बुधवार, 28 अप्रैल 2010

प्रणय के क्षण

दिये प्रणय के जो क्षण तुमने,
जीवन के आधार बन गए ,
घृणा, उपेक्षा, पीड़ा, दंशन
परित्यक्ता को प्यार बन गये !

सुख सज्जा के स्वप्न ह्रदय ने
मिलन रात्रि में खूब सँवारे ,
हुई विरह की भोर, नयन के
मोती ही गलहार बन गये !

कभी निशा की शीतलता का
मोल न कर पाया था जो मन ,
उसके लिये गगन के तारे
झुलसाते अंगार बन गये !

जिन सौरभयुत सुमनों को चुन
कभी सजाई सेज पिया की ,
दुर्दिन की छाया पड़ते ही
वे ही तीखे खार बन गये !

अरमानों के विहग लुटे से
त्याग रहे प्राणों की ममता ,
खुले द्वार थे जिस मंदिर के
वे अब कारागार बन गये !

कैसे वे दिन रातें भूलूँ ,
कैसे भूलूँ उनकी बातें ,
सुख सरिता के मंद झकोरे
अरे उफनते ज्वार बन गये !

किरण

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

मुझे मिले वे चरण

प्राण तरसते रहे निरंतर, मिला किसी का प्यार नहीं,
मुझे मिले वे चरण कि जिन पर कुछ मेरा अधिकार नहीं !

मंजिल दूर, डगर अनजानी, जीवन पथिक थका हारा,
एकाकी सर्वस्व लुटा कर फिरता है मारा-मारा,
निज अभीष्ट मंदिर का जिसने पाया अब तक द्वार नहीं,
मुझे मिले वे चरण कि जिन पर कुछ मेरा अधिकार नहीं !

अनदेखे सपनों में खोई आशा की दुलहिन भोली,
अनब्याही ही रही, उठी है कब उसके घर से डोली,
छल-छल छलके नयन, मिला पीड़ा को कुछ आधार नहीं,
मुझे मिले वे चरण कि जिन पर कुछ मेरा अधिकार नहीं !

विश्वासों के दीपक कब तक बिना स्नेह जलते जाएँ,
बेड़ी पड़ी पगों में कैसे फिर बंदी चलते जाएँ,
अगम सिंधु, पंकिल तट, टूटी नौका है, पतवार नहीं,
मुझे मिले वे चरण कि जिन पर कुछ मेरा अधिकार नहीं !

निठुर देवता छल कर मेरा जीवन क्या तुमने पाया,
मेरा निश्च्छल ह्रदय सुमन क्यों निष्ठुर बन कर ठुकराया,
बाल विहग भावों के निर्बल कर सकते प्रतिकार नहीं,
मुझे मिले वे चरण कि जिन पर कुछ मेरा अधिकार नहीं !

किरण

रविवार, 25 अप्रैल 2010

अनुभूति

सोच रहा मेरा पागल मन !
कौन शक्ति दुनिया में
जिससे है इतना भारी अपनापन !
सोच रहा मेरा पागल मन !

है सुख क्या दुःख कौन वस्तु है,
है अथवा यह सब केवल भ्रम,
क्या इस जीवन में सुख दुःख का
चलता ही रहता है यह क्रम,
क्यों नैराश्य है दुःख का सूचक,
क्यों है आशा ही में जीवन !
सोच रहा मेरा पागल मन !

अपने ही जीवन पर अपना
क्यों रहता अधिपत्य नहीं है,
मृत्यु बता जाती जो आकर
कुछ तेरा अस्तित्व नहीं है
है जीवन का सार अरे क्या
बस केवल चिंता औ चिंतन !
सोच रहा मेरा पागल मन !

पीड़ाओं का सागर है या
है अवसादों का साम्राज्य,
है क्या यह संसार चक्र जो
नहीं समझ में आता आज,
मृगतृष्णा सी इस माया में
फँस कर भटक रहा चंचल मन !
सोच रहा मेरा पागल मन !

किरण

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

प्यार की प्रतिमा

याद के मोती समेटे उर पटल में
स्वप्न की डोली उठाने जा रही हूँ ,
चरण रज से माँग में सिन्दूर भर कर
प्यार की प्रतिमा सिराने जा रही हूँ !

