शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010
बह चली वायु
बह चली वायु कुछ पलटी सी !
विक्षिप्त बढ़ी जाती संसृति
कुछ ठिठकी सी, कुछ चलती सी !
बह चली वायु कुछ पलटी सी !
मृदु दिवसों के सुख स्वप्न मुए
जीवन में दुख का राज हुआ,
सुजला सुफला इस धरती पर
उजड़ा सा सारा साज हुआ ,
लो सुनो पुकारें दीनों की
कह रही हाथ कुछ मलती सी !
बह चली वायु कुछ पलटी सी !
अब शक्ति न इतनी कष्ट सहे
क्यों आशा भी हा जला रही,
सुख अमृत दूर हटा हमसे
विपदाओं का विष पिला रही,
क्यों नहीं निराशा छा जाती
आश्वासन आँचल झलती सी !
बह रही वायु कुछ पलटी सी !
दधि दूध छोड़ निर्मल जल तक
पीने को प्राप्त नहीं होता,
क्या जाने कब तक जागेगा
इस उपवन का माली सोता,
यहाँ सदा अष्टमी आती है
भोले भक्तों को छलती सी !
बह चली वायु कुछ पलटी सी !
किरण
रविवार, 26 दिसंबर 2010
विफल आशा
लेकर पूजा की थाली,
फैला रहे क्षितिज पर दिनकर
अपनी किरणों की जाली !
उषा अरुण सेंदुर से अपने
मस्तक का श्रृंगार किये,
चली आ रही धीरे-धीरे
प्रिय पूजा का थाल लिये !
मैं भी चली पूजने अपने
प्रियतम को मंदिर की ओर,
आशा अरु उत्साह भरी थी
नाच रहा था मम मन मोर !
पहुँची प्रियतम के द्वारे पर
किन्तु हाय यह क्या देखा,
मंदिर के पट बंद हाय री
मेरी किस्मत की लेखा !
उषा मुस्कुराती थी लख कर
मेरी असफलता भारी,
लज्जा से मैं गढ़ी हुई थी
कुचल गयी आशा सारी !
किरण
शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010
प्रियागमन
खोले हृदय कुटी के द्वार ,
सोच रही थी कब वे आवें
करूँ तभी मन भर मनुहार !
भरा हुआ उत्साह हृदय में
दर्श लालसा का उन्माद ,
उत्कण्ठा थी प्रति पल-पल पर
मन आँखों में वाद विवाद !
होती यह जिज्ञासा मन में
प्रिय भेंटेंगे पहले मुझसे ,
नयन बोल उट्ठे, "पागल मैं
देखूँगा पहले तुझसे !"
किन्तु रह गये नयन देखते
मन मंदिर प्रिय पहुंचे आज ,
हुआ प्रकाशित सूना मंदिर
बोल उठे वीणा के साज !
विस्मित हुए नयन प्रिय भीतर
कब पहुँचे कर हमको पार ,
हृदय कुटी के द्वारपाल से
झगड़ रहे थे बारम्बार !
किरण
मंगलवार, 14 दिसंबर 2010
नया संसार
जग से दूर क्षितिज तट में,
वहाँ छिपाऊँगी अपने को
अवनी के धूमिल पट में !
दुखियों का साम्राज्य नया
निष्कंटक मैं बनवाऊँगी,
दु:ख राज्य की रानी बन मैं
सुन्दर राज्य चलाऊँगी !
पीड़ा मेरी मंत्री होगी
आहों का मैं बना विधान,
सदा करूँगी खण्डित उससे
सुख का औ आशा का मान !
केवल एक निराशा का
होगा मेरे हाथों में दण्ड,
अरमानों को तोड़-फोड़ कर
मैं कर डालूँगी दो खण्ड !
एक फेंक दूँगी जगती पर
उसका न्याय बताने को,
एक विधाता के चरणों में
अपनी विनय सुनाने को !
और कहूँगी जगत पिता से
"प्रभु दिखलाना तनिक दया,
अमर रहे दुखियों का जीवन
अमर रहे साम्राज्य नया !"
किरण
शनिवार, 11 दिसंबर 2010
ॠतु वर्णन - वर्षा
वर्षा
हुई कष्ट से बावली सी अवनि तब
उमड़ कर हृदय स्त्रोत बन भाप आया,
लगाने को मरहम दुखिनी के व्रणों पर
सुघर वैद्य का रूप भर मेघ आया !
बही आह की वायु कहती कहानी
झड़ी आँसुओं की लगी नैन से जब,
सम्हाले न सम्हला रुदन वेग उससे
भरे ताल, नदियाँ उमड़ती चली तब !
चतुर मोर, दादुर बँधा धीर उसको
सुनाने लगे प्रेमियों की कहानी ,
कि किससे पपीहा दुखी हो रहा है,
कि चातक न पीता है क्यों आज पानी !
कि मछली बिना नीर मरती तड़प क्यों,
कि चुगता चकोरा सदा क्यों अंगारे ,
अमर प्रेम उनका, अटल है लगन यह
कि इस प्रेम पर कष्ट तुमने सहारे !
हुआ धैर्य उसको, नयन पोंछ डाले
मिटा ताप तन का, कि सुध-बुध सम्हाली,
नयन में रहा क्षोभ, भूली सभी कुछ
छटा प्रेम की मुख पे छाई निराली !
विकलता धरा की न भाई किसीको
हरी चुनरी ओढ़ तब मुस्कुराई ,
सुनो वह सुनाऊँ कहानी निराली
सुनी, ना अभी तक किसीने सुनाई !
किरण
मंगलवार, 7 दिसंबर 2010
ॠतु वर्णन - ग्रीष्म
नायिका को अपने प्रियतम के कोप का ताप सहने के लिये
विवश होना पड़ा !
ग्रीष्म
रहा वह ठगा सा निरख कर स्वगृहणी
पगी अन्य के संग रंगराग में थी ,
चढ़ाये नये द्राक्ष की मस्त हाला
नशे में भरी व्यस्त वह फाग में थी !
धधक कर उठी क्रोध की ज्वाल उर में
जली होलिका सी, हुआ रंग काला ,
हुआ रौद्र सा वेश उसका भयंकर
मही का तभी नोच सब साज डाला !
हरी चूनरी घास की चीर डाली ,
गिरे सूख कर पुष्प के आभरण सब,
मिटा रूप अनुपम, बिलखती रही वह,
गयी सूख बिलकुल छुटा प्रिय रमण जब !
ज्वलित सूर्य किरणों का कोड़ा उठा कर
अनेकों धरा पर लगाये तड़प कर ,
फटे अंग उसके, पड़ी तब दरारें
धरा रह गयी तिलमिला कर, सिसक कर !
गये सूख नद, ताल, छाई उदासी
दशा दीन उसकी किसी को न भाई ,
सुनो वह सुनाऊँ कहानी निराली
सुनी, ना अभी तक किसीने सुनाई !
किरण
शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010
ॠतु वर्णन - वसन्त
वसन्त
निरख प्राण प्रियतम हुई आत्म विस्मृत
पुलक कम्प उर में नया रंग लाया,
चुने फूल सरसों के केसर मिलाई
उबटना नया अंग पर तब लगाया !
निशा कालिमा से लिया सद्य काजल
नयन में लगा केश फिर से बँधाए,
प्रकृति चेरी से ले मदिर गंध उसने
मली अंग से, वस्त्र भूषण सजाये !
चुनी रात रानी की कलियाँ सुहानी
जड़ा मोतियों बीच बैना लगाया,
करण फूल सुन्दर बने दाउदी के
सुघर केतकी का गुलूबंद भाया !
जुही की बना पहुँचियाँ पहन डालीं
रची हाथ में लाल मेंहदी सुहानी,
लगा पैर में किन्शुकों की महावर
चमेली की पायल बनी मन लुभानी !
हरी ओढ़ चूनर, सजा साज नूतन
प्रणय केलि में खो गयी सुध गँवाई,
उधर कुहुक कर कह रही जो कोयलिया
ना सुन ही सकी, ना इसे जान पाई !
अचानक हुआ ग्रीष्म का आगमन जो
वहाँ पर किसी को दिया ना दिखाई,
सुनो वह सुनाऊँ कहानी निराली
सुनी, ना किसी ने अभी तक सुनाई !
किरण
बुधवार, 1 दिसंबर 2010
ॠतु वर्णन - शरद
माँ की डायरी में कुछ बहुत ही खूबसूरत कविताएं हैं ! प्रत्येक ॠतु में धरा का प्रेयसी
के रूप में मानवीकरण कर उसके साज श्रृंगार और भाव प्रवणता को उन्होंने बहुत सुन्दर
एवं हृदयग्राही काव्यरूप में सँजोया है ! यह ॠतु वर्णन चार भागों में शब्दबद्ध है -
शरद, वसंत, ग्रीष्म और वर्षा ! पाठकों से अनुरोध है कि इन कविताओं का समग्र रूप
से रसास्वादन करने के लिये इन सभी रचनाओं को वे अवश्य पढ़ें तभी वे इसका भरपूर
आनंद उठा सकेंगे ! इसी क्रम में प्रस्तुत है आज पहली रचना - शरद ॠतु !
शरद ॠतु
सुनो वह सुनाऊँ कहानी निराली,
सुनी, ना किसीने अभी तक सुनाई !
धरणि नायिका आगमन जान प्रिय का
शरद् चन्द्र का थाल सुन्दर सजाये,
अँधेरी अमावस में तारक अवलि के
सुघर दीप की आरती को जलाये !
भरा स्नेह जीवन, बना दीप सुन्दर
बनी वर्तिका थी प्रतीक्षा मनोहर,
जले दीप आशा के दीपावली में
खिला रूप अनुपम प्रकाशित तमोहर !
