा अपनी
फिर कहा करेंगे अंग तेरे ,
उड़ करके आँधी के संग हा
मिट जायेंगे अरमान भरे ,
कहने सुनने को कथा तेरी
रह जायेगी बस सार-सार !

री इठलाती क्यों बार-बार !


किरण

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

अमर रहे यह गणतंत्र

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर माँ की लिखी यह कविता आप सबके लिये उपलब्ध करा रही हूँ ! आशा है आपको पसंद आयेगी !

क्यों उषा की लालिमा मुसका रही है,
क्यों निशा की कालिमा सकुचा रही है,
कर रहीं शहनाइयाँ क्यों मधुर सा रव,
क्यों मृदुल स्वर से प्रभाती गा रही है !

क्यों वसंती पवन यह बौरा रहा है,
क्यों कली पर झूम यह भौंरा रहा है,
क्यों गगन में मन रही दीवालियाँ हैं,
सूर्य क्यों अद्भुत प्रभा फैला रहा है !

कोकिला किनकी गुणावलि गा रही है,
कीर्ति किनकी गगन को गुन्जा रही है,
सप्त सागर जलांजलि देते किन्हें हैं,
जाह्नवी की क्यों लहर गरुवा रही है !

यह विजय उत्सव मनाया जा रहा है,
हर्ष का सौरभ लुटाया जा रहा है,
आज है गणतंत्र दिन इस हिंद का,
अमर वीरों को बुलाया जा रहा है !

यह विजय हमको बड़ी मँहगी पड़ी है,
भेंट अगणित प्राण की देनी पड़ी है,
फल गयी हैं आज सब कुर्बानियाँ वे,
यातना झेली, व्यथा सहनी पड़ी है !

उन शहीदों की चिता पर बढ़ चलो जन,
दीप श्रद्धा के जला कर ले चलो जन,
भेंट कर दो भावना के पुष्प मंजुल,
अभय हो गणतंत्र यह वर माँग लो जन !

जय भारत ! जय गणतंत्र ! वंदे मातरम !

किरण

बुधवार, 19 जनवरी 2011

कर लेना भूले से याद

सखे तुम्हारे उर प्रदेश में
जब स्मृति का ज्वार नहीं ,
मेरे इस दुखिया जीवन की
तुच्छ भेंट स्वीकार नहीं !

पागल उर में अरमानों का
साज सजा फिर क्या होगा ,
तिमिरावृत कुटिया में आशादीप
जला कर क्या होगा !

छल-छल करके नयन कटोरे
स्नेह वारि ढुलका देंगे ,
मधुर स्वप्न जब वियोगाग्नि को
और अधिक भड़का देंगे !

दूर बसे तुम, दूर तुम्हारी
स्मृति भी करनी होगी ,
अंतरतम की भग्न दीवालें
आहों से भरनी होंगी !

अब सुखियों की संसृति में
पागल जीवन का क्या होगा ,
हँसने वालों के जमघट में
रोते मन का क्या होगा !

धरा धराधर के अधरों में
मधुर मिलन मुस्कायेगा ,
सांध्य सुन्दरी का सुन्दर मुख
लज्जित हो झुक जायेगा !

तब मीठी सी याद किसी की
पीड़ा बन बस जायेगी ,
रजनी सी निर्जीव कालिमा
जीवन तट पर छायेगी !

तब हताश अस्ताचलगामी
चन्द्र बिम्ब का लख अवसाद ,
सखे कभी इस तुच्छ हृदय की
'भूले से कर लेना याद !'


किरण

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

अनोखा संसार

तुमने आ मेरे जीवन में रचा नया संसार
अनोखा स्वप्नों का संसार ,
निराला स्वप्नों का संसार !

यहाँ मचलती इठलाती सरिता में बहती आहें,
यहाँ बीन की झंकारों में खोती कसक कराहें,
यहाँ प्यार के प्यासे तट रह जाते फैला बाहें,
यहाँ थिरकती मुस्कानों में छिपी निराश निगाहें !

यहाँ मचलता अग्निशिखा पर परवानों का प्यार !
अनोखा स्वप्नों का संसार,
निराला स्वप्नों का संसार !

यहाँ अंगारों में चंदा को पाती मस्त चकोरी,
यहाँ वियोगिनी चकवी करती सूर्य किरण की चोरी,
यहाँ अमा की गहन रात्रि में जलती सुख की होरी,
यहाँ स्वाति पर बलि होता पागल चातक बरजोरी !