मैं सुहागन हूँ मगर वह जो सदा से
देवता द्वारा उपेक्षित ही रही है,
भावना की साधना में निरत शाश्वत
छलकती सी नयन निर्झरिणी बही है !

बेबसी ने होंठ मेरे सी दिये हैं,
सिसकते अरमाँ लुटाने जा रही हूँ !
चरण रज से माँग में सिन्दूर भर कर
प्यार की प्रतिमा सिराने जा रही हूँ !

नित प्रतीक्षा में दिये जिसकी जला कर
जागती है आश की दुल्हन दीवानी,
आग आँचल में समेटे वेदना की
बन रही है बेखुदी की जो कहानी !

जो न आएगा कभी उसकी डगर पर
प्रीत की कलियाँ बिछाने जा रही हूँ !
चरण रज से माँग में सिन्दूर भर कर
प्यार की प्रतिमा सिराने जा रही हूँ !

तड़पते अभिशप्त उर की दास्तानें
रात की वीरानियाँ कहने लगी हैं,
चाँदनी में डूबते अभिलाष के क्षण
वेदना की रात कुछ रहने लगी है !

रविकिरण की ज्योति से जो हैं प्रकाशित
मैं उन्हें दीपक दिखाने जा रही हूँ !
चरण रज से माँग में सिन्दूर भर कर
प्यार की प्रतिमा सिराने जा रही हूँ !

किरण

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

मैं दिये बुझते जला दूँ !

स्नेह का तुम दान दे दो
मैं दिये बुझते जला दूँ !

चुक गया है तेल जीवन का
न जिनमें ज्योति कण भर,
जा रहे हैं रूठ कर जो
विवश बंधन में जकड कर,
जो तनिक तुम मान दे दो
मैं ह्रदय रूठे मना लूँ !
स्नेह का तुम दान दे दो
मैं दिये बुझते जला दूँ १

स्वप्न सूने जा रहे हैं
छा रहा नभ वेदना का,
भर रहा नैराश्य मन में
घुट रहा दम भावना का,
तुम मधुर मुस्कान दे दो
मैं कली सूखी खिला दूँ !
स्नेह का तुम दान दे दो
मैं दिये बुझते जला दूँ !

देख मानव की विवशता
मौन नगपति हो रहा यों,
पतित पावन जाह्नवी का
आज गौरव खो रहा क्यों ?
प्रेरणा तुम प्राण दे दो
मैं विजय के गान गा दूँ !
स्नेह का तुम दान दे दो
मैं दिये बुझते जला दूँ !

किरण

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

नाविक से

ले चल मेरी नौका पार !

भव सागर में बही जा रही,
नहीं किनारा कोई पा रही,
सुख दुःख की झंझा में पड़ कर
डूब रही मंझधार !
ले चल मेरी नौका पार !

नाविक मुझे वही तट भाये,
रहें जहाँ जग से ठुकराये,
जहाँ बसा हो एक अनोखा
पीड़ा का संसार !
ले चल मेरी नौका पार !

मैं भी उनमें घुलमिल जाऊँ,
उनके दुःख में दुःख बिसराऊँ,
सुखी जनों की कर अवहेला
करूँ दुखों को प्यार !
ले चल मेरी नौका पार !

अब नौका ले चलो वहाँ पर,
दुःख सागर तट मिलें जहाँ पर,
जिसके हर एक कण में गूँजे
करुणा की झंकार !
ले चल मेरी नौका पार !

आशा नागिन डस ना पाये,
निशा निराशा की हँस जाये,
अमा दिवा के शांत प्रहर में
जीवन का अभिसार !
ले चल मेरी नौका पार !

किरण

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

आज वारिद रो रहे हैं

आज वारिद रो रहे हैं !
कुटिल जग की कालिमा निज अश्रुजल से धो रहे हैं !
आज वारिद रो रहे हैं !

देख कर संतप्त भू को पाप ज्वाला में सुलगते,
ह्रदय की सद्भावनाएँ वासनाओं में बदलते,
विकल होकर आज अपने धैर्य से च्युत हो रहे हैं !
आज वारिद रो रहे हैं !

