बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

निज मन मंदिर में

निज मन मंदिर में मैंने है
अतिथि बसाया एक नया,
वार दिया उस पर अपनापन
उससे ही वैराग्य लिया !

अनजाने आ छिपा कहीं से
उसको नहीं देख पाई,
उसके आने से जीवन में
एक नयी आँधी आई !

उसने सुख के स्वप्न तोड़ कर
कुचल दिये सारे अरमान,
अभिलाषा का हव्य बना कर
महायज्ञ का किया विधान !

आशाओं के दुर्ग तोड़
अधिकार जमाया आ सब ओर,
एक निराशा भवन बना कर
उसमें आन छिपा वह चोर !

दो अक्षर का नाम बता कर
देता परिचय और नहीं,
सब संसार देख आई पर
हो न जहाँ वह ठौर नहीं !

अति आदर से हृदय कुञ्ज में
उसको ठहराया सजनी,
जीवन बना पहेली मेरा
जैसे भेद भरी रजनी !


किरण

11 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर रचना पढ़वाने के लिए धन्यवाद!

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  2. बहुत अच्छी रचना।
    धन्यवाद इसे पडःअवाने के लिए।

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  3. दो अक्षर का नाम बता कर
    देता परिचय और नहीं,
    सब संसार देख आई पर
    हो न जहाँ वह ठौर नहीं !

    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ...यह दो आखर का नाम क्या हो सकता है ?

    अपनेपन से वैराग्य उत्पन्न होना ...अद्भुत शब्द संयोजन है ...

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. बहुत अच्छा लगा पढ़ कर |सुन्दर भाव और भाषा |
    आशा

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  6. बहुत ही सुन्‍दर भावमय प्रस्‍तुति ।

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  7. बहुत ही सुन्दर भाव लिए...ख़ूबसूरत रचना

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  8. दो अक्षर का नाम बता कर
    देता परिचय और नहीं,
    सब संसार देख आई पर
    हो न जहाँ वह ठौर नहीं !

    बहुत ही सुन्दर रचना

    जवाब देंहटाएं