प्रणय कल्पना में सिहरती, ठिठकती
थिरकती चली अटपटी चाल से वह,
कभी काँप उठती, कभी चौंक पड़ती
कभी स्वेद को पोंछती भाल से वह !
नये किसलयों से सजाया स्व तन को
पुराने पड़े पीत पल्लव हटाये,
सजाये सघन केश, वेणी बनाई
भरी माँग शबनम के मोती सजाये !
हटा कालिमा की फटी जीर्ण साड़ी
धवल चंद्रिका में छिपा गात सुन्दर,
अभी द्वार तक वह पहुँच भी न पाई
सुनी चाप पद की उधर मंद मंथर !
सुना द्वार पर कुछ बँधा सा इशारा
खिली वह, किसी को दया न दिखाई,
सुनो वह सुनाऊँ कहानी निराली
सुनी, ना किसीने अभी तक सुनाई !
किरण
शनिवार, 27 नवंबर 2010
मुझको ऐसे गीत चाहिये
जो पतझड़ में मधुॠतु ला दे
मुझको वह संगीत चाहिये !
मुझको ऐसे गीत चाहिये !
जो चुन लायें श्रम के मोती,
जो वर लायें जीवन ज्योति,
जो चेतायें दुनिया सोती,
मुझको ऐसे मीत चाहिये !
मुझको ऐसे गीत चाहिये !
जो झोली भर दे दीनों की,
आहें छीने आधीनों की,
हों झंकृत तानें बीनों की,
मुझको ऐसी प्रीत चाहिये !
मुझको ऐसे गीत चाहिये !
दुखियों के अरमान दिला दे,
जीवन के वरदान दिला दे,
मर मिटने का मान दिला दे,
मुझको ऐसी जीत चाहिये !
मुझको ऐसे गीत चाहिये !
किरण
बुधवार, 24 नवंबर 2010
पुण्य स्मरण - गुरु तेग बहादुर
को यह विनम्र एवं भावभीनी श्रद्धांजलि !
तेरे ऐसे रत्न हुए माँ जिनकी शोभा अनियारी,
तेरे ऐसे दीप जले माँ जिनकी शाश्वत उजियारी !
तव बगिया के वृक्ष निराले, अमिट सुखद जिनकी छाया,
ऐसे राग बनाए तूने जिन्हें विश्व भर ने गाया !
तेरे ताल, सरोवर, निर्झर शीतल, निर्मल नीर भरे,
तेरे लाल लाड़ले ऐसे जिन पर दुनिया गर्व करे !
रत्न खान पंजाब भूमि ने ऐसा दीप्त रत्न पाया,
जिसके सद्गुण की आभा से जग आलोकित हो आया !
आनंदपुर ने दीप सँजोया जिसकी ज्योति जली अवदात,
वर्ष तीन सौ बीत चुके पर स्वयम् प्रकाशित है दिन रात !
ऐसा वह वटवृक्ष निराला जिसकी छाया सुखदायी !
सिसक रही मानवता उसके आँचल में जा मुस्काई !
पंच महानद की लहरों से ऐसा गूँजा अद्भुत राग,
मृत जनजीवन के प्रति जागा मानव मन में नव अनुराग !
जिसने ज्ञान सरोवर में अवगाहन कर मन विमल किया,
धन्य लाल वह तेरा माँ जिसने सर देकर 'सी' न किया !
जिसने धर्म ध्वजा फहराई जिसने रक्खा माँ का मान,
दीन दुखी जन के रक्षण में जिसने प्राण किये कुर्बान !
दानवता अविचार मिटाने जिसकी तेग चली अविराम,
तेग बहादुर गुरू चरणों में अर्पित कोटि कोटि परनाम !
किरण
रविवार, 21 नवंबर 2010
राह बताता जा रे राही
बीहड़ पंथ डगर अनजानी,
बिजली कड़के बरसे पानी,
नदी भयानक उमड़ रही है,
नाव डलाता जा रे राही !
राह बताता जा रे राही !
मेरी मंजिल बहुत दूर है,
अन्धकार से राह पूर है,
स्नेह चुका जर्जर है बाती,
दीप जलाता जा रे राही !
राह बताता जा रे राही !
चलते-चलते हार गयी रे,
नैनन से जलधार बही रे,
ओ रे निष्ठुर व्यथित हृदय की,
पीर मिटाता जा रे राही !
राह बताता जा रे राही !
रूठे देव मनाऊँ कैसे,
दर्शन उनके पाऊँ कैसे,
मान भरे मेरे अंतर का
मान मिटाता जा रे राही !
राह बताता जा रे राही !
राह बताता जा !
किरण
गुरुवार, 18 नवंबर 2010
बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !
ले समस्त अंतर का प्यार
आई हूँ मैं तेरे द्वार,
सुन्दर भाव कुसुम सुकुमार
करने भेंट अश्रु का हार,
खोल खोल ओ रे करुणामय
अपनी करुण कुटी का द्वार !
बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !
इस जीवन के शीत हेमंत
मम पतझड़ के मधुर वसंत,
तीव्र ग्रीष्म में जल की धार
शीतल तव स्मृति आभार,
निष्ठुर निर्दयता में क्या
पा लोगे अब जीवन का सार !
बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !
व्याकुल उर की क्षीण पुकार
और दीन दुखियों का प्यार,
दया सिंधु वह दया अपार
तुम्हें खींच लाती इस पार,
क्या न तुम्हें कुछ आती करुणा
सुन कर मेरी करुण पुकार !
बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !
किरण
रविवार, 14 नवंबर 2010
मंगल कामना
के दिन उन्हीं को समर्पित की गयी थी ! कदाचित तब देश को नयी-नयी
आज़ादी मिली थी और वे देश के प्रथम प्रधान मंत्री बने थे ! आज उनके
ब्लॉग के माध्यम से ये श्रृद्धा सुमन उनकी ओर से मैं नेहरू जी के पुण्य
स्मरण को समर्पित कर रही हूँ !
साधना
ओ शरद निशे ले आई हो यों अद्भुत सुख भण्डार सखी,
लहराता दसों दिशाओं में आनंद का पारावार सखी,
लो मूक हुई वाणी कैसे अब प्रकट करूँ उद्गार सखी,
सह सकता कैसे दीन हृदय कब इतने सुख का भार सखी !
बिखरा कर मधुर चंद्रिका यह किसका तू है स्वागत करती,
देती बिखेर स्वर्णिम तारे, मानो निर्धन का घर भरती,
मुक्तामय ओस गिरा कर जो बहुमूल्य निछावर तू करती,
किसका इस मदिर पवन द्वारा आराधन आवाहन करती !
कुछ ऊली फूली बढ़ी चली किस ओर अरी जाती सजनी,
द्रुम दल को हिला-हिला हर्षित कल कीर्ति मधुर गाती सजनी,
यदि लाल किले के सुदृढ़ मार्ग की ओर चली जाती सजनी,
तो हृदय कुञ्ज के भाव कुसुम पहुँचा उन तक आती सजनी !
देती बिखेर उन चरणों पर इस तुच्छ हृदय का प्यार सखी,
लेती पखार फिर युगल चरण निर्मल नयनांजलि ढार सखी,
पुलकित उर वीणा की उन तक पहुँचाना यह झंकार सखी,
तेरे स्वर में मिलकर ये स्वर कर उठें मधुर गुंजार सखी !
पृथ्वी जल वायु रहे जब तक गंगा यमुना की धार सखी,
शशि रहे चंद्रिकायुक्त, रवी रहे ज्योती का आगार सखी,
लहराये तिरंगा भारत का सत रज तम हो साकार सखी,
हो सुदृढ़ राष्ट्र की नींव, अखंडित हो स्वतंत्र सरकार सखी !
किरण
बुधवार, 10 नवंबर 2010
मैं जाऊँ ढूँढने कहाँ-कहाँ ?
रजनी की काली अलकों में,
तारों की झिलमिल ज्योती में,
तुम छिपे हुए हो जीवन धन
इस ओस के सुन्दर मोती में !
निशिपति की मृदु मुस्काहट में
आकर के तुम मुस्का जाते,
घिर करके श्याम बादलों में
तुम उनको खेल खिला जाते !
सुन्दर गुलाब की लाली में
अधरों की लाली छिपती है,
कोमल कलिका के रंगों में
हाथों की लाली छिपती है !
सूरज की ज्योती में प्रियतम
ज्योतिर्मय रूप तुम्हारा है,
अरुणोदय की अँगड़ाई में
उज्ज्वलतम रूप तुम्हारा है !
सरिता की चंचल लहरों में
वह श्याम रूप बहता पाया,
सागर के शांत कलेवर में
तव शांत रूप ठहरा पाया !
घर में, मग में, वन-उपवन में,
पृथ्वी, आकाश में, यहाँ-वहाँ,
सर्वत्र व्याप्त हो श्याम तुम्हीं
मैं जाऊँ ढूँढने कहाँ-कहाँ !
किरण
शनिवार, 6 नवंबर 2010
रहस्य
सब संसृति मतवाली है,
पार वही हो जाता इससे
जिसने पथ गति पा ली है !
जीवन है वरदान या कि
अभिशाप न जाना जाता है,
है दुर्गम इसकी गली-गली
पथ कोई खोज न पाता है !
सुख सामग्री भी बन जाती
कभी यहाँ दुःख का आगार,
कभी सिखाता दुःख जीवन को
करना अपनेपन से प्यार !
तन की ममता कभी भूलती
कभी मोह होता दुर्दांत,
घृणा कभी होती जीवन से
पीड़ा करती कभी अशांत !
