रात रूठती रही मिलन की
दिवस विरह के मुस्काये,
अनगाये रह गये गीत
संध्या के केश बिखर आये !
शून्य ह्रदय, मंदिर के दीपक
बिना स्नेह के सिसक उठे,
चले गए जब देव, लाज तज
प्रिय दर्शन को पलक उठे !
छंद प्यार के रहे उपेक्षित
भाव व्यथा के टकराये !
अनगाये रह गये गीत
संध्या के केश बिखर आये !
मचल पड़े निर्झर नयनों के
आहों के तूफ़ान उठे,
चिता जली जब आशाओं की
सिर धुनते अरमान उठे !
तरिणी तट पर ही जब डूबी
कौन पार फिर ले जाये !
अनगाये रह गये गीत
संध्या के केश बिखर आये !
जनम-जनम की संगिनी पीड़ा
विश्वासों के साथ चली,
साध ह्रदय की रही तरसती
क्रूर नियति से गयी छली !
अस्त व्यस्त टूटी वीणा के
तार न फिर से जुड पाये !
अनगाये रह गये गीत
संध्या के केश बिखर आये !
किरण
सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंअस्त व्यस्त टूटी वीणा के
जवाब देंहटाएंतार न फिर से जुड पाये !
अनगाये रह गये गीत
संध्या के केश बिखर आये !
Sampoorn rachana sundar hai..sach kaha,jeevan me kitne hee geet mook rah jate hain..
बहुत सुन्दर भाव पूर्ण अभिब्यक्ति |
जवाब देंहटाएंआशा
इतना ही कह सकती हूँ की आह निकल गयी यह रचना पढ़ कर..मानो मेरे मन की सी कह दी हो.
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक और सुन्दर अंदाज में लिखी गई रचना .....आभार
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