बुधवार, 28 जुलाई 2010

* कितनी दूर और चलना है *

कितनी दूर और चलना है !

पथ में ऊँचे गिरि रहने दो, मैं तुमसे आधार न लूँगी,
सागर भी पथ रोके पर मैं नौका या पतवार न लूँगी,
शीश झुका स्वीकार कर रही मुझे मिला जो एकाकीपन,
किन्तु भूल कर भी करुणा की भीख नहीं लेगा मेरा मन,
मन घबराया तो पूछूँगी मैं पथ के कुश कंटक से ही,
कितनी देर शिथिल चरणों को अपने जर्जर मुख के ऊपर,
अपने ही लोहू से निर्मित लाल गुलाल और मलना है ?

कितनी दूर और चलना है !

मेरा जीवन दीप तुम्हारे पथ में किरणें बिछा रहा है,
अपनी ही ज्वाला में जल कर अपनी हस्ती मिटा रहा है,
ज्योति तुम्हें देती हूँ पर प्रिय मेरे तले अकाट्य अँधेरा,
स्नेह हीन जर्जर उर बाती, मुख पर झंझाओं का फेरा,
स्नेह न लूँगी तुमसे बिलकुल औ झंझाओं से पूछूँगी,
पथ में टिमटिम करते मेरे जीवन के नीरस दीपक को,
झोंकों में बुझने से पहले कितनी देर और जलना है ?

कितनी दूर और चलना है !

नयनों में अक्षय पावस ऋतु, फिर भी प्राण पपीहा प्यासा,
है यह भी कैसी विडम्बना मिट कर भी मिट सकी न आशा,
मेरी ही ज्वाला से तुमने मेरे जीवन को जलवाया ,
मेरे ही आँसू से तुमने मेरे तन मन को गलवाया,
मिट जाऊँगी पर मिटने की अवधि नहीं पूछूँगी तुमसे,
चाहा तो निज अश्रु स्वेद से पूछूँगी मेरी मिट्टी को
पद रज बन जाने से पहले कितनी देर और गलना है ?

कितनी दूर और चलना है !

प्यार बड़ा पागल होता है अब मैंने जाना है साथी,
यह वह सुरा एक दिन पी लो, फिर जीवन भर चढ़ती जाती,
एक घूँट इस मदिरा का प्रिय जो तुमने था कभी पिलाया,
मैं लथपथ मदहोश उसी में फिरती हूँ, जीवन भरमाया,
रही अभी तक फूल समझ कर छाती पर पाषाण उठाती,
छल कर खुद को सब कुछ खोया, अब क्यों है तबीयत घबराती,
आज पूछती हूँ अपने इस निर्धन विरही विजन प्राण से,
बोल अभागे स्वयम्, स्वयम् को कितनी देर और छलना है ?

कितनी दूर और चलना है !

किरण

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है

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  2. मेरी ही ज्वाला से तुमने मेरे जीवन को जलवाया ,
    मेरे ही आँसू से तुमने मेरे तन मन को गलवाया,

    बेहतरीन प्रस्तुति…………………इन पंक्तियों मे तो सच सार्थक हो गया है………लाजवाब्।

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  3. बहुत सुन्दर भाव लिए रचना |मन को छू गई |
    आशा

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  4. साधना जी ,

    इस रचना को मैं दो बार पढ़ चुकी हूँ...बस कुछ ऐसा हुआ कि मैं अपनी उपस्थति दर्ज नहीं कर पाई....हर बार जैसे मन कविता में खो जाता है....बहुत सुन्दर....

    आपको साधुवाद जो आप इतनी बहुमूल्य रचनाएँ हम तक पहुंचा रही हैं ..

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  5. आपसे शिकायत है की आपने मुझे इतनी देरी से ये रचना पढ़ने को दी..ना जाने कितनी ही बार पढ़ गयी इसे मानो एक एक शब्द को आत्मसात कर लेना चाहती थी मन ही मन में. और जैसे चाहती थी इसे याद कर लू और मैं भी ऐसी ही कोई नज़्म लिख डालू. पुरे जीवन का निचोड़ डाल दिया आपकी माँ जी ने. नारी भीतर ही भीतर कितना कुछ बर्दाश्त कर जाती है, अगर उसके मन की लेखनी को कोई पढ़े तो जाने.

    बहुत बहुत शुक्रिया जो आपने ये रचना हम तक पहुंचाई.

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  6. मंगलवार 3 अगस्त को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ .... आभार

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  7. अप्रतिम रचना...भाव और शब्दों का अनूठा संगम...अति उत्तम...वाह..
    नीरज

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