आह खोज कैसे पायेंगे
इस रहस्य को पागल प्राण,
सदा जलेंगे इसी ज्वाल में
होगा कभी न इससे त्राण !
किरण
शनिवार, 30 अक्टूबर 2010
संसृति के भाव
हो जीवन अभावमय आज,
विगत सुखों के स्वप्न मिटे
आगामी मृदु वैभव का साज !
भाग्य चक्र ने बना दिया जो
क्यों हो उससे क्षोभ सखे,
देख मधुर जीवन औरों का
क्यों हो उसका लोभ सखे !
खण्ड-खण्ड हो बिखर गये
यदि आशा के वे भव्य प्रसाद,
हो बिखरा नैराश्य कुटी में
जीवन का मृदुतम आल्हाद !
स्मृति सरिता इठलाती
कुटिया के प्रांगण में आये,
दिखा नवीन केलि क्रीडा
दुखिया मन को बहला जाये !
नयनों का निर्झर झर-झर कर
प्राणों में अपनत्व भरे,
निश्वासों का मलयानिल
जीवन वन में अमरत्व भरे !
विपदाओं के उमड़-घुमड़
जब घिर आयें बादल अनजान,
तड़ित वेग से चमक उठे तब
प्रिय अधरों की मृदु मुस्कान !
किरण
बुधवार, 27 अक्टूबर 2010
हृदय का ज्वार
व्यर्थ नयन भर-भर आते हैं,
पागल तुझको देख सिसकता
पत्थर दिल मुसका जाते हैं !
युग-युग की प्यासी यह संसृति
पिये करोड़ों आँसू बैठी,
तेरे इन मानस मुक्तों की
कीमत कौन लगा पाते हैं !
यदि अपने अंतरतम के
तू घाव नोंच कर रक्तिम कर ले,
अपने नन्हे से अंतर में
सब दुनिया की पीड़ा भर ले !
तेरे छाले फूट-फूट बह उठें
मर्म टीसें सह-सह कर,
पर जग को क्या परवा तेरी
तू चाहे जो कुछ भी कर ले !
यह जीवन तिल-तिल करके
जल जाएगा ओ पागल प्राणी,
चिता जला देगी इस तन को
रह जायेगी एक कहानी !
अरे कौन तेरी गाथा को
कहे सुनेगा कौन है तेरा,
इस निष्ठुर जग ने अब तक है
कब किसकी पीड़ा पहचानी !
तूने समझा जिन्हें फूल है
वे हैं तीक्ष्ण शूल अभिमानी,
स्वार्थपूर्ण संसार यहाँ पर
सब करते रहते मनमानी !
मान व्यर्थ है कौन मनाने
आएगा तेरा रूठा मन,
व्यर्थ हृदय का रक्त लुटाता
बना नयन निर्झर का पानी !
जग तो सोता शान्ति सेज पर
तू क्यों बिलख-बिलख कर रोता,
नयनों के सागर से स्मृतियों
के चित्र पटल क्यों धोता !
प्राणों की पीड़ा झर-झर कर
व्यर्थ लुटाती अपना जीवन,
हृदय कृषक क्यों निर्ममता की
धरती पर यह मुक्ता बोता !
सखे निर्ममों का यह मेला
यहाँ न स्वप्नों का कुछ मोल,
तेरी आहों, निश्वासों और
आँसू का है क्या कुछ तोल !
आओ क्षण भर इनके संग मिल
हम भी अपना साज बजायें,
यह क्षण भंगुर जीवन साथी
नहीं तनिक भी है अनमोल !
किरण
रविवार, 24 अक्टूबर 2010
यह कोई भगवान नहीं है
मोह, राग,करुणा कोमलता साजों के उखड़े सारे स्वर,
साथी खोज रहे हो किस आशा से सुदृढ़ पतवारें,
भँवर-भँवर पर नाच रही है मानवता की नौका जर्जर !
तट हैं दूर, किनारे पंकिल, मंजिल की पहचान नहीं है,
पथ काँटों से भरे हुए हैं, सही दिशा का ज्ञान नहीं है,
कहाँ भटकते भोले राही, कौन तुम्हारा पथ दर्शक है,
यह तो पत्थर की प्रतिमा है, यह कोई भगवान नहीं है !
किरण
गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010
कवि से
वितरित करता है कण-कण में अमर सत्य, वेदना महान्
कवि यह तेरा करुणा गान !
यदि संसृति के वज्र प्रहारों से तेरा उर क्षत-विक्षत है,
फिर भी मन की अस्थिरता क्या नहीं तुझे कुछ भी अवगत है ?
दर्द भरे स्वर से गा गाकर सुना रहे हो किसे कथा यह,
क्रूर कठिन पाषाणों को क्यों दिखा रहे हो व्यर्थ व्यथा यह ?
उर में आग, नयन में जीवन, भर अधरों में मृदु मुस्कान !
सुना रहे क्यों करुणा गान !
पा न सके यदि कृपा सिंधु का एक बिंदु तुम निष्ठुर जग से,
पर कवि मनु के अमर पुत्र क्या हट जाओगे आशा मग से ?
विचलित उर में भाव सजा कर वह प्रलयंकारी राग सुना दो,
व्यथित राष्ट्र के जीवन में फिर विप्लव की ज्वाला सुलगा दो !
परिवर्तित हो अश्रु पूर्ण नयनों में अब वीरत्व महान् !
सुना न कवि यह करुणा गान !
किरण
शनिवार, 16 अक्टूबर 2010
देव सुन कर क्या करोगे
यह अभावों की लपट में जल चुका जो वह नगर है,
बेकसी ने जिसे घेरा, हाय यह वह भग्न घर है !
लुट चुका विश्वास जिसका, तड़पती आशा बिचारी,
नयन के श्रृंगार मुक्ता बन चुके अब नीर खारी !
यह न आँसू की लड़ी, है ज्वलित मानव की निशानी,
दग्ध अंतर की चिता पर झुलसती तृष्णा विरानी !
देव सुन कर क्या करोगे दुखी जीवन की कहानी !
खा चुका जो ठोकरें, अगणित सही हैं लांछनाएं,
पर न कर पाया सुफल कुछ भी रही जो वांछनाएं !
बढ़ रही प्रतिपल विरोधों की लपट नित ज्वाल बन कर,
मिट रहा वह जो कभी लाया यहाँ अमरत्व चुन कर !
मनुज को छलती रही है आदि से अभिलाष मानी,
लुट रही करुणा न पिघले पर कभी पाषाण प्राणी !
देव सुन कर क्या करोगे दुखी जीवन की कहानी !
किरण
रविवार, 10 अक्टूबर 2010
साथी राग कौन सा गाऊँ !
बुझती प्रेम वर्तिका में अब कैसे जीवन ज्योति जगाऊँ !
साथी राग कौन सा गाऊँ !
चारों ओर देखती साथी अगम सिंधु दुख का लहराता,
पग-पग शान्ति निरादृत होती,यह जग निष्ठुरता अपनाता,
बोलो तो इस दुखिया मन को क्या कैसे कह कर समझाऊँ !
साथी राग कौन सा गाऊँ !
नित्य जलाती ह्रदय कुञ्ज को चिंता की ज्वाला तिल तिल कर,
जग अपनाता जिसे प्रेम से त्याग रहा उसको पागल उर,
इस उन्मत्त प्रकृति में कैसे बोलो तो प्रिय मैं मिल जाऊँ !
साथी राग कौन सा गाऊँ !
चाह रही हूँ मैं मुसकाना पर यह नैन उमड़ पड़ते हैं,
पुष्प झड़ें उससे पहले ये मोती मुग्ध बरस पड़ते हैं,
बोलो शान्ति देवि की कैसे साथी मैं पूजा कर पाऊँ !
साथी राग कौन सा गाऊँ !
मेरा कवि हँस रहा सखे पर हृदय लुटाता रक्त कटोरे,
चिर निंद्रा है एक ओर औ दूजी ओर प्रेम के डोरे,
कहो न साथी अरे कौन से पथ पर मैं निज पैर बढ़ाऊँ !
साथी राग कौन सा गाऊँ !
देख रहे सब सुख के सपने, मैं दु:खों का भार संजोये,
स्मृति के सागर में विस्मृत मुक्ताओं की माल पिरोये,
स्वागत को द्वारे पर आई, अब कैसे सब साज सजाऊँ !
साथी राग कौन सा गाऊँ !
किरण
गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010
* क्या जग का उद्धार न होगा *
ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?
इस पतझड़ के से मौसम में
उपवन का श्रृंगार लुट गया,
लजवंती रजनी के कर से
आँचल का आधार छुट गया,
उमड़ी करुणा के मेघों से पृथ्वी का अभिसार न होगा ?
ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?
मुरझाये फूलों का यौवन
आज धूल में तड़प रहा है,
काँटों के संग रह जीवन में
कितना उसने कष्ट सहा है,
किन्तु देवता की प्रतिमा पर चढ़ने का अधिकार न होगा ?
ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?
उन्मादिनी हवा ने आकर
सूखे पत्तों को झकझोरा,
मर्मर कर धरिणी पर छाये
सुखद वृक्ष का आश्रय छोड़ा,
कुम्हलाई कलियों के उर में क्या जीवन का प्यार न होगा ?
ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?
ओ माली तेरी बगिया में
आ वसंत कब मुस्कायेगा,
कब कोकिल आग्रह के स्वर में
स्वागत गीत यहाँ गायेगा,
क्या तितली भौरों के जीवन में सुख का संचार न होगा ?
ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?
