शुक्रवार, 25 मार्च 2011

क्षणिकायें - ३


हृदय
की कथा नयन कह भी न पाये ,
रहे छलछलाए , व्यथा सह न पाये ,
हुई मूक वाणी विदा के क्षणों में ,
वे रुक ना सके , पैर बढ़ भी न पाये !



जा रहा इस सृष्टि से विश्वास का बल भी ,
छिन रहा इस अवनि से अब स्नेह संबल भी ,
लुट रहा है आज प्राणी सब तरह बिलकुल ,
प्रभु हुए पाषाण तो फिर छा गया छल भी !


लाज का बंधन नयन कब मानते हैं ,
स्नेह की ही साधना सच जानते हैं ,
वे सदय हों या कि निष्ठुर कौन जाने ,
ये मधुर उस मूर्ति को पहचानते हैं !



देखता है भ्रमर खिलते फूल की हँसती जवानी ,
युगल तट को सरित देती धवल रज कण की निशानी ,
प्रेम का प्रतिदान पाना अमर फल सा है असंभव ,
आश तृष्णा मात्र है , विश्वास भूले की कहानी !




किरण


17 टिप्‍पणियां:

  1. लाज का बंधन नयन कब मानते हैं ,
    स्नेह की ही साधना सच जानते हैं ,
    वे सदय हों या कि निष्ठुर कौन जाने ,
    ये मधुर उस मूर्ति को पहचानते हैं !

    saare ek se badh kar ek..:)

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  2. जा रहा इस सृष्टि से विश्वास का बल भी ,
    छिन रहा इस अवनि से अब स्नेह संबल भी ,
    लुट रहा है आज प्राणी सब तरह बिलकुल ,
    प्रभु हुए पाषाण तो फिर छा गया छल भी !
    prabhu pashaan nahi hote, unhen bana diya jata hai

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  3. जा रहा इस सृष्टि से विश्वास का बल भी ,
    छिन रहा इस अवनि से अब स्नेह संबल भी ,
    लुट रहा है आज प्राणी सब तरह बिलकुल ,
    प्रभु हुए पाषाण तो फिर छा गया छल भी !

    सारी क्षणिकाएं एक से बढ़कर एक हैं

    जवाब देंहटाएं
  4. प्रभु हुए पाषाण तो फिर छा गया छल भी !
    ............................
    प्रभु पाषण नहीं हुए है..पाषण को आस्था ने प्रभु बना दिया है..
    तो प्रभु तो हमारी आस्था में ही है ..मूक नहीं हो सकते ...
    हाँ हम समझने में कही पीछे रह जातें है..
    सभी क्षणिकाएं सुन्दर हैं

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  5. मन को छूती क्षनिकाए |बहुत सुंदर भाव
    आशा

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  6. छन्दों का अपना अलग आनंद है और इस आनंद कीअणुभूति आपकी क्षणिकाओं मे मिली

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  7. हृदय की कथा नयन कह भी न पाये ,
    रहे छलछलाए , व्यथा सह न पाये ,
    हुई मूक वाणी विदा के क्षणों में ,
    वे रुक ना सके , पैर बढ़ भी न पाये !

    सभी बहुत मर्मस्पर्शी...बहुत भावपूर्ण

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  8. बहुत सुंदर क्षणिकाएं मन भावन , धन्यवाद

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  9. लाज का बंधन नयन कब मानते हैं ,
    स्नेह की ही साधना सच जानते हैं ,
    वे सदय हों या कि निष्ठुर कौन जाने ,
    ये मधुर उस मूर्ति को पहचानते हैं !

    सारी रचनाएं ही भाव पूर्ण हैं..
    किसका उल्लेख करूँ और किसको छोडूं !
    बस ! उत्तम के अतिरिक्त दूसरे कोई शब्द नहीं हैं...

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  10. लाज का बंधन नयन कब मानते हैं ,
    स्नेह की ही साधना सच जानते हैं ,
    वे सदय हों या कि निष्ठुर कौन जाने ,
    ये मधुर उस मूर्ति को पहचानते हैं !

    सारे मुक्तक बहुत सुन्दर ...यह वाला बहुत पसंद आया ..

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  11. देखता है भ्रमर खिलते फूल की हँसती जवानी ,
    युगल तट को सरित देती धवल रज कण की निशानी ,
    प्रेम का प्रतिदान पाना अमर फल सा है असंभव ,
    आश तृष्णा मात्र है , विश्वास भूले की कहानी !

    आपके कलाम से एक गहरा तजर्बा और सच्ची बात ज़ाहिर हो रही है।
    लेकिन...
    एक बात कहना चाहता हूं एक दूसरी क्षणिका के बारे में
    कि प्रभु दयावान है लेकिन इंसान ही पाषाण हृदय हो चुका है कि उसके दिखाए मार्ग पर नहीं चलता और जब इंसान सच पर न चलेगा तो अनिवार्य कि वह छल में जिएगा और छल में मरेगा। सच को पाने के लिए इंसान को निश्छल होना पड़ेगा। दोष खुद में है, हमें यह मानना चाहिए और कहना चाहिए कि प्रभु सदा करूणाशील और पवित्र है। सच भी यही है।
    साधना जी ! आज आप भी ‘प्यारी माँ‘ के खि़दमतगारों में शामिल हो गई हैं। आपका नाम भी आज से इस ब्लॉग पर चमकेगा और हमें आपकी बेहतरीन रचनाएं पढ़ने को मिलेंगी। यह हमारे लिए बेहद ख़ुशी की बात है।
    हम आपका तहे दिल से स्वागत करते हैं।
    सुस्वागतम् !
    खुश आमदीद !!

    http://pyarimaan.blogspot.com/2011/03/mother-urdu-poetry-part-2.html?showComment=1301150708183#c805627426092504276

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