ध्वंस लीला नीतियों की बढ़ रही जो आज भू पर,
देख ताण्डव नृत्य अत्याचार का सब लोक ऊपर,
स्वयं होकर दुखित अपना आज आपा खो रहे हैं !
आज वारिद रो रहे हैं !

बिलखते सुकुमार बालक कर रहे उनको विकल अति,
पीड़ितों की अश्रुधारा रुद्ध करती प्राण की गति,
सांत्वना के हेतु करूणा जल निरंतर ढो रहे हैं !
आज वारिद रो रहे हैं !

किरण

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

प्रणय का संभार कैसा !

हो तुम्हीं यदि दूर तो यह प्रणय का सम्भार कैसा !

तुम लगा पाये न मेरे दु:ख का अनुमान साथी,
जान कर भी अब बने जो आज यों अनजान साथी,
है निराशा की धधकती आग एक महान साथी,
हो चुके हैं भस्म जिसमें छलकते अरमान साथी,
प्राण शीतल प्रेम में यह विरह का श्रृंगार कैसा !
हो तुम्हीं यदि दूर तो यह प्रणय का संभार कैसा !

जब खिला करते जगत में नित्य सुख के फूल साथी,
स्नेह सरि के जब मिले रहते सदा युग कूल साथी,
जब बढ़ी जाती प्रकृति भी निज नियम को भूल साथी,
तब मुझे क्यों स्नेह के साधन हुए दुःख मूल साथी,
है मुझे अभिशाप ही वरदान फिर अभिसार कैसा !
हो तुम्हीं यदि दूर तो फिर प्रणय का संभार कैसा !

दूर है मेरा किनारा नाव बिन पतवार साथी,
क्या पता मैं डूब जाऊँ या कि पहुँचूँ पार साथी,
फूल सा जीवन मुझे तो अब बना है भार साथी,
आज मुझको भेंट देने पर तुला संसार साथी,
व्यर्थ है अनुनय विनय पाषाण में है प्यार कैसा !
हो तुम्हीं यदि दूर तो यह प्रणय का संभार कैसा !

आज विस्मृति सिंधु में स्मृति हुई म्रियम्राण साथी,
फिर किसी की याद में हैं भटकते से प्राण साथी,
क्या कभी होगा विनाशी विरह से भी त्राण साथी,
या सदा घायल ह्रदय में चुभेंगे ये बाण साथी,
हो निराशा रात्रि में यह आश का श्रृंगार कैसा !
हो तुम्हीं यदि दूर तो यह प्रणय का संभार कैसा !

किरण

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

स्वप्न के ये खिलौने

मुझे दे दिये स्वप्न के ये खिलौने
कहाँ तक सम्हालूँ, कहाँ पर सजाऊँ !

मुझे चाँदनी रात भाती नहीं है,
चमक तारकों की सुहाती नहीं है,
मुझे चाहिये स्नेह के दीप अनुपम
जिन्हें मैं जला कर जगत जगमगाऊँ !

यह बादल की रिमझिम मुझे छेड़ जाती,
यह बिजली दशा पर मेरी मुस्कुराती,
घटा मेरी आँखों में आकर छिपी है
जिसे चाहूँ जब मैं लुटाऊँ, बहाऊँ !

न आती मुझे प्रेम की लोरियाँ हैं,
न भाती प्रभाती मुझे त्याग की है,
मुझे चाहिये बेबसी के तराने
कि मैं ग़म के नग़मे बनाऊँ, सुनाऊँ !

वसंती पवन आज बौरा रहा है,
खिले फूल को चूम भौंरा रहा है,
जले दिल की दुनिया में उजड़ी बहारें
कहाँ पर बसाऊँ, कहाँ पर खिलाऊँ !

न मन्दिर, न मसजिद मुझे बरगलाये,
न मूरत किसी की मेरा मन लुभाये,
मुझे चाहिये एक तस्वीर ऐसी
कि जिस पर मिटूँ, ध्यान जिसका लगाऊँ !

नदी है या सागर न इसका पता है,
भँवर में पड़ी नाव तट लापता है,
मिले याद का एक सम्बल किसी का
कि जिसके सहारे उतर पार जाऊँ !