किरण
सोमवार, 4 अक्टूबर 2010
* देव सुन कर क्या करोगे *
देव सुन कर क्या करोगे दुखी जीवन की कहानी !
यह अभावों की लपट में जल चुका जो वह नगर है,
बेकसी ने जिसे घेरा, हाय यह वह भग्न घर है,
लुट चुका विश्वास जिसका, तड़पती आशा बेचारी,
नयन के श्रृंगार मुक्ता बन चुके अब नीर खारी !
खा चुका जो ठोकरें, अगणित सही हैं लांछनायें,
पर न कर पाया सुफल कुछ भी रहीं जो वांछनायें,
बढ़ रही प्रतिपल विरोधों की लपट नित ज्वाल बन कर,
मिट रहा वह जो कभी लाया यहाँ अमरत्व चुन कर !
मनुज को छलती रही है आदि से अभिलाष मानी,
लुट रही करुणा न पिघले पर कभी पाषाण प्राणी,
यह न आँसू की लड़ी है ज्वलित मानव की निशानी,
देव सुन कर क्या करोगे दुखी जीवन की कहानी !
किरण
शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010
* अमर बापू *
पाठकों से विनम्र निवेदन है कि इस कविता का रचनाकाल पचास के दशक का है ! वे इस तथ्य के साथ इस रचना का रसास्वादन करें ! यह श्रद्धांजलि मेरी माँ 'किरण' जी के द्वारा श्रद्धेय बापू को !
२ अक्टूबर पर विशिष्ट भेंट !
बापू तुमने बाग लगाया, खिले फूल मतवारे थे,
इन फूलों ने निज गौरव पर तन मन धन सब वारे थे !
बापू तुमने पंथ दिखाया, चले देश के लाल सुघर,
जिनकी धमक पैर की सुन कर महाकाल भी भागा डर !
बापू तुमने ज्योति जला दी देश प्रेम की मतवाली,
हँस कर जिस पर जान लुटा दी कोटि शलभ ने मतवाली !
बापू तुमने बीन बजाई मणिधर सोये जाग गए,
सुन फुंकार निराली जिनकी बैरी भी सब भाग गए !
बापू तुमने गीता गाई, फिर अर्जुन से चेते वीर,
हुआ देश आज़ाद, मिटी युग-युग की माँ के मन की पीर !
आ जाओ, ओ बापू, फिर से भारत तुम्हें बुलाता है,
नवजीवन संचार करो, यह मन की भीति भुलाता है !
अभी तुम्हारे जैसे त्यागी की भारत में कमी बड़ी,
आओ बापू, फिर से जोड़ो सत्य त्याग की सुघर कड़ी !
किरण
बुधवार, 29 सितंबर 2010
* हार बैठी आज मैं सखी *
प्राण वीणा में निरंतर
करूण स्वर मैं साधती थी ,
उड़ सकूँगी क्यों न मैं भी
सोच साहस बाँधती थी ,
व्यर्थ थी वह साधना औ व्यर्थ यह साहस रहा सखी !
पंथ का कर व्यर्थ अर्चन हार बैठी आज मैं सखी !
डगमगाती तरिणी ने
मँझधार भी न देख पाया ,
क्रूर झंझावात ने
पतवार बन उसको बढ़ाया,
खो गयीं सारी दिशायें, तिमिर में ही बढ़ रही सखी !
पंथ का कर व्यर्थ अर्चन हार बैठी आज मैं सखी !
उषा हँसती, किरण जगती
ज्योति से जग जगमगाता ,
क्षितिज तट का शून्य अंतर
पर न कोई मिटा पाता ,
है क्षणिक द्युति, शून्य शाश्वत, जान पाई आज मैं सखी !
पंथ का कर व्यर्थ अर्चन हार बैठी आज मैं सखी !
किरण
शनिवार, 25 सितंबर 2010
* मैंने कितने दीप जलाए *
मेरे स्नेह भरे दीपक थे,
सूनी कुटिया के सम्बल थे,
मैंने उनकी क्षीण प्रभा में
अगणित स्वप्न सजाये !
मैंने कितने दीप जलाए !
आँचल से उनको दुलराया,
तूफानों से उन्हें बचाया,
मेरे अँधियारे जीवन को
ज्योतित वो कर पाये !
मैंने कितने दीप जलाये !
अंधकार रजनी की बेला,
नभ पर है तारों का मेला,
उनसे तेरा मन ना बहला
मेरे दीप चुराये !
मैंने कितने दीप जलाये !
तूने क्या इसमें सुख पाया,
मेरे आँसू पर मुसकाया,
निर्मम तुझको दया न आई
मेरे दीप बुझाये !
मैंने कितने दीप जलाये !
किरण
बुधवार, 22 सितंबर 2010
* नवगान *
हैं सभी स्वर लय पुराने
कौन सी नव गत बजाऊँ !
कौन सा नव गान गाऊँ !
श्याम अलकों में छिपाये
चँद्रमुख वह रजनि आती,
तारकों से माँग भर कर
स्वप्न जीवन में सजाती,
वह सुखी है,प्रिय,दुखी उर
मैं उसे कैसे दिखाऊँ !
कौन सा नव गान गाऊँ !
चरण अंकित कर महावर
से उषा सुन्दरि सुहागन,
पूजने आती दिवाकर
हृदय में ले साध अनगिन,
भावना के लोक से
कैसे उसे मैं बाँध लाऊँ !
कौन सा नव गान गाऊँ !
प्रिय मिलन को जा रही सरि
आश के दीपक सजाये,
खिलखिलाती लहरियों में
नूपुरों के स्वर मिलाये,
वह अलस मस्ती कहाँ से
व्यथित उर में साध पाऊँ !
कौन सा नव गान गाऊँ !
किरण
शनिवार, 18 सितंबर 2010
* पंछी अकेला *
नील नभ के सुघर उपवन ओर बढ़ता जा रहा था,
केतकी के कुञ्ज सा उड्पुन्ज मन को भा रहा था,
खोजती थीं चपल आँखें शांत, निर्जन, शून्य कोटर,
रच सके वह रह जहाँ निज कल्पना का नीड़ सुन्दर,
रवि किरण मुरझा रही थी, आ रही थी सांध्य बेला !
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
थक चुके थे पंख उसके छा रही मन पर उदासी,
क्रूर जग की निठुरता से हो दुखी, जीवन निरासी,
अलस उर में शून्य का साम्राज्य अविचल छा रहा था,
उस प्रताड़ित आत्मा पर शोक तम गहरा रहा था,
सोचता वह बैठ जाऊँ एक क्षण को पंख फैला !
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
तृण चुनूँ कोमल उदित रवि किरण के सुन्दर सुहाने,
श्वेत बादल से चुनूँ कुछ रूई के टुकड़े लुभाने,
चाँदनी की चुरा कतरन सुघर तारक कुसुम चुन लूँ,
और अपनी प्रियतमा संग नीड़ नव निर्माण कर लूँ,
हो सुखद संसार मेरा, हो मधुर प्रात: सुनहला !
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
देखता हूँ इधर कुछ फैले हुए से नाज के कण,
झिलमिलाते गेहूँओं की कांति से है सुघर हर कण,
ला चुगाऊँ नवल कोमल बालकों को चैन पाऊँ,
शान्ति का संसार रच लूँ प्रेम का जीवन बिताऊँ,
निर्दयी झंझा न होगी और बधिकों का न मेला !
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
इस जगत में स्वार्थ से हैं भरे सब ये आज प्राणी,
दूसरों की शान्ति सुख का हरण करते हैं गुमानी,
मारते ठोकर, सहारा बेबसों को भी न देते,
चोंच में आया हुआ चुग्गा झपट कर छीन लेते,
दीखता जब यह सुघर उपवन न क्यों छोड़ूँ झमेला !
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
किरण
गुरुवार, 16 सितंबर 2010
* नाव न रोको *
चली जा रही अपने पथ पर
डग-मग बहती हिलती डुलती,
इस चंचल उत्फुल्ल सरित पर
इठलाती कुछ गाती चलती,
मेरी मंजिल दूर, देव मुझको
जाने दो, अब मत रोको !
साथी मेरी नाव न रोको !
सह न सकेगा यह उर यह सुख
हर न सकेगा प्राणों का दुःख,
मेरे जीवन के पथ पर सम
कैसा दुःख और कैसा प्रिय सुख,
मेरी अमर अश्रुओं की निधि
मत छीनो, मुझको मत रोको !
साथी मेरी नाव न रोको !
मैं बहती हूँ , बहने दो प्रिय
मैं सहती हूँ, सहने दो प्रिय,
मेरी भग्न हृदय कुटिया को
यदि सूना तुम छोड़ सको प्रिय,
तो जाओ, आबाद रहो तुम
मेरा शाश्वत पंथ न रोको !
साथी मेरी नाव न रोको !
किरण
रविवार, 12 सितंबर 2010
* अनुनय *
मैंने की तव छवि निर्माण,
सुख से उछले पड़ते हैं ये
मेरे पागल हर्षित प्राण !
कभी प्रेम से कर मनुहारें
उसे मनाने को आते,
देकर 'निठुर' उपाधि कभी वे
उससे रूठ बैठ जाते !
मूर्ति तुम्हारी ही को प्रियतम
समझ रहे हैं वे निज देव,
कब तक यों छल करके उनसे
कहाँ छुपोगे तुम स्वयमेव !
इन भोले प्राणों के संग यह
बोलो नाथ कहाँ का न्याय,
हुए जर्जरित व्याकुलता से
अधिक न सह सकते अन्याय !
प्रियतम यदि वे दर्श तुम्हारा
शीघ्र यहाँ न पायेंगे,
तो जीवन का मोह छोड़ कर
पास तुम्हारे आयेंगे !
