इस संसृति में सब एकाकी !
चमक रहा ऊषा के आँचल में नभ का तारा एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !
ज्वार उठा सागर के उर में लहरें तट पर आ टकराईं,
निर्मम तट पर आकर उसने निज जीवन की निधि बिखराई,
सागर में अब भी हलचल है तट पर लहर मिटी एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !
उषा उठा प्राची पट आई किरणों की सुन्दर सखियाँ ले,
और सांध्य बेला में खोई अपने प्राणों की पीड़ा ले,
सूर्य प्रभा ले गया सुनहरी बुझती किरण रही एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !
सुमनों की चादर बहार ने आकर पृथ्वी पर फैलाई,
पर पतझड़ ने लूटा उसको सूनी पड़ी सुघर अमराई,
इस निर्जन बगिया में तितली पागल घूम रही एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !
किरण
waah bahut sundar ekakipan par kya khoob rachna ...naman
जवाब देंहटाएंएकाकी पर लिखी बहुत सुन्दर रचना....एकला चलो रे याद दिलाती हुई
जवाब देंहटाएं"सागर में अब भी हलचल है --------"
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भाव लिए कविता |एक सुंदर रचना पड़ने को मिली |
आशा
bahut achha laga pad kar bahut khub
जवाब देंहटाएंhttp://kavyawani.blogspot.com/
सूक्ष्म पर बेहद प्रभावशाली कविता...सुंदर अभिव्यक्ति..प्रस्तुति के लिए आभार जी
जवाब देंहटाएंसाधना जी , आपकी कविता पढ़कर मन अभिभूत हो गया ,,,... बहुत समय बाद इतनी भावुक रचना पढने को मिली .... क्या आपकी रचनाएं अन्यत्र भी प्रकाशित हुयी हैं? ...
जवाब देंहटाएंपुखराज जी, आपको यह बताते हुए मुझे अपार आनंद की अनुभूति हो रही है कि ये रचनाएँ मेरी नहीं हैं, ये मेरी माँ श्रीमती ज्ञानवती सक्सेना 'किरण' जी की हैं ! वैसे ये रचनाएँ पुस्तक रूप में भी उपलब्ध हैं ! लेकिन पुस्तकों की पहुँच सीमित होती है इसीलिये मैंने उन्हें ब्लॉग पर प्रकाशित करने का निर्णय लिया ताकि आप जैसे सभी गुणी एवं सुहृद पाठक इनका आनंद उठा सकें ! आपको रचनाएँ अच्छी लगीं समझिये मेरा प्रयत्न सफल हो गया !
जवाब देंहटाएंएकला चलो.
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