मैं जाऊँ ढूँढने कहाँ-कहाँ ?
रजनी की काली अलकों में,
तारों की झिलमिल ज्योती में,
तुम छिपे हुए हो जीवन धन
इस ओस के सुन्दर मोती में !
निशिपति की मृदु मुस्काहट में
आकर के तुम मुस्का जाते,
घिर करके श्याम बादलों में
तुम उनको खेल खिला जाते !
सुन्दर गुलाब की लाली में
अधरों की लाली छिपती है,
कोमल कलिका के रंगों में
हाथों की लाली छिपती है !
सूरज की ज्योती में प्रियतम
ज्योतिर्मय रूप तुम्हारा है,
अरुणोदय की अँगड़ाई में
उज्ज्वलतम रूप तुम्हारा है !
सरिता की चंचल लहरों में
वह श्याम रूप बहता पाया,
सागर के शांत कलेवर में
तव शांत रूप ठहरा पाया !
घर में, मग में, वन-उपवन में,
पृथ्वी, आकाश में, यहाँ-वहाँ,
सर्वत्र व्याप्त हो श्याम तुम्हीं
मैं जाऊँ ढूँढने कहाँ-कहाँ !
किरण
कण-कण मे व्याप्त उस स्रष्टा को समर्पित यह रचना बहुत अच्छी लगी। कवयित्री को नमन।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत रचना ..ईश्वर को ढूँढना है तो निज को खोजो ...
जवाब देंहटाएंईश्वरत्व को समर्पित ये कविता बेहतरीन है।
जवाब देंहटाएंsarvyapi ghat ghat vasi ko kya dhoondhna...yah to anubhuti ki baat hai!
जवाब देंहटाएंbahut sundar!!!
जो है सर्वत्र उसे ढूँढने जाऊं कहाँ ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर !
बहुत ही सुन्दर एवं भावमय प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/11/335.html
सुंदर भावमय रचना...बहुत समय बाद निराशाओं के झुरमुट से निकल एक सहज प्रेम मई कविता पढ़ने को मिली. शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत ही मनोहारी भक्ति रस से परिपूर्ण इस रचना को पढ़ मन बहुत आनन्दित हुआ ...आभार
जवाब देंहटाएंभक्ति रंग मे डूबी हुयी सुन्दर भावमय कविता। बधाई।
जवाब देंहटाएंkitna sunder likhi hain aap.
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत एवं भावमय रचना.......
जवाब देंहटाएंबहुत भाव पूर्ण रचना |
जवाब देंहटाएंआशा
सुन्दर रचना
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