किरण
गुरुवार, 9 सितंबर 2010
* साकार बनो ओ निराकार *
कर प्राण देह से अलग
भला क्या मानव मानव रह सकता,
पूजा के बिना पुजारिन का
अस्तित्व न कोई रह सकता !
अंतर की भाव तरंगों का
होता है मुख पर आवर्तन,
मानस का हर्ष शोक आकर
करता नयनों में परिवर्तन !
अनुभव के बिना न हो सकती
अभिव्यक्ति कभी भी जीवन में,
क्या बिना सत्य आधार लिए
कल्पना कभी जगती मन में !
बतला असीम बिन सीमा के
कैसे तेरा अस्तित्व रहे ,
मृत हो न जगत में आज अरे
तो कैसे फिर अमरत्व रहे !
जल बिना जलाशय का जीवन
जगती में किसने है देखा,
वह चित्र बनेगा कैसे फिर
जिसमें न बने पहले रेखा !
सृष्टा और संसृति में रखना,
है भेदभाव फिर निराधार,
तेरी साकार मूर्ति ही है
मेरी पूजा, मेरा श्रृंगार !
साकार बनो ओ निराकार !
किरण
शनिवार, 4 सितंबर 2010
* आँसू दे सन्देश *
आहें दे आदेश प्रेम का पंथ दिखायें !
लख जीवन गति स्वयम् देव तुम जान सकोगे,
मेरे उर के भाव प्राण पहचान सकोगे !
आस न देना मुझे कुटिल जग छलने वाली,
मत देना विश्वासपूर्ण दुनिया मतवाली !
नहीं तुम्हारे दिव्य चरण की दर्श लालसा,
और न जग जो प्रेम वधिक के सघन जाल सा !
देना दुःख का देश तुम्हें उसमें पाउँगी,
या दुखियों का प्रेम कि जिसमें खो जाउँगी !
मिल जायेंगे निश्छल मन से मैं-तुम तुम-मैं,
पाप पुञ्ज सा दुखमय जीवन करके सुखमय !
हम दोनों का प्रेम वहीं सीमित हो जाये,
क्षुद्र जगत के जीव उसे पहचान न पाये !
किरण
रविवार, 29 अगस्त 2010
* आँसू से भीगा आँचल *
जब संध्या की बेला में
उड़ती चिड़ियों की पाँतें,
कर याद हाय रो पड़ती
बीते युग की वो बातें,
जब तुम मुझसे कुछ कहते
मैं लज्जा से झुक जाती,
मेरी अलकों की लड़ियाँ
कानों के कंगना बाती,
बस इसीलिये तो उठता
यह ज्वार ह्रदय में उच्छल !
मैं लिये हाथ में बैठी आँसू से भीगा आँचल !
सोते नीड़ों में पंछी
पंखों में चंचु छिपाए,
आँसू की माल पिरोती
मैं मन में पीर बसाए,
तुम भूल गए परदेसी
उस शरद यामिनी के क्षण,
जब किरण उज्ज्वला आकर
सिंचित कर जाती तन मन,
ये दृश्य अभी भी चित्रित
है ह्रदय पटल पर अविकल !
मैं लिये हाथ में बैठी आँसू से भीगा आँचल !
मधु ऋतु की मधुरिम संध्या
की याद ह्रदय में आती,
तुम कुंजों में जा छिपते
मैं एकाकी डर जाती,
व्याकुल उर की विनती सुन
तुम आते मैं मुस्काती,
बतला तो दो कब तक मैं
यूँ मन को रहूँ भुलाती,
टूटी सारी आशायें
टूटा जीने का सम्बल !
मैं लिये हाथ में बैठी आँसू से भीगा आँचल !
किरण
बुधवार, 25 अगस्त 2010
* जिज्ञासा *
लेकर मैंने प्यार किया,
दुनिया के सारे वैभव को
तव चरणों में वार दिया !
किन्तु अविश्वासी जगती से
छिपा न मेरा प्यार महान्,
पागल कहा किसीने मुझको
कहा किसीने निपट अजान !
कहा एक ने ढोंगी है यह
जग छलने का स्वांग किया,
कहा किसी ने प्रस्तर पर
इस पगली ने वैराग्य लिया !
लख कर मंजुल मूर्ति तुम्हारी
मैंने था सौभाग्य लिया ,
कह दो मेरे इष्ट देव
क्या मैंने यह अपराध किया ?
किरण
शुक्रवार, 20 अगस्त 2010
* मेरी वीणे *
सुना-सुना कुछ प्रियतम हित ही
मधुमय अमृत घोल !
मेरी वीणे कुछ तो बोल !
मीठे-मीठे राग सुना कर,
प्रियतम के सुन्दर गुण गाकर,
इस व्याकुल से उर की उलझी
गुत्थी को तू खोल !
मेरी वीणे कुछ तो बोल !
उन्हें बुला दे अगम शक्ति से,
राग सुना कर प्रेम भक्ति के,
ओ मेरे जीवन की सहचरी
प्रिय का ह्रदय टटोल !
मेरी वीणे कुछ तो बोल !
विरह गान गाये जीवन भर,
रोयी है तू मुझे रुला कर,
गा मृदु स्वर लय आशा तंत्री
रस में विष मत घोल !
मेरी वीणे कुछ तो बोल !
किरण
गुरुवार, 12 अगस्त 2010
* शून्य ह्रदय *
साथी शून्य ह्रदय यह मेरा
पर नयनों में नीर नहीं है,
है उत्फुल्ल न मन फिर भी
प्राणों में ऐसी पीर नहीं है !
रहीं जागती अभिलाषायें
अब तक, अब अलसा कर बोलीं,
'जग की विषम भावना से
क्या लड़ें, ह्रदय में धीर नहीं है !'
आशा भी उक्ता कर कहने लगी
'हमें भी जाने दो अब,
सूने घर में डेरा डालें
हम कुछ इतनी वीर नहीं हैं !'
भाग्य खींच जीवन नौका को
संसृति सागर में ले आया,
चारों ओर खोजने पर भी
मिलता कोई तीर नहीं है !
साथी जैसा क्रम चलता है
चलने दो, इसको मत छेड़ो,
लुटी हुई इस दुनिया में
मिलता कोई भी मीर नहीं है !
किरण
शुक्रवार, 6 अगस्त 2010
* कैसे कहूँ *
उमड़-उमड़ कर कहते आँसू इस जीवन की करुण कथा !
आज याद आती बचपन की कैसा था वह प्यारा काल,
खाना, हँसना और खेलना अल्हड़पन से मालामाल !
मैं भोली थी, लेशमात्र भी दुःख का ज्ञान न था मुझको,
नहीं जानती, प्रेम द्वेष का किंचित् भान न था मुझको !
निज सखियों संग खेल खेलना, गाना ही था मुझे पसंद,
प्रेम कलह में कैसा सुख था, रहती थी कैसी निर्द्वंद !
किन्तु समय ने पलटा खाया, मैंने यौवन पथ देखा,
इस विष के प्याले को सजनी मैंने अमृत सम लेखा !
देखा मैंने प्रेम पंथ भी, प्रियतम को भी देखा खूब,
और प्रणय की रंगरलियों से ह्रदय कभी भी सका न ऊब !
किन्तु सखी है मँहगा यह पथ भेंट किया जिसको बचपन,
भूल गयी सब हँसी खेल मैं, है चिन्तामय अब जीवन !
यह इच्छा है एक बार फिर प्यारा बचपन आ जाये,
वह अल्हड़ता, वह चंचलता फिर जीवन में छा जाये !
किरण
बुधवार, 28 जुलाई 2010
* कितनी दूर और चलना है *
पथ में ऊँचे गिरि रहने दो, मैं तुमसे आधार न लूँगी,
सागर भी पथ रोके पर मैं नौका या पतवार न लूँगी,
शीश झुका स्वीकार कर रही मुझे मिला जो एकाकीपन,
किन्तु भूल कर भी करुणा की भीख नहीं लेगा मेरा मन,
मन घबराया तो पूछूँगी मैं पथ के कुश कंटक से ही,
कितनी देर शिथिल चरणों को अपने जर्जर मुख के ऊपर,
अपने ही लोहू से निर्मित लाल गुलाल और मलना है ?
कितनी दूर और चलना है !
मेरा जीवन दीप तुम्हारे पथ में किरणें बिछा रहा है,
अपनी ही ज्वाला में जल कर अपनी हस्ती मिटा रहा है,
ज्योति तुम्हें देती हूँ पर प्रिय मेरे तले अकाट्य अँधेरा,
स्नेह हीन जर्जर उर बाती, मुख पर झंझाओं का फेरा,
स्नेह न लूँगी तुमसे बिलकुल औ झंझाओं से पूछूँगी,
पथ में टिमटिम करते मेरे जीवन के नीरस दीपक को,
झोंकों में बुझने से पहले कितनी देर और जलना है ?
कितनी दूर और चलना है !
नयनों में अक्षय पावस ऋतु, फिर भी प्राण पपीहा प्यासा,
है यह भी कैसी विडम्बना मिट कर भी मिट सकी न आशा,
मेरी ही ज्वाला से तुमने मेरे जीवन को जलवाया ,
मेरे ही आँसू से तुमने मेरे तन मन को गलवाया,
मिट जाऊँगी पर मिटने की अवधि नहीं पूछूँगी तुमसे,
चाहा तो निज अश्रु स्वेद से पूछूँगी मेरी मिट्टी को
पद रज बन जाने से पहले कितनी देर और गलना है ?
कितनी दूर और चलना है !
