शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

स्वीकृति





सोचा यह मैंने इक दिन, उपहार उन्हें क्या दूँ मैं ,
किस भाँति रिझा कर प्रभु को, उनसे शुभ आशिष लूँ मैं !

कुछ चुन कर उर उपवन से, कोमल मुकुलित कलियों को
इक हार बनाया मैंने, फिर गूँथ-गूँथ कर उनको !

वह भव्य मूर्ति जब देखी, नैनों से मैंने जाकर ,
तब छिपा लिया आँचल में, उपहार तनिक सकुचा कर !

उस जीर्ण-शीर्ण पट भीतर, जो तंदुल लख सकता था ,
तब हार छिपा वह कैसे, आँचल में रह सकता था !

मैं सोच रही थी कैसे, यह हार उन्हें पहनाऊँ ,
क्या कह कर मुरलीधर को, मैं अपने पास बुलाऊँ !

वे मुस्काये लख मुझको, मेरे इस पागलपन को ,
फिर ग्रहण किया वह खुद ही, नीचे कर निज मस्तक को !

किरण