मुझे दे दिये स्वप्न के ये खिलौने
कहाँ तक सम्हालूँ, कहाँ पर सजाऊँ !

किरण

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

प्यार का अधिकार

मैं न तुमसे प्यार का अधिकार लूँगी !
और जीने को न तुमसे स्नेह का आधार लूँगी !
मैं न तुमसे प्यार का अधिकार लूँगी !

पंथ मेरा गगन के जल कण सजल करते रहेंगे,
चन्द्र की अवहेलना सह ज्योति कण झरते रहेंगे,
दीप भी बुझ जायें नभ के, है न इनकी चाह मुझको,
तम मुझे प्रिय, मैं न तुमसे दया का आधार लूँगी !

मैं न तुमसे प्यार का आधिकार लूँगी !

जा बसूँगी मैं वहाँ मिट्टी जहाँ सूखी पड़ी हो,
झर गये हों पेड़ के पत्ते, न बेलें ही चढ़ी हों,
हो न कोकिल और बुलबुल, शून्य हो वन का कलेवर,
पर न मैं तुमसे सजलता, तृप्ति और बहार लूँगी !

मैं न तुमसे प्यार का अधिकार लूँगी !

टूट जाये बीन चाहे, साज़ सब सूने पड़े हों,
कंठ स्वर हों भग्न, भावांकुर भले उजड़े पड़े हों,
क्षितिज तक भी स्वर न पहुँचें और प्रतिध्वनि डूब जाये,
पर न मैं स्वर, साधना या बीन की झंकार लूँगी !

मैं न तुमसे प्यार का अधिकार लूँगी !

मैं अकेली ही भली, प्रियतम मुझे मत दो सहारा,
नियति का बन्धन सुदृढ़ मत खोलना फिर से दुबारा,
तुम न आओ, मत सृजन सुख का करो मेरे लिये कुछ,
याद अपनी फेर लो बस, मैं यही उपहार लूँगी !

मैं न तुमसे प्यार का अधिकार लूँगी !

किरण

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

जीत क्या है हार क्या है

जो किसी भी मूल्य पर
बीते दिवस लौटा सकी तो,
मैं तुम्हें बतला सकूँगी
जीत क्या है हार क्या है !

था बड़ा जीवन सुनहरा,
मस्त, चिंता का न कुहरा ,
छू सका था जिसे केवल
खेलना, खिलना, मचलना !
जो यदि वह पा सकी तो
मैं तुम्हें बतला सकूँगी
अश्रु का संसार क्या है !

एक था साथी ह्रदय का
मीत मेरे निज पलों का,
खो चुकी हूँ आज उसको
तुच्छ जिससे स्वर्ण भी था !
फिर उसे यदि खोज पाई
तो तुम्हें बतला सकूँगी
नयन का अभिसार क्या है !

वह मधुर मधुमास जिसमें
फूल, सौरभ, फाग जिसमें,
कोकिला के एक स्वर से
गूँज उठते राग जिसमें !
आ गया फिर भूल कर यदि
तो तुम्हीं कहने लगोगे
सृष्टि का श्रृंगार क्या है !

किरण

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

खोया सा जीवन

यह मेरा खोया सा जीवन !
क्या फिर से पा जाऊँगी मैं
इस लुटी हुई दुनिया का धन !
यह मेरा खोया सा जीवन !

मेरी सूनी-सूनी रातें,
प्रिय की मीठी-मीठी बातें,
फिर याद दिला जातीं आकर,
बीते सपने, बीते मृदु क्षण !
यह मेरा खोया सा जीवन !

स्मृति फिर-फिर कर आ जाती,
इस मन में आग लगा जाती,
इस जली चिता के अंगारे
बुझ गए, बचे केवल कुछ कण !
यह मेरा खोया सा जीवन !

श्मशान बनी दुनिया मेरी,
योगिनी भावना की फेरी,
कह जाती पल-पल आ करके,
बन परवाना जल जा ओ जन !
यह मेरा खोया सा जीवन !