प्यार बड़ा पागल होता है अब मैंने जाना है साथी,
यह वह सुरा एक दिन पी लो, फिर जीवन भर चढ़ती जाती,
एक घूँट इस मदिरा का प्रिय जो तुमने था कभी पिलाया,
मैं लथपथ मदहोश उसी में फिरती हूँ, जीवन भरमाया,
रही अभी तक फूल समझ कर छाती पर पाषाण उठाती,
छल कर खुद को सब कुछ खोया, अब क्यों है तबीयत घबराती,
आज पूछती हूँ अपने इस निर्धन विरही विजन प्राण से,
बोल अभागे स्वयम्, स्वयम् को कितनी देर और छलना है ?
कितनी दूर और चलना है !
किरण
शनिवार, 24 जुलाई 2010
* प्यार का आधार *
माँगने के ही लिये आधार तुमसे माँगती हूँ !
ओस ने रो कर कहा यह यामिनी अपनी नहीं है,
पीत पड़ कर चाँद बोला चाँदनी अपनी नहीं है,
नील नभ के दीप ही दो चार तुमसे माँगती हूँ !
प्यार तुमसे माँगती हूँ !
है नहीं मिट्टी रसीली, जन्म से कंकाल तरु हैं,
शुष्क पत्ते भी न जिनमें, जन्म से कंगाल तरु हैं,
पड़ उन्हीं के बीच आज बहार तुमसे माँगती हूँ !
प्यार तुमसे माँगती हूँ !
द्वार स्वर के और बंधन कण्ठ के भी खोलने का,
दूसरों के बाद हँसने और तुमसे बोलने का,
कुछ नहीं बस एक यह अधिकार तुमसे माँगती हूँ !
प्यार तुमसे माँगती हूँ !
जो सुयश की राह में दो पग उठा कर खो गयी है,
शून्यता की गोद में जिसकी कि प्रतिध्वनि सो गयी है,
बीन की फिर से वही झंकार तुमसे माँगती हूँ !
प्यार तुमसे माँगती हूँ !
दे चुके हो दिल किसीको कह रही धड़कन तुम्हारी,
शेष भी दोगे किसीको कह रही चितवन तुम्हारी,
आज अपना ही दिया उपहार तुमसे माँगती हूँ !
प्यार तुमसे माँगती हूँ !
किरण
सोमवार, 19 जुलाई 2010
मैं कैसे भूलूँ
दुल्हन चाँदनियाँ की डोली,
जब तारों की बारात सजी,
नर्तन करती रजनी भोली ,
तब तुम नयनों के द्वार खोल
मेरे मन मंदिर में आये,
उन मधुर मिलन की रातों को
तुम भूले, मैं कैसे भूलूँ !
जब रजनीगंधा महक उठी,
खिल उठी कुमुदिनी सरवर में,
दिग्वधू उठा घूँघट का पट
मंगल गाती थी सम स्वर में,
मंथर गति से मलयानिल आ
हम दोनों को सहला जाता,
उन प्रथम प्रणय की रातों को
तुम भूले, मैं कैसे भूलूँ !
तुम निज वैभव में जा खोये,
क्यों याद अभागन की रहती,
मैं ठगी गयी भोलेपन में,
यह व्यथा कथा किससे कहती,
तुमको मन चाहे मीत मिले,
सुख स्वप्न सभी साकार हुए,
दुखिया उर के आघातों को
तुम भूले, मैं कैसे भूलूँ !
किरण
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
खो चुकी हूँ !
आज प्राणों में कसक है, ह्रदय में पीड़ा घनेरी,
नयन वारिद उमड़ आये, भर निराशा की अँधेरी,
धुल चुके अरमान सारे जल चुका है ममत्व री सखि !
खो चुकी हूँ आज अपने आपका अपनत्व री सखि !
आज सरिता की लहर सा रह गया है गान मेरा,
क्षितिज तट की क्षीण रेखा सा रहा अभिमान मेरा,
कब बनी हूँ, कब मिटूँगी, क्या रहा मम सत्व री सखि !
खो चुकी हूँ आज अपने आपका अपनत्व री सखि !
बाल रवि की कान्त किरणों सा हुआ उत्थान मेरा,
अस्त रवि की क्षीण रेखा सा रहा अवसान मेरा,
आज बन कर मिट चुकी मैं, लुट चुका अस्तित्व री सखि !
खो चुकी हूँ आज अपने आप का अपनत्व री सखि !
किरण
शुक्रवार, 9 जुलाई 2010
अनगाये रह गए गीत
दिवस विरह के मुस्काये,
अनगाये रह गये गीत
संध्या के केश बिखर आये !
शून्य ह्रदय, मंदिर के दीपक
बिना स्नेह के सिसक उठे,
चले गए जब देव, लाज तज
प्रिय दर्शन को पलक उठे !
छंद प्यार के रहे उपेक्षित
भाव व्यथा के टकराये !
अनगाये रह गये गीत
संध्या के केश बिखर आये !
मचल पड़े निर्झर नयनों के
आहों के तूफ़ान उठे,
चिता जली जब आशाओं की
सिर धुनते अरमान उठे !
तरिणी तट पर ही जब डूबी
कौन पार फिर ले जाये !
अनगाये रह गये गीत
संध्या के केश बिखर आये !
जनम-जनम की संगिनी पीड़ा
विश्वासों के साथ चली,
साध ह्रदय की रही तरसती
क्रूर नियति से गयी छली !
अस्त व्यस्त टूटी वीणा के
तार न फिर से जुड पाये !
अनगाये रह गये गीत
संध्या के केश बिखर आये !
किरण
शुक्रवार, 2 जुलाई 2010
अमावस न आती कभी भी
अमावस अभागन न आती कभी भी !
न होती उदय अस्त की नाट्य लीला,
सदा खिलखिलाते यहाँ पर सितारे,
न मुँदती कभी पंखुड़ी पंकजों की,
न चुगता चकोरा कभी भी अंगारे,
न रोती कभी चंद्रिका सिर पटक कर,
न होते कभी भी वियोगी दुखारे,
न चकवा वियोगी बना घूमता यों,
न चकवी ह्रदय फाड़ रोती कभी भी !
अगर चाँद आता उतर कर धरा पर
अमावस अभागन न आती कभी भी !
कलंकी न होते अगर इस धरा पर
कलंकी उसे कोई तब तो बताता,
यहाँ पापियों की सदा सृष्टि होती
कथा पाप की कौन उसको सुनाता,
पिलाती न अमृत यहाँ मोहिनी यों,
न बन राहू केतु कोई भी सताता,
न होता अगर दैव, दुःख भी न होता,
कला क्षीण प्रतिदिन न होती कभी भी !
अगर चाँद आता उतर कर धरा पर
अमावस अभागन न आती कभी भी !
न सूरज प्रभा छीन सकता था उसकी,
न बादल कभी आ उसे यों छिपाते,
न सागर में उठता कभी ज्वार भाटा,
न कविगण उसे निर्दयी ही बताते,
न होता खिलौना किसी के लिए वह,
न कह वक्र कोई उसे यों सताते,
लुटा पूर्णिमा पर अतुल ज्योति उसकी
न रजनी खड़ी खिलखिलाती कभी भी !
अगर चाँद आता उतर कर धरा पर
अमावस अभागन न आती कभी भी !
यहाँ पूर्णिमा ही सदा जगमगाती,
सदा रास मोहन यहाँ पर रचाते,
सदा चंद्रवदनी सुघर नायिका को
नई एक उपमा से कविगण सजाते,
सरस, स्निग्ध, शीतल सुधा नित बरसती,
अन्धेरा न होता, न यों दुःख उठाते,
सदा दिव्य जीवन यहाँ मुस्कुराता,
उदासी यहाँ पर न छाती कभी भी !
अगर चाँद आता उतर कर धरा पर
अमावस अभागन न आती कभी भी !
किरण
मंगलवार, 29 जून 2010
दो बूँद
बन कर आँसू छलक पड़ी है दो बूँदों में ढल के !
या आशा और निराशा के दो फल बन स्वयम् फले ये,
अपनी गाथा को कहने गालों पर ढुलक चले ये !
हैं ये करुणा के द्योतक या ज्वाला की चिन्गारी,
या जगती का जीवन है नयनों का पानी खारी !
दावा बन ह्रदय जलाया अब बन कर जल नयनों से,
छल छल कर कथा व्यथा की कह रहे मौन नयनों से !
ओ दृगजल के दो बिन्दू कुछ तो बतलाते जाओ,
क्या भेद भरा है तुममें यह तो समझाते जाओ !
इन प्राणों की पीड़ा को तुमने सहचरी बनाया,
जब जली व्यथा ज्वाला में तुमने निज अंक लगाया !
मेरी पीड़ा के सहचर या तो गाथा कह जाओ,
या संग में अपने ही तुम उसे बहा ले जाओ !
किरण
शनिवार, 26 जून 2010
स्वप्न किसके सच हुए हैं !
रो न पागल क्या क्षणिक सुख से अपरिमित दुःख मुए हैं !
स्वप्न किसके सच हुए हैं !
भाव उर के बूँद बनने को मचल सहसा पड़े हैं,
नयन शाश्वत बरसने को मेघ बन करके अड़े हैं,
जल उठी है आग उर में आह के उठते धुएँ हैं !
स्वप्न किसके सच हुए हैं !
कौन अपना बन सका है एक क्षण में, एक पल में,
तृप्ति किसकी हो सकी है वारि निधि के क्षार जल में,
बँध सके क्या पींजरे में गगन के उड़ते सुए हैं !
स्वप्न किसके सच हुए हैं !
