सोमवार, 2 मई 2011

तुमने तो भारत देखा है


तुमने तो भारत देखा है, देख नहीं पाये परदेसी ,
इसके अंतर में कितनी ज्वाला कितना विप्लव छाया है !

देखी है तुमने सुन्दर, नव परिणीता सी दुल्हन देहली ,
देखी हैं सज्जित कोठी, बंगले, कारें, सड़कें अलबेली,
देखा है खादी का झुरमुट, देखी है रेशम की टोली ,
देखे हैं प्रभुत्व के नाटक, देखी अधिकारों की बोली !

तुमने रंगमंच देखे हैं, रंगमहल की रंगरलियाँ भी ,
देखे खिलते फूल सुनहरे, मुस्काती कोमल कलियाँ भी ,
बंबई का वैभव देखा, कलकत्ते का व्यापार निहारा ,
काश्मीर की सुषमा पर तुमने अपने तन मन को वारा !

बाहर का श्रृंगार सुघर है कितना यह तो देख चुके हो ,
देखो भीतर इस भारत की यह कैसी जर्जर काया है !
तुमने तो भारत देखा है, देख नहीं पाये परदेसी ,
इसके अंतर में कितनी ज्वाला कितना विप्लव छाया है !

आओ तुम्हें दिखाऊँ ग्रामों में उजड़ी कुटियों का वैभव ,
फटे वस्त्र, सूखे तन वाले इन पृथ्वीपतियों का वैभव ,
देखो तो निर्धन के अंतर में कितना साहस उमड़ा है ,
देखो केवल भूख मिटाने को मानव कितना उजड़ा है !

जिन्हें स्वप्न हैं सुख के सपने उन्हें देखते जाओ राही ,
ज्वाल अभावों की जलती है नेत्र सेकते जाओ राही ,
अधिकारों की ठोकर से जनजीवन कुचले जाते देखो ,
नयनों के निर्झर से सिंचित उर शीतलता पाते देखो !

जो केवल प्राणों की रक्षा को निशि दिन सम देख रहे हैं ,
देखो तो उन पर कैसा विपदा का बादल मँडराया है !
तुमने तो भारत देखा है, देख नहीं पाये परदेसी ,
इसके अंतर में कितनी ज्वाला कितना विप्लव छाया है !

चलो दिखाऊँ वह गृहरानी थिगड़ों की साड़ी में लिपटी ,
देखो भूखे बच्चों से छिप रोती माँ कोने से चिपटी ,
देखो विद्युत् हल से उजड़े खेत, लुटे कृषकों के जीवन ,
नव युग के नव निर्माणों पर बिका हुआ भारत का तन-मन !

सड़क किनारे तोड़ रहे पत्थर उनका पुरुषारथ देखो ,
व्याकुल बेकारों को देखो, धनपतियों का स्वारथ देखो ,
देखो नये करों का बंधन, देखो शोषित मानव का बल ,
देखो जलयानों पर जाती हुई हिंद की लक्ष्मी चंचल !

क्यों राही मुख मोड़ रहे क्यों, क्या न अधिक अब देख सकोगे ?
बोलो गौरव शाली भारत अब तुमको कितना भाया है !
तुमने तो भारत देखा है, देख नहीं पाये परदेसी ,
इसके अंतर में कितनी ज्वाला, कितना विप्लव छाया है !

वर्षों पहले लिखी यह कालजयी रचना आज के संदर्भों में भी उतनी ही प्रासंगिक एवं सामयिक है ! कदाचित मात्र इतना अंतर आया है कि आज हिंद की चंचल लक्ष्मी जलयानों के स्थान पर वायुयानों के माध्यम से स्विटज़रलैण्ड के बैंकों की शोभा बढ़ा रही है !
किरण

17 टिप्‍पणियां:

  1. बाहर का श्रृंगार सुघर है कितना यह तो देख चुके हो ,
    देखो भीतर इस भारत की यह कैसी जर्जर काया है ...

    सच लिखा है ... है तो काड़ुवा सच पर क्या करें ... देश के हालात का जायजा लिया है आपने ..

