गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

कब तक यह वैषम्य पलेगा







वर्षों पूर्व रचित माँ की इस अद्भुत रचना को पढ़िए और स्वयं देखिये कि यह रचना आज के सन्दर्भों में भी आश्चर्य जनक रूप से कितनी प्रासंगिक है !







कब तक यह वैषम्य पलेगा !

जहाँ गगनचुम्बी प्रासाद हैं वहीं झोंपड़ी दीन बेचारी ,
जहाँ भरा वैभव कुबेर का वहीं दीखते विवश दुखारी ,
जहाँ व्यर्थ जलपान प्रीतिभोजों में लुटता षठ रस व्यंजन ,
वहीं बिलखते सूखे टुकड़ों को ये भूखे नग्न भिखारी !

अरे न्यायकारी बतला दो कब तक तेरी इस धरती पर ,
केवल अन्न वस्त्र पाने को दुखिया प्राणी स्वयं गलेगा !

कब तक यह वैषम्य पलेगा !

इधर बंद कमरों, ऊनी कपड़ों में ठण्ड मिटाई जाती ,
बिजली के पंखों के नीचे गर्मी दूर भगाई जाती ,
उधर कडकती सर्दी में भी दाब दांत होंठों के भीतर ,
और जेठ की कड़ी धूप में ही किस्मत अजमाई जाती !

इन जर्जर देहों में भी तो वही रक्त है, वही प्राण हैं ,
फिर भी इतना भेदभाव क्यों , क्या यह यूँ ही सदा चलेगा !

कब तक यह वैषम्य पलेगा !

मत देखो ये मोटर कारें , मत देखो ये महल अटारी ,
मत देखो होटल के कमरे , मत देखो धन मद अधिकारी ,
देखो अगर देख सकते हो ये नंगे भूखों की टोली ,
ये देखो बेकारों के घर , देखो ये श्रमिकों की खोली !

धन वैभव के अटल सिंधु में जीवन नौका खे लेने को ,
क्या उजड़े भोले मानव को बस साहस पतवार मिलेगा !

कब तक यह वैषम्य पलेगा !

है यह अपना देश और सरकार हमारी है, सब कहते ,
प्रश्न न रोटी का हल होता वर्षों बीत गये दुःख सहते ,
सदा तरसते और बिलखते रहे, न घूरे से दिन लौटे ,
आश्वासन की मृगमारीचिका में झेलीं अनगिनती चोटें !

अपना स्वत्व स्वयं पाने को अपने ही वोटों के बल पर ,
चुने गये सत्ताधारी से कब तक यह संघर्ष चलेगा !

कब तक यह वैषम्य पलेगा !


किरण

15 टिप्‍पणियां:

  1. सच आज के संदर्भ मे भी उतनी ही गंभीर जितनी तब रही होगी क्योंकि परिस्थितियों मे ना तब फ़र्क था ना आज है।

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  2. कब तक यह वैषम्य पलेगा !
    शायद पीढियाँ गुजर जायेंगी यही पूछते और ये वैषम्य बना रहेगा
    करुणा से ओत-प्रोत रचना...और उस पर आपने तस्वीर भी ऐसी लगाई है...रचना की पूरी तरह पूरक लग रही है.

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  3. यह ऐसी विडंबना है कि आने वाले सालों में भी यह रचना प्रासंगिक रहेगी ...बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  4. bahut badhiyaa .

    मत देखो ये मोटर कारें , मत देखो ये महल अटारी ,
    मत देखो होटल के कमरे , मत देखो धन मद अधिकारी ,
    देखो अगर देख सकते हो देखो ये भूखे नंगों की टोली ,
    ये देखो बेकारों के घर , देखो ये श्रमिकों की खोली !

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  5. धन वैभव के अटल सिंधु में जीवन नौका खे लेने को ,
    क्या उजड़े भोले मानव को बस साहस पतवार मिलेगा !

    आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक , बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  6. आज की ही जिन्दा रचना....अद्भुत!!!

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  7. है यह अपना देश और सरकार हमारी है, सब कहते ,
    प्रश्न न रोटी का हल होता वर्षों बीत गये दुःख सहते ,
    सदा तरसते और बिलखते रहे, न घूरे से' दिन लौटे ,
    आश्वासन की मृगमारीचिका में झेलीं अनगिनती चोटें !

    अपना स्वत्व स्वयं पाने को अपने ही वोटों के बल पर ,
    चुने गये सत्ताधारी से कब तक यह संघर्ष चलेगा !

    कब तक यह वैषम्य पलेगा !
    यह तो इस देश का शाश्वत प्रशन बन गया है।

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  8. आदरणीय साधना वैद जी
    नमस्कार !
    ......बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  9. jab tak gareeb saakshar nahi hoga, apne adhikaro aur apni zindgi ko sudharne ki teevr icchha nahi rakhega aur jab tak ameer gareeb ko dabaye rakhne ki kaamna karta rahega ye katu saty shaaswat saty bana rahega.

    bahut bahut acchhi post jo aaj bhi sach me utni hi prabhavshali aur samsaamyik hai jitni tab rahi hogi.

    aabhar.

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  10. आज के सन्दर्भ में खरी उतरती रचना |
    आशा

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  11. शायद हमारे पूर्वजों की दूर दृष्टी ने आने वाले हालात का पहले ही अनुमान लगा लिया था। उनके पास गम्भीरता थी चिन्तन था लेकिन आजकल रोज़ी रोटी से लोगों के पास ऐसे चिन्तन के लिये समय ही कहाँ है भौतिकवाद ने सब को अपने शिकंजे मे कस लिया है। माता जी की रचना आज के सन्दर्भ मे सटीक है। धन्यवाद।

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  12. ameeri aur gareebi ka fasala ....chala aya hai chalata rahega ...
    bahut sunder rachna ...

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  13. परम आदरणीया मां जी की स्मृतियों को वंदन ! नमन !
    उनकी लेखनी को प्रणाम !

    आदरणीया दीदी साधना जी आपको भी साधुवाद
    और
    सादर सस्नेहाभिवादन !

    यहां मैं अक्सर आता रहता हूं …
    अम्माजी इतना श्रेष्ठ लिख गईं हैं ,
    हर बार हृदय से उनके चरणों में सहस्त्र प्रणाम करता हूं … !!

    हर रचना की तरह उनकी यह रचना भी है अनुपम ! अद्वितीय !

    आपको सपरिवार * श्रीरामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएं ! *

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  14. ---पढी है पहले भी --आज भी उतनी ही सुन्दर, सार्थक व सामयिक

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