भग्न कुटिया भा सकी क्या भुला कर अट्टालिकायें,
स्नेह बिन दीपक भला क्या रह सके हैं जगमगाए,
एक नन्हीं बूँद भी क्या भर सकी सागर कुए है !
स्वप्न किसके सच हुए हैं !
सूर्य की उज्ज्वल प्रभा का क्या किसीने पार पाया,
स्मरण उर में सदा ही वेदना का भार लाया,
क्या किसीने गगन उपवन के कुसुम गुच्छे छुए हैं !
स्वप्न किसके सच हुए हैं !
किरण
बुधवार, 23 जून 2010
जीवन पथ
इस पथ में ममता की आँधी
चलती रहती अवदात सखे,
इस पथ में माया की सरिता
बहती रहती दिन रात सखे !
साथी चलना बहुत दूर है
दूर बसा मम देश सखे,
चलते रहना प्रतिपल प्रतिक्षण
रुकना न कहीं लवलेश सखे !
आशाओं की कुटिल झाड़ियाँ
करती हैं उत्पात सखे,
इच्छाओं की अग्नि सुलग
करती रहती व्याघात सखे !
पाप पुण्य की अमा निशा में
करने को अभिसार सखे,
मैं निकली अपने उर में ले
मम प्रियतम का सुप्यार सखे !
बढ़ने देता किन्तु न आगे
अरमानों का भार सखे,
मेरे प्रियतम छिपे हुए हैं
दूर क्षितिज के पार सखे !
किन्तु तोड़ना ही होगा संसृति
का बंधन क्षणिक सखे,
करुणा 'किरण' बढ़ा कर मुझको
देना साहस तनिक सखे !
उमड़ पड़े नयनों से वारिद
रोक न पाऊँ इन्हें सखे,
देखो ह्रदय सिंधु है उमड़ा
पावस बन तुम्हें दिखाऊँ सखे !
किरण
रविवार, 20 जून 2010
तंत्री के तार
बिखर जायेंगे छूते ही ये,
गले विरह में बन कर छार !
मत छेड़ो तंत्री के तार !
उर में अब उल्लास न आता,
नहीं आज है कुछ भी भाता,
सजनि प्रेम की मधुर रागिनी
को अब कौन यहाँ है गाता,
रे गायक रहने दो चुभती
शूल समान अरे झंकार !
मत छेड़ो तंत्री के तार !
किये प्रतीक्षा बैठी हूँ मैं,
स्नेह और ममता दीपक ले,
सींचा पथ तिल-तिल कर मैंने,
ढार-ढार कर जल नयनों से,
किन्तु न ले पाई हूँ मैं सखि,
उनकी मृदु सेवा का भार !
मत छेड़ो तंत्री के तार !
आहों की आँधी घिर आईं,
उमड़-उमड़ आँखें भर आईं,
सजल अश्रुओं की फुहार सखि,
छूट-छूट कर तन पर आईं,
ऊर्ध्व स्वाँस ने छेड़ रखी है
पहले ही रागिनी मल्हार !
मत छेड़ो तंत्री के तार !
किरण
गुरुवार, 17 जून 2010
आज मुझे जी भर रोने दो
बीते मधुर क्षणों को मुझको
विस्मृति सागर में खोने दो ,
आज मुझे जी भर रोने दो !
छुओ न उर के दुखते छाले,
मेरी साधों के हैं पाले,
बढ़ने दो प्रतिपल पर पीड़ा
उसमें स्मृतियाँ खोने दो !
आज मुझे जी भर रोने दो !
मत छीनो मेरी उर वीणा,
भर देगी प्राणों में पीड़ा,
अश्रु कणों के निर्मल मुक्ता
आह सूत्र में पो लेने दो !
आज मुझे जी भर रोने दो !
स्मृति मुझसे रूठ गयी है,
और सुषुप्ति राख हुई है,
विगत दिवस हैं स्वप्न, मुझे
स्वप्नों की रजनी में सोने दो !
आज मुझे जी भर रोने दो !
रहे अमर आँखों का पानी,
मैं , मेरी दुनिया दीवानी,
दीवानों को अपनी दुनिया
में दीवाना ही रहने दो !
आज मुझे जी भर रोने दो !
किरण
रविवार, 13 जून 2010
ज्योतिकण
कौन सी वह है सुहागन देव का जो ध्यान धरती,
गगन गंगा में पिया हित दीप का जो दान करती,
छूट कर उसके करों से जो उमड़ते आ रहे हैं !
कौन के अरमान नभ में ज्योतिकण बन छा रहे हैं !
आज किसने गा दिया है राग दीपक मधुर स्वर भर,
जल गए जो स्वर्ग के दीपक सलोने सभी चुन कर,
चमचमाते नील प्रांगण में सभी को भा रहे हैं !
कौन के अरमान नभ में ज्योतिकण बन छा रहे हैं !
कौन दीपावलि सजा कर कर रहे हैं ध्यान किसका,
कौन सी वह लक्ष्मी है कर रहे आह्वान जिसका,
इस अमा की रात्रि में जो शून्य जग चमका रहे हैं !
कौन के अरमान नभ में ज्योतिकण बन छा रहे हैं !
कौन सी दुखिया बहाती नयन से अविराम मोती,
चन्द्र की छा प्रभा जिन पर भर रही है अमर ज्योति,
किस अभागन के ह्रदय के घाव ये दिखला रहे हैं !
कौन के अरमान नभ में ज्योतिकण बन छा रहे हैं !
चाँदनी के नयन मुक्ता हैं धरा के घाव उर के,
साँध्य सुंदरि दीप धरती शशि रमा का ध्यान धरते,
वे नियंता चतुर गायक राग दीपक गा रहे हैं !
कौन के अरमान नभ में ज्योतिकण बन छा रहे हैं !
किरण
मंगलवार, 8 जून 2010
और छाया है अँधेरा
जिन्होंने इनकी रचनाओं को पढ़ा और सराहा ! क्षमायाचना के साथ यह कहना
चाहूँगी कि मेरे अमेरिका प्रवास के कारण शायद कुछ समय का व्यवधान इन
ब्लॉग्स पर नयी रचनाएँ डालने में पड़ेगा ! आशा है आप मेरी दिक्कत को
समझ कर मुझे क्षमा करेंगे ! मेरी यथासंभव कोशिश रहेगी कि मैं वहाँ जाकर
भी आप सबके संपर्क में रहूँ और कुछ नया देने की कोशिश करूँ !
जल रहे दीपक सुनहरे और छाया है अँधेरा !
ओढ़ काली चूनरी विधु वदन आँचल में छिपाए,
चपल चंचल चरण धरती लाज से सिर को झुकाए,
आ रही वह साँध्य सुन्दरि प्रिय मिलन की लालसा ले,
गगन सागर के किनारे नभ सरित का जाल सा ले,
फाँस लेगी प्राण का मन मीन सा यों डाल घेरा !
जल रहे दीपक सुनहरे और छाया है अँधेरा !
पर मिलन की यामिनी को विरह का संसार भाया,
हास्य की उज्ज्वल प्रभा को अश्रु का संसार भाया,
शांत शीतल प्रेम सुख को दुःख का श्रृंगार भाया,
चाँदनी का पट उठा कर गहन तम का प्यार भाया,
जल रहे यों ह्रदय के अरमान सूने डाल घेरा !
जल रहे दीपक सुनहरे और छाया है अँधेरा !
दूर करते तम निरंतर दीप अपने प्राण देकर,
स्नेह की संवेदना में त्याग का वरदान लेकर,
किन्तु क्या उस त्याग का प्रतिफल उसे मिलता रहा है,
जो मिटा अस्तित्व अपना दीप यह जलता रहा है,
जो पड़ा घनघोर तम में कर रहा है जग रुपहरा !
जल रहे दीपक सुनहरे और छाया है अँधेरा !
ये गगन के दीप हैं धरती न इनको पा सकेगी,
नीलिमा कोमल सलोनी ही इन्हें बिलमा सकेगी,
ये जलेंगे यों सदा ही पर धरा सूनी रहेगी,
‘दिए के नीचे अँधेरा ही रहा’ संसृति कहेगी,
यह अमा की रात है होता नहीं जिसमें उजेरा !
जल रहे दीपक सुनहरे और छाया है अँधेरा !
किरण
रविवार, 6 जून 2010
मुझे सुहाता मुरझाना
मुझे सुहाता मुरझाना,
तुम्हें न भाते साश्रु नयन
मुझको न सुहाता मुस्काना !
तुम पूनम की सुघर चाँदनी
पर बलि-बलि जाते साथी,
मुझको शांत अमावस्या का
भाता यह सूना बाना !
उदित सूर्य की स्वर्ण रश्मियाँ
तुम्हें मधुर कुछ दे जातीं,
मुझे क्षितिज में डूबे रवि का
भाता वह पथ पहचाना !
तुम वसंत में कोकिल का स्वर
सुन-सुन मस्त हुआ करते,
मुझे सुहाता पावस में
पपिहे का पियु-पियु चिल्लाना !
तुम्हें सुहाती ऋतुपति के
स्वागत में व्यस्त धरिणी सज्जित,
मुझे सुहाता अम्बर का
नयनों से आँसू बरसाना !
तुम राधा मोहन के संग में
मिल कर रास रचा लेते,
मुझे सुहाते राधा के आँसू
मोहन का तज जाना !
तुम हो आदि उपासक साथी
मुझे अंत लगता प्यारा,
तुम्हें मिलन के राग सुहाते
मुझे विरह का प्रिय गाना !
आदि अंत का, विरह मिलन का
रंज खुशी का जब पूरक,
क्यों न अंत को प्यार करूँ मैं
व्यर्थ आदि पर इतराना !