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  2. आज भी यह रचना सार्थक है ....मन क्षुब्द्ध होता है ...

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  3. Badee hee sashakt rachana...iskee geyta ise ek dard bhara madhurya pradaan kartee hai.

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  4. तुमने तो भारत देखा है, देख नहीं पाये परदेसी ,
    इसके अंतर में कितनी ज्वाला, कितना विप्लव छाया है !

    बहुत ही सटीक प्रस्तुति जो आज भी समसामायिक है..बहुत सशक्त रचना..

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  5. क्यों राही मुख मोड़ रहे क्यों, क्या न अधिक अब देख सकोगे ?
    बोलो गौरव शाली भारत अब तुमको कितना भाया है !
    तुमने तो भारत देखा है, देख नहीं पाये परदेसी ,
    इसके अंतर में कितनी ज्वाला, कितना विप्लव छाया है !

    बहुत ही समसामयिक और सार्थक रचना है.

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  6. चलो दिखाऊँ वह गृहरानी थिगड़ों की साड़ी में लिपटी ,
    देखो भूखे बच्चों से छिप रोती माँ कोने से चिपटी ,
    देखो विद्युत् हल से उजड़े खेत, लुटे कृषकों के जीवन ,
    नव युग के नव निर्माणों पर बिका हुआ भारत का तन-मन !

    आपने तो हकीकत बड़ी खूबसूरती के साथ बयां की है...
    दर्द को भी कितनी सहजता से चित्रित किया है...
    बहुत सुंदर...

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  8. साधना जी, काफी प्रभावशाली ओर सशक्त लगी कविता. वाकई आजादी के इतने सालों बाद भी हमारे देश में भूख इक त्रासद सच्चाई है. इक तरफ अमीरी के नव - ताजमहल और दूसरी ओर गरीबी की झोपड़पट्टियाँ, यह हमारे देश का करुण यथार्थ है.
    आपके अनवरत लेखन के लिए ढेर सारी शुभकामनाएँ.

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  9. बाहर का श्रृंगार सुघर है कितना यह तो देख चुके हो ,
    देखो भीतर इस भारत की यह कैसी जर्जर काया है
    सत्य कहा जी, बहुत अच्छी रचना. धन्यवाद

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  10. बहुत ही सटीक प्रस्तुति जो आज भी समसामायिक है|धन्यवाद|

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  11. देखो केवल भूख मिटाने को मानव कितना उजड़ा है !
    ...सचमुच कालजयी रचना है। काश कि देश की स्थिति इतनी सुधरे कि लोग इसे कोरी कल्पना कहें भविष्य में।

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  12. अविस्मरणीय कविता | सुंदर और सटीक चित्रण |
    आशा

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  13. शाईनिंग इंडिया अमीरों का , बदहाल भारत गरीबों का ...
    दोनों ही तस्वीरें है ...
    बहुत दुःख होता है ये सोचकर की आज़ादी के इतने सालों बाद भी देश में यह विसंगति दूर नहीं हो पायी है ...
    पुराणी रचना आज भी सामयिक ही लग रही है ..
    आभार !

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  14. आज के परिवेश में भी खरी उतरती रचना है.

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  15. भारतवर्ष का असली चित्र उकेरती ...भावपूर्ण सार्थक कविता

    कुछ भी तो नहीं बदला......रचना सर्वथा प्रासंगिक है

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  16. चलो दिखाऊँ वह गृहरानी थिगड़ों की साड़ी में लिपटी ,
    देखो भूखे बच्चों से छिप रोती माँ कोने से चिपटी ,
    देखो विद्युत् हल से उजड़े खेत, लुटे कृषकों के जीवन ,
    नव युग के नव निर्माणों पर बिका हुआ भारत का तन-मन !
    साधना जी इस उत्कृष्ट रचना पर निशब्द हूँ।भारत की पूरी तस्वीर दिखा दी आपने।शुभकामनायें।

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  17. आपने भारत की सच्ची और असली तस्वीर प्रस्तुत की है. कुछ भी छूटा नहीं है. आभार !

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