मंगलवार, 1 जून 2010

सब एकाकी

इस संसृति में सब एकाकी !
चमक रहा ऊषा के आँचल में नभ का तारा एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !

ज्वार उठा सागर के उर में लहरें तट पर आ टकराईं,
निर्मम तट पर आकर उसने निज जीवन की निधि बिखराई,
सागर में अब भी हलचल है तट पर लहर मिटी एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !

उषा उठा प्राची पट आई किरणों की सुन्दर सखियाँ ले,
और सांध्य बेला में खोई अपने प्राणों की पीड़ा ले,
सूर्य प्रभा ले गया सुनहरी बुझती किरण रही एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !

सुमनों की चादर बहार ने आकर पृथ्वी पर फैलाई,
पर पतझड़ ने लूटा उसको सूनी पड़ी सुघर अमराई,
इस निर्जन बगिया में तितली पागल घूम रही एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !

किरण

9 टिप्‍पणियां:

  1. एकाकी पर लिखी बहुत सुन्दर रचना....एकला चलो रे याद दिलाती हुई

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  2. "सागर में अब भी हलचल है --------"
    बहुत सुंदर भाव लिए कविता |एक सुंदर रचना पड़ने को मिली |
    आशा

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  3. bahut achha laga pad kar bahut khub

    http://kavyawani.blogspot.com/

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  4. सूक्ष्म पर बेहद प्रभावशाली कविता...सुंदर अभिव्यक्ति..प्रस्तुति के लिए आभार जी

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  5. साधना जी , आपकी कविता पढ़कर मन अभिभूत हो गया ,,,... बहुत समय बाद इतनी भावुक रचना पढने को मिली .... क्या आपकी रचनाएं अन्यत्र भी प्रकाशित हुयी हैं? ...

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  6. पुखराज जी, आपको यह बताते हुए मुझे अपार आनंद की अनुभूति हो रही है कि ये रचनाएँ मेरी नहीं हैं, ये मेरी माँ श्रीमती ज्ञानवती सक्सेना 'किरण' जी की हैं ! वैसे ये रचनाएँ पुस्तक रूप में भी उपलब्ध हैं ! लेकिन पुस्तकों की पहुँच सीमित होती है इसीलिये मैंने उन्हें ब्लॉग पर प्रकाशित करने का निर्णय लिया ताकि आप जैसे सभी गुणी एवं सुहृद पाठक इनका आनंद उठा सकें ! आपको रचनाएँ अच्छी लगीं समझिये मेरा प्रयत्न सफल हो गया !

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