गुरुवार, 9 सितंबर 2010

* साकार बनो ओ निराकार *

साकार बनो ओ निराकार !

कर प्राण देह से अलग
भला क्या मानव मानव रह सकता,
पूजा के बिना पुजारिन का
अस्तित्व न कोई रह सकता !

अंतर की भाव तरंगों का
होता है मुख पर आवर्तन,
मानस का हर्ष शोक आकर
करता नयनों में परिवर्तन !

अनुभव के बिना न हो सकती
अभिव्यक्ति कभी भी जीवन में,
क्या बिना सत्य आधार लिए
कल्पना कभी जगती मन में !

बतला असीम बिन सीमा के
कैसे तेरा अस्तित्व रहे ,
मृत हो न जगत में आज अरे
तो कैसे फिर अमरत्व रहे !

जल बिना जलाशय का जीवन
जगती में किसने है देखा,
वह चित्र बनेगा कैसे फिर
जिसमें न बने पहले रेखा !

सृष्टा और संसृति में रखना,
है भेदभाव फिर निराधार,
तेरी साकार मूर्ति ही है
मेरी पूजा, मेरा श्रृंगार !

साकार बनो ओ निराकार !


किरण

8 टिप्‍पणियां:

  1. श्रीमती ज्ञानवती सक्सेना जी की यह रचना बहुत ही सशक्त है!
    इसे पढ़वाने का शुक्रिया!

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  2. मानव के मन के भावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं ...निराकार में ध्यान लगना मुश्किल होता है ...सुन्दर गीत .

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  3. अनुभव के बिना न हो सकती
    अभिव्यक्ति कभी भी जीवन में,
    क्या बिना सत्य आधार लिए
    कल्पना कभी जगती मन में !

    भावों को कितनी सुन्दरता से शब्दों में बाँधा गया है....बेहतरीन अभिव्यक्ति

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  4. अंतर की भाव तरंगों का
    होता है मुख पर आवर्तन,
    मानस का हर्ष शोक आकर
    करता नयनों में परिभाव भीनी प्रस्तुति के लिए आभार।

    जवाब देंहटाएं
  5. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 14 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  6. अनुभव के बिना न हो सकती
    अभिव्यक्ति कभी भी जीवन में,
    क्या बिना सत्य आधार लिए
    कल्पना कभी जगती मन में !

    क्या बात कही है...सत्य है...
    कल्पना विश्वास ,सबको एक आधार तो चाहिए ही...

    बड़ा ही आनंदायी लगा इस सुन्दर रचना को पढना...

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