निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
प्रथम स्नेह का सम्बल देकर दीपक को भरमाया ,
सरल वर्तिका के जीवन को तिल-तिल कर जलवाया ,
जिसने ज्योति बिखेरी सब पर उसके तले अँधेरा ,
पर उपकारी इस दीपक ने जग से है क्या पाया !
इसने चुप-चुप जलना सीखा, जग ने इसे जलाना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
जिस माटी से अन्न उगा, जिसमें जीवन के कण हैं ,
मिलता अमृत सा जल जिसके अंतर से प्रतिक्षण है ,
किन्तु इसे ही व्यर्थ समझ कर सबने की अवहेला ,
जग के अत्याचारों के उस पर कितने ही व्रण हैं !
इसने पल-पल गलना सीखा, जग ने इसे गलाना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
निर्धन कृषकों की मेहनत का फल है सबने देखा ,
उसके अगणित उपकारों का कहो कहाँ पर लेखा ,
रूखी-सूखी खाकर वे औरों पर अन्न लुटाते ,
अंग-अंग से बहा पसीना, मुख स्मित की रेखा !
फिर भी इसने डरना सीखा, जग ने इसे डराना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
जिस नारी के रक्तदान से नर ने यह तन पाया ,
जिसने गीले में सोकर सूखे में इसे सुलाया ,
आज उसी को पशु बतला कर करते हाय अनादर ,
जिसने बरसों भूखी रह कर मन भर इसे खिलाया !
इसने केवल रोना जाना, जग ने इसे रुलाना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
किरण
प्रथम स्नेह का सम्बल देकर दीपक को भरमाया ,
सरल वर्तिका के जीवन को तिल-तिल कर जलवाया ,
जिसने ज्योति बिखेरी सब पर उसके तले अँधेरा ,
पर उपकारी इस दीपक ने जग से है क्या पाया !
इसने चुप-चुप जलना सीखा, जग ने इसे जलाना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
जिस माटी से अन्न उगा, जिसमें जीवन के कण हैं ,
मिलता अमृत सा जल जिसके अंतर से प्रतिक्षण है ,
किन्तु इसे ही व्यर्थ समझ कर सबने की अवहेला ,
जग के अत्याचारों के उस पर कितने ही व्रण हैं !
इसने पल-पल गलना सीखा, जग ने इसे गलाना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
निर्धन कृषकों की मेहनत का फल है सबने देखा ,
उसके अगणित उपकारों का कहो कहाँ पर लेखा ,
रूखी-सूखी खाकर वे औरों पर अन्न लुटाते ,
अंग-अंग से बहा पसीना, मुख स्मित की रेखा !
फिर भी इसने डरना सीखा, जग ने इसे डराना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
जिस नारी के रक्तदान से नर ने यह तन पाया ,
जिसने गीले में सोकर सूखे में इसे सुलाया ,
आज उसी को पशु बतला कर करते हाय अनादर ,
जिसने बरसों भूखी रह कर मन भर इसे खिलाया !
इसने केवल रोना जाना, जग ने इसे रुलाना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
किरण
बहुत सुन्दर रचना ..किरण जी की हर रचना बहुत गहन भावों को समेटे हुए होती है ...
जवाब देंहटाएंअपने आप को धन्य मान रही हूँ ..सुबह सुबह इस अलौकिक रचना को पढ़ने के लिए ..
जवाब देंहटाएंशब्द नहीं हैं क्या लिखूं ...?
अद्भुत ...!!
भावपूर्ण दिल को गहराई तक छूती रचना |
जवाब देंहटाएंआशा
गहन भावो की सुन्दर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंयही विडम्बना है कि जहाँ से सृजन होता है उसी को भुला दिया जाता है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना,
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
बड़ी ही प्रभावी दिल को गहराई तक छूती रचना |
जवाब देंहटाएंThis is really a great creation. What a meaningful poem. Thanks
जवाब देंहटाएंनिर्धन कृषकों की मेहनत का फल है सबने देखा ,
जवाब देंहटाएंउसके अगणित उपकारों का कहो कहाँ पर लेखा ,
रूखी-सूखी खाकर वे औरों पर अन्न लुटाते ,
अंग-अंग से बहा पसीना, मुख स्मित की रेखा !
ये बात कहने वाला आज शायद ही कोई हो।
बहुत ही प्रभावी कविता है।
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कल 27/07/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
गह्र्र अर्थ समेटे ... सुन्दर रचना है ...
जवाब देंहटाएंगहरा व्यंग्य।
जवाब देंहटाएं.......
प्रेम एक दलदल है..
’चोंच में आकाश’ समा लेने की जिद।
इसने केवल रोना जाना, जग ने इसे रुलाना !
जवाब देंहटाएंनिठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
बहुत खूबसूरत रचना एक - एक शब्द बोलता हुआ |