यहाँ खिलखिलाता काँटों में कलियों का अभिसार !
अनोखा स्वप्नों का संसार,
निराला स्वप्नों का संसार !

यहाँ भँवर से खेल रही जीवन नौका सुखसानी,
यहाँ पुष्प के मिट जाने पर अलि गाते आभिमानी,
यहाँ मुस्कुराते नयनों से गिरता रिमझिम पानी,
इस सूखे मरुथल में आकर यह मधु ऋतु बौरानी !

यहाँ सिसकते अरमानों में है जग का श्रृंगार !
अनोखा स्वप्नों का संसार,
निराला स्वप्नों का संसार !

यहाँ विषमता समता में नित होती है रंगरेली,
यहाँ निराशा आशा पर छा जाती निपट अकेली,
यहाँ लुटा करती वैभव पर मानवता अलबेली,
यहाँ दीनता की करुणा बन जाती सहज सहेली !

यहाँ विवशता झुलसा जाती भाव कुञ्ज सुकुमार !
अनोखा स्वप्नों का संसार ,
निराला स्वप्नों का संसार !

किरण

शनिवार, 8 जनवरी 2011

कल्पना की कान्त कोकिल

कल्पना की कान्त कोकिल कुहुकना नित रैन बासर !

जब सुभावों से हृदय हो शून्य रो-रो प्राण खोये,
नयन निर्झरिणी उमड़ कर स्मृति पट को नित भिगोये,
तब सुनाना सुखद, मंगल मधुर आश्वासन दिलाना,
दूर कर नैराश्य तम को, आश का दीपक जलाना,
मुखर कोकिल कुहुकना निज प्राण में नव ओज भर कर !

कल्पना की कान्त कोकिल कुहुकना निज रैन बासर !

जब भयानक अन्न संकट घेर ले चहुँ ओर आकर,
अस्थि पंजर शेष मनुजाकृति क्षुधा से तिलमिला कर,
एक दाना देख कर झपटें, तड़प कर प्राण खोयें,
देख बलि निज बांधवों की अश्रुजल से उर भिगोयें,
फूँक देना प्राण उनमें सुखद स्वप्नों को दिखा कर !

कल्पना की कान्त कोकिल कुहुकना नित रैन बासर !

जब किसी अपराध में बंदी पड़ा हो कोई भी जन,
याद कर निज स्नेहियों की दुखी उसके प्राण औ मन,
विवशता के पाश को असमर्थ हो वह काटने में,
हो अकेला, कोई भी साथी न हो दुःख बाँटने में,
तब सुला देना उसे दे थपकियाँ लोरी सुना कर !

कल्पना की कान्त कोकिल कुहुकना नित रैन बासर !

किरण

रविवार, 2 जनवरी 2011

प्राण तुम्हारे नयनों में

प्राण तुम्हारे नयनों में मैं
खोज रही कुछ सुख का स्त्रोत,
दीन निर्धनों की आहों से
करुणामय हो ओत-प्रोत !

आज हृदय में शक्ति न इतनी
नयनों का अभिसार करूँ,
प्रणय सिंधु के तीर खड़ी मैं
कैसे तुमको प्यार करूँ !

मुझे बुलाती अट्टहास कर
उन लहरों की तीव्र पुकार,
स्वयम् बिखर जाती टकरा कर
चट्टानों से हो जो छार !

आज सहोदर भ्राताओं में
है कितना वैषम्य महान्,
एक झुक रहा है चरणों में
और दूसरा लिये कृपाण !

सुख की सेज, राजसी भोजन
वस्त्रों से पूरित भण्डार,
एक सुखी है और दूसरा
नंगे भूखों का सरदार !

भूखे नन्हे बच्चों की वे
करुण पुकारें उठ कर आज,
अंतरिक्ष से जा टकरातीं
और लौटतीं बेआवाज़ !

दुःख के भीषण अंधकार में
सुख की किरण न पहुँची एक,
नयनों का निर्झर झर करता
दरिद्र देव का है अभिषेक !

हृदय कष्ट से रो-रो उठता
पर कैसे प्रतिकार करूँ ,
दुखियारे मानव समाज पर
दया करूँ या प्यार करूँ !

किरण