शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

ॠतु वर्णन - वसन्त

ॠतु वर्णन के इस क्रम में आज माँ की दूसरी कविता 'वसन्त' प्रस्तुत है !

वसन्त

निरख प्राण प्रियतम हुई आत्म विस्मृत
पुलक कम्प उर में नया रंग लाया,
चुने फूल सरसों के केसर मिलाई
उबटना नया अंग पर तब लगाया !

निशा कालिमा से लिया सद्य काजल
नयन में लगा केश फिर से बँधाए,
प्रकृति चेरी से ले मदिर गंध उसने
मली अंग से, वस्त्र भूषण सजाये !

चुनी रात रानी की कलियाँ सुहानी
जड़ा मोतियों बीच बैना लगाया,
करण फूल सुन्दर बने दाउदी के
सुघर केतकी का गुलूबंद भाया !

जुही की बना पहुँचियाँ पहन डालीं
रची हाथ में लाल मेंहदी सुहानी,
लगा पैर में किन्शुकों की महावर
चमेली की पायल बनी मन लुभानी !

हरी ओढ़ चूनर, सजा साज नूतन
प्रणय केलि में खो गयी सुध गँवाई,
उधर कुहुक कर कह रही जो कोयलिया
ना सुन ही सकी, ना इसे जान पाई !

अचानक हुआ ग्रीष्म का आगमन जो
वहाँ पर किसी को दिया ना दिखाई,
सुनो वह सुनाऊँ कहानी निराली
सुनी, ना किसी ने अभी तक सुनाई !

किरण

10 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर शब्दों में सजा कर वसन्त ऋतू का वर्णन किया गया है!

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
    "माफ़ी"--बहुत दिनों से आपकी पोस्ट न पढ पाने के लिए ...

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  3. जुही की बना पहुँचियाँ पहन डालीं
    रची हाथ में लाल मेंहदी सुहानी,
    लगा पैर में किन्शुकों की महावर
    चमेली की पायल बनी मन लुभानी !

    किन्शुकों की महावर ....बहुत ही ख़ूबसूरत शब्दों का चयन जो अब विस्मृत होते जा रहें हैं...
    मन को मोह लेने वाली कविता

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  4. कविता के भाव और शब्दचयन दूसरे ही जगत में ले जाते हैं,और कुछ समय के लिए भूल जाते हैं अपने आसपास की दुनिया..बहुत सुन्दर..आभार

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  5. सुन्दर कविता ने बसंत खिला दिया ....बहुत सुन्दर प्रस्तुति ...

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  6. बसंत की रचना पढ़ कर बसंत ऋतू जैसी महक से भर गया मन. बहुत बहुत सुंदर रचना.

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  7. बहुत सजीव कविता |बहुत अच्छी रचना |अदभुद शब्द चयन |
    आशा

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