किरण
मंगलवार, 1 जून 2010
सब एकाकी
चमक रहा ऊषा के आँचल में नभ का तारा एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !
ज्वार उठा सागर के उर में लहरें तट पर आ टकराईं,
निर्मम तट पर आकर उसने निज जीवन की निधि बिखराई,
सागर में अब भी हलचल है तट पर लहर मिटी एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !
उषा उठा प्राची पट आई किरणों की सुन्दर सखियाँ ले,
और सांध्य बेला में खोई अपने प्राणों की पीड़ा ले,
सूर्य प्रभा ले गया सुनहरी बुझती किरण रही एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !
सुमनों की चादर बहार ने आकर पृथ्वी पर फैलाई,
पर पतझड़ ने लूटा उसको सूनी पड़ी सुघर अमराई,
इस निर्जन बगिया में तितली पागल घूम रही एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !
किरण
रविवार, 30 मई 2010
रीते आँगन का सूनापन
भर जाता दसों दिशाओं में,
विगलित हो जाता है कण-कण !
रीते आँगन का सूनापन !
नव पल्लव आच्छादित पीपल
रक्तिम तन सिसकी सी भरता,
सूने कोटर के पास बया
चंचल हो परिक्रमा करता,
उसके नन्हे-मुन्नों के स्वर
ना उसे सुनाई देते हैं,
पीपल की नंगी बाहों पर
नि:संग उसाँसें लेते हैं,
उनके अंतर की व्यथा कथा
नि:स्वर भर जाती अंतर्मन !
रीते आँगन का सूनापन !
क्षण भर को कोकिल आ करके
उनको आश्वासन दे जाती,
तोतों, मोरों, चिड़ियों की धुन
भी पीर न मन की हर पाती,
बढ़ जाती और वेदना ही
नयनों में सावन की रिमझिम,
स्वांसों में दुःख की शहनाई
बज उठती है हर पल हर क्षण,
इन सबमें सुख की क्षीण किरण
पा लेता मेरा पागल मन !
रीते आँगन का सूनापन !
किरण
शुक्रवार, 28 मई 2010
उर की डाली
आज गया है रूठ अनोखा इस उपवन का माली !
हा सूखी उर की डाली !
स्वाँस पवन की शीतलता से मिटा न उसका ताप,
आशा की किरणें आकर के बढ़ा गयीं संताप,
नयन सरोवर लुटकर भी हा कर न सके हरियाली !
हा सूखी उर की डाली !
भाव कुसुम अधखिली कली भी हाय न होने पाये,
असमय में ही विरह ज्वाल में दग्ध हुए मुरझाये,
शब्द पल्लवों से आच्छादित काव्य-कुञ्ज हैं खाली !
हा सूखी उर की डाली !
किरण
बुधवार, 26 मई 2010
* तारे *
चम-चम करते रहते प्रतिपल,
झर-झर झरते रहते हर क्षण,
पी-पी कर ह्रदय रक्त पागल
ये लाल बने रहते सजनी !
ये रजनी के उर क्षत सजनी !
वह दीवानी ना जान सकी,
पागल सुख के क्षण पा न सकी,
सूने उर में भर अंधकार
जग को चिर सुख देती सजनी !
ये रजनी के उर क्षत सजनी !
दुखिया जीवन में हाय न कुछ,
रोना, रोकर खोना सब कुछ,
सीखा रजनी से मैंने भी
यह धैर्य अटल अद्भुत सजनी !
ये रजनी के उर क्षत सजनी !
उसके उर क्षत मेरे वे पथ,
औ प्रिय नयनों के बने सुरथ,
मेरे ये उत्सुक नयन वहाँ
उनको लख सुख पाते सजनी !
ये रजनी के उर क्षत सजनी !
किरण
रविवार, 23 मई 2010
साथी मेरे गीत खो गए !
उस दिन चन्दा अलसाया था,
मेरे अंगना में आया था,
किरणों के तारों पर उसने
धीमे-धीमे कुछ गाया था !
जग के नयनों में स्वप्नों के,
साज सजे, विश्वास सो गए !
साथी मेरे गीत खो गए !
रजनी थी सुख से मुस्काई,
मधु ऋतु में फूली अमराई,
शांत कोटरों में सोई कोकिल
ने फिर से ली अंगड़ाई !
पीत पत्र बिखरे पेड़ों के,
अस्त-व्यस्त श्रृंगार हो गए !
साथी मेरे गीत खो गए !
किरण
शुक्रवार, 21 मई 2010
स्वप्न आते रहे
रात जगती रही स्वप्न आते रहे !
चंद्रिका ने दिया आँसुओं को लुटा,
उनको ऊषा ने निज माँग में भर लिया,
पुष्प झरते रहे, वृक्ष लुटते रहे,
भ्रमर आते रहे, गुनगुनाते रहे !
चाँद तारे दीवाली मनाते रहे,
रात जगती रही, स्वप्न आते रहे !
छोड़ हिम को सरित बह चली चंचला,
सिंधु की शांत सुषमा ने उसको छला,
वीचि हँसती रही, खिलखिलाती रही,
तट उन्हें बाँह फैला बुलाते रहे !
चाँद तारे दीवाली मनाते रहे,
रात जगती रही स्वप्न आते रहे !
कुहुक कर कोकिला के कहा “कौन है ?’
“पी कहाँ”, कह पपीहा हुआ मौन है,
मेघ उत्तर न देकर बिलखते रहे,
मोर उन्मत्त खुशियाँ मनाते रहे !
चाँद तारे दीवाली मनाते रहे,
रात जगती रही स्वप्न आते रहे !
सृष्टि का क्रम सदा से विषम ही रहा,
सुख औ दुख का जो समन्वय रहा,
कुछ तड़पते रहे, कुछ बिलखते रहे,
कुछ मिटा और को सुख सजाते रहे !
चाँद तारे दीवाली मनाते रहे,
रात रोती रही स्वप्न आते रहे !
किरण
बुधवार, 19 मई 2010
सखी न कुछ भी भाता आज !
गुंजित मधुर कूक कोयल की,
मादक अलियों का सरसाज !
सखी न कुछ भी भाता आज !
आज न भाता मदिर भाव से
प्रमुदित ऊषा का आना,
आज न भाता मृदु मलयानिल
का सुमनों को छू जाना,
अरी न भाती चंद्र ज्योत्सना
और न रजनी का प्रिय साज !
सखी न कुछ भी भाता आज !
आज न जाने कैसा मन है,
कैसा है संसृति का राग,
मेरी उर वीणा से प्रतिपल,
झंकृत क्यों है करूण विहाग,
हुआ न जाने क्या री मुझको
भूली हूँ सारे ही काज !
सखी न कुछ भी भाता आज !
चलित चित्र से मधुर गत दिवस
क्यों आते स्मृति में आज,
उत्सुक हो उन्मत्त नयन क्यों
सजा रहे हैं नव सुख साज,
अश्रु लुटाते पल क्षण जीवन,
छाया असफलता का राज !
सखी न कुछ भी भाता आज !
किरण
रविवार, 16 मई 2010
हताशा
और स्वागत को तुम्हारे साज नव सजती रही !
तुम न आये सूर्य की अंतिम किरण भी खो गयी है,
तुम न आये चन्द्र की यह ज्योत्सना भी सो गयी है !
तुम न आये पर निशा ने कालिमा जग पर बिछा दी,
तुम न आये फिर उषा ने अरुणिमा भू पर लुटा दी !
तुम न आये कामना की कली भी मुरझा चली है,
तुम न आये साधना की श्रंखला सकुचा चली है !
तुम न आये लगन की डोरी ह्रदय की टूटती है,
तुम न आये सब्र की पतवार कर से छूटती है !
तुम न आये नाव जीवन की अतल में जा रही है,
तुम न आये ज्योति आशा की तिमिर से छा रही है !
तुम अगर आते मनुज की भावना सूनी न रहती,
तुम अगर आते धरा की विकलता दूनी न रहती !
किन्तु मानव की पुकारें लौट आईं तुम न आये,
और धरती की कराहें लौट आईं तुम न आये !
द्वार पर जा मंदिरों के लौट आई तुम न आये,
तुम रहे पाषाण ही क्यों देवता तुम बन न पाए !
किरण
शुक्रवार, 14 मई 2010
कारवाँ संहार का
और बढता जा रहा है कारवाँ संहार का !
कंठ में भर स्वर प्रभाती का मधुर
अलस कलिका संग कीलित नव उषा,
खिलखिलाती आ गयी जब अवनितल
देख उसका लास यह बोली निशा,
ह्रास मेरा दे रहा जीवन तुझे,
क्रम यही है निर्दयी संसार का !
रो रही है सर पटक कर ज़िंदगी
और बढता जा रहा है कारवाँ संहार का !
छोड़ हिमगिरी अंक को उन्मत्त सी
उमड़ कर सरिता त्वरित गति बह चली,
माँगते ही रह गए तट स्नेह जल,
बालुका का दान रूखा दे चली,
जब मिटा अस्तित्व सागर अंक में
कह उठी, ‘है अंत पागल प्यार का’ !
रो रही है सर पटक कर ज़िंदगी
और बढता जा रहा है कारवाँ संहार का !
जन्म पर ही मृत्यु ने जतला दिया
सृजन पर है नाश का पहला चरण,
क्षितिज में अस्तित्व मिटता धरिणी का,
खिलखिलाता व्योम कर उसका हरण,
अश्रु जल ढोता सदा ही भार है,
प्रेम का और हर्ष के अभिसार का !
रो रही है सर पटक कर ज़न्दगी,
और बढता जा रहा है कारवाँ संहार का !
किरण