यह दीवानी क्यों दीवानी,
किसको भाती तेरी वाणी,
हो मौन होम कर दे पगली,
दुनिया की इच्छा पर तन मन !
यह मेरा खोया सा जीवन !

नयनों की सरिता शुष्क रहे,
बादल से जल की धार बहे,
तू देख खड़ी तेरा जीवन,
यूँ बरस पड़ा बन कर सावन !
यह मेरा खोया सा जीवन !

किरण

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

चाँद और लहर

जब लहर ने उठा शीश ऊपर लखा
चाँद ने मुस्कुरा कर निगाह फेर ली !

ऊब कर शून्यता से गगन की बहुत
एक दिन चाँदनी आ सरित से मिली ,
हर लहर में निरख ज्योति के पुंज को
एक प्रतिबिम्ब पाकर बहुत वह खिली !

वीचि के गान में भूल अपनत्व को
उन तरंगों में जा कर स्वयं खो गयी ,
ताल पर हर लहर की लगी नाचने
वह भँवर की सुशैया में जा सो गयी !

स्वप्न देखा अचानक उठी चौंक कर
चाँद तो रूठ कर के कहीं खो गया ,
किन्तु प्रतिबिम्ब लहरों में उसका निरख
क्या जाने अरे ज्योति को हो गया !

क्रोध से उर लगा काँपने उस घड़ी
श्याम मुख हो गया, द्वेष से भर गयी ,
चल पड़ी चंद्रिका लाल मुखड़ा किये
चक्षु से मोतियों की झड़ी लग गयी !

सत्य का अंश भी खोज पाई कहाँ
ईर्ष्या की निशा ने उसे घेर ली ,
जब लहर ने उठा शीश ऊपर लखा
चाँद ने मुस्कुरा कर निगाह फेर ली !

किरण

रविवार, 4 अप्रैल 2010

परदेशी निर्मोही !

वह पंथी तो परदेशी है ,
कर पल्लव हिला-हिला उसको
क्यों व्यर्थ बुलाते हो पादप ,
क्यों स्नेह जताते हो पादप !

क्या जाने उसका कौन नगर ,
क्या जाने उसकी कौन डगर ,
क्या जाने कहाँ लुटायेगा
वह स्नेह सुधा प्याले भर-भर !
निर्मम होते हैं परदेशी
जग तो यह ही कहता आया
क्यों इसे भूलते हो पादप ,
क्यों नेह लुटाते हो पादप !

तेरी छाया में आ क्षण भर
मेटा श्रम, उर भर तृप्ति अमर ,
वह आज न जाने कहाँ पहुँच
फिर अपना नया बनाये घर !
झिलमिल स्वप्नों की संसृति में
तुम याद न आओगे उसको ,
क्यों समय गँवाते हो पादप ,
क्यों प्यार लुटाते हो पादप !

रोते तो कितने ही आते ,
क्षण भर रुक मौज मना जाते ,
जोड़ोगे कब तक किस-किस से
ऐसे रिश्ते ऐसे नाते !
यह दुनिया है आनी जानी
रुक सका न कोई चिरजीवन
क्यों मोह बढ़ाते हो पादप ,
क्यों प्रीत लुटाते हो पादप !

किरण

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

अरे कौन तुम !

अरे कौन तुम मेरे उर में पीड़ा बन कर मुस्काते हो !

मैंने जीवन के प्रभात में विस्मृति की झाँकी देखी है ,
आश लता पर कान्त कल्पना की तितली बाँकी देखी है ,
मैंने देखा अरमानों को चहक-चहक मधुरिम स्वर करते ,
मैंने देखा अभिलाषा के सागर से तृष्णा घट भरते ,
किन्तु अरे तुम कौन राह में मेरी रोड़े अटकाते हो !
अरे कौन तुम मेरे उर में पीड़ा बन कर मुस्काते हो !

तुम आये मेरे जीवन ने कसक वधू का कर पकड़ा है ,
तुम आये मेरे मानस को मोह व्याधि ने आ जकड़ा है ,
तुमने आ मेरे अंतर में विप्लव की ज्वाला सुलगा दी ,
शान्ति सुधा से भरे कटोरों में अशांति की सुरा मिला दी ,
सावन घन बन कर नयनों में कौन अरे तुम आ छाते हो !
अरे कौन तुम मेरे उर में पीड़ा बन कर मुस्काते हो !

