गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010

* क्या जग का उद्धार न होगा *

ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?

इस पतझड़ के से मौसम में

उपवन का श्रृंगार लुट गया,

लजवंती रजनी के कर से

आँचल का आधार छुट गया,

उमड़ी करुणा के मेघों से पृथ्वी का अभिसार न होगा ?

ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?

मुरझाये फूलों का यौवन

आज धूल में तड़प रहा है,

काँटों के संग रह जीवन में

कितना उसने कष्ट सहा है,

किन्तु देवता की प्रतिमा पर चढ़ने का अधिकार न होगा ?

ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?

उन्मादिनी हवा ने आकर

सूखे पत्तों को झकझोरा,

मर्मर कर धरिणी पर छाये

सुखद वृक्ष का आश्रय छोड़ा,

कुम्हलाई कलियों के उर में क्या जीवन का प्यार न होगा ?

ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?

ओ माली तेरी बगिया में

आ वसंत कब मुस्कायेगा,

कब कोकिल आग्रह के स्वर में

स्वागत गीत यहाँ गायेगा,

क्या तितली भौरों के जीवन में सुख का संचार न होगा ?

ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?


किरण

16 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही गहरी बात कही , बेहद खूबसूरत और जीवन की सच्चाइयों को बयाँ करती पोस्ट

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  2. आज कविता और पाठक के बीच दूरी बढ़ गई है। संवादहीनता के इस माहौल में आपकी यह कविता इस दूरी को पाटने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
    मध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

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  3. उन्मादिनी हवा ने आकर

    सूखे पत्तों को झकझोरा,

    मर्मर कर धरिणी पर छाये

    सुखद वृक्ष का आश्रय छोड़ा,

    कुम्हलाई कलियों के उर में क्या जीवन का प्यार न होगा ?

    बहुत सुन्दर ....हर बार चमत्कृत हो जाती हूँ ऐसी रचनाएँ पढ़ कर

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  4. मुरझाये फूलों का यौवन
    आज धूल में तड़प रहा है,
    काँटों के संग रह जीवन में
    कितना उसने कष्ट सहा है,
    किन्तु देवता की प्रतिमा पर चढ़ने का अधिकार न होगा ...

    बहुत ही सारगर्भीत ... काव्यात्मक रचना है ...
    ये सच है टूटे हुवे, मुरझाए फूलों को कोई नही चाहता आज ...

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  5. ओ माली तेरी बगिया में

    आ वसंत कब मुस्कायेगा,

    कब कोकिल आग्रह के स्वर में

    स्वागत गीत यहाँ गायेगा,

    क्या तितली भौरों के जीवन में सुख का संचार न होगा ?

    ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?

    साधना जी आपकी रचनायें पढ कर स्त्बध रह जाती हूँ। बहुत अच्छी प्रस्तुति। बधाई।

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  6. बहुत ही गहरी सोच लिए आपकी यह रचना...
    मेरे ब्लॉग इस बार मेरी रचना ...
    स्त्री

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  7. इस कविता के द्वारा कवयित्री सामाजिक-आर्थिक बदलाव के लिये जन-चेतना लाने का भरसक प्रयास अपनी रचना के माध्यम से करती प्रतीत होती है। बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    मध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

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  8. अच्छालिखा जी
    कभी हमारे द्वारे भी आना
    जै राम जी की

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  9. आप की रचना 08 अक्टूबर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
    http://charchamanch.blogspot.com/2010/10/300.html



    आभार

    अनामिका

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  10. आनंद आ गया , मेरे द्वारा पढ़ी बेहतरीन रचनाओं में से एक, इस रचना को बार बार पढ़ कर भी दिल नहीं भरता !
    सादर

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  11. bahut sundar rachna!
    subah ki sundar bela mein hriday mein utarti hui saargarbhit kavita!
    regards,

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  12. जितनी बार पढ़ो हर बार नई लगती है |बहुत सुंदर भाव
    आशा

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  13. शब्दों और भावों का बहुत सुन्दर संगम...बहुत सुन्दर प्रस्तुति....आभार..

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