अब मैंने देखा रोटी के टुकड़ों पर लड़ने वालों को ,
क्षणभंगुर वैभव पर तिल-तिल प्राण भेंट करने वालों को ,
देखी है अतृप्ति की झंझा, देखा है आहों का नर्तन ,
देखा संसृति रंगमंच पर मृत्यु कामिनी का आवर्तन ,
सम्वेदन की मृदु वीणा पर कौन अरे तुम गा जाते हो !
अरे कौन तुम मेरे उर में पीड़ा बन कर मुस्काते हो !

क्षण-क्षण बढ़ता इस विनाश पथ पर यह रथ निर्माणों का है ‘
हाट लग रही प्राणी मात्र की, मोल हो रहा प्राणों का है ,
जहाँ माँगती है दरिद्रता लक्ष्मी से स्वाँसों का लेखा ,
आज अचानक वहीं दीखती बदली सी नियति की रेखा ,
महा प्रलय के इस ताण्डव में क्यों तुम मुझको भा जाते हो !
अरे कौन तुम मेरे उर में पीड़ा बन कर मुस्काते हो !

किरण

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

मैं तुम्हीं से आज अपने गान लूँगी !

मैं तुम्हीं से आज अपने गान लूँगी !

मूक है वंशी तुम्हारी तो हुआ क्या ,
मैं उसीसे आज स्वर, लय, तान लूँगी !

मैं तुम्हीं से आज अपने गान लूँगी !

एक दिन जब प्यार सिर धुन रो रहा था,
स्वार्थ का साम्राज्य अविचल हो रहा था,
पापियों के भार से थी धरिणी कम्पित,
विकल कोलाहल जगत में हो रहा था,
अवनि को जो सुखद आश्वासन दिया था,
मैं उसी का आज तुमसे दान लूँगी !

मैं तुम्हीं से आज अपने गान लूँगी !

छोड़ कर बैकुंठ जब आये यहाँ थे,
स्वर्ग के सब श्रेष्ठ सुख लाये यहाँ थे,
नाच कर, गाकर, मधुर मुरली बजा कर,
प्रेम घन चहुँ ओर बरसाये यहाँ थे,
मैं उसी सुख वृष्टि की अभिनव झड़ी से,
आज नन्हीं बूँद एक महान लूँगी !

मैं तुम्हीं से आज अपने गान लूँगी !

एक दिन जब राधिका का प्रेम लेकर,
ओर उसको निज हृदय की भेंट देकर,
तुम चले अक्रूर संग तज विकल गोकुल,
लौट आने का सुखद वरदान देकर,
तब उन्हें जो स्नेह का सम्बल दिया था,
मैं तुम्हीं से आज वह वरदान लूँगी !

मैं तुम्हीं से आज अपने गान लूँगी !

राधिका का सरल मन बहला सके तुम,
पूज्य बनने विश्व में तब जा सके तुम,
किन्तु यह उस त्याग की ही है निशानी,
मान्यता जो आज इतनी पा सके तुम,
जो तुम्हें निज पाश में बाँधे हुए थे,
मैं तुम्हीं से आज वो अरमान लूँगी !

मैं तुम्हीं से आज अपने गान लूँगी !

आज कैसे मान लूँ बस मूर्ति हो तुम,
जो अधूरा है उसी की पूर्ति हो तुम,
अलस सोये तार वीणा के पड़े जो,
तुम उसी की तान हो, स्फूर्ति हो तुम,
स्नेह की भागीरथी फिर ला सकूँ जो,
मैं तुम्हीं से आज इसका ज्ञान लूँगी !

मैं तुम्हीं से आज अपने गान लूँगी !

देख लो यह अवनि फिर अकुला रही है,
आपदाओं की घटा फिर छा रही है,
बह उठी है आज करुणा की नदी वह,
जो न सागर का किनारा पा रही है,
अश्रुधारा से निमज्जित इन मुखों की,
मैं तुम्हीं से फिर मधुर मुस्कान लूँगी !

मैं तुम्हीं से आज अपने गान लूँगी !

किरण