सोमवार, 19 जुलाई 2010

मैं कैसे भूलूँ

चन्दा लेकर आया था जब
दुल्हन चाँदनियाँ की डोली,
जब तारों की बारात सजी,
नर्तन करती रजनी भोली ,
तब तुम नयनों के द्वार खोल
मेरे मन मंदिर में आये,
उन मधुर मिलन की रातों को
तुम भूले, मैं कैसे भूलूँ !

जब रजनीगंधा महक उठी,
खिल उठी कुमुदिनी सरवर में,
दिग्वधू उठा घूँघट का पट
मंगल गाती थी सम स्वर में,
मंथर गति से मलयानिल आ
हम दोनों को सहला जाता,
उन प्रथम प्रणय की रातों को
तुम भूले, मैं कैसे भूलूँ !

तुम निज वैभव में जा खोये,
क्यों याद अभागन की रहती,
मैं ठगी गयी भोलेपन में,
यह व्यथा कथा किससे कहती,
तुमको मन चाहे मीत मिले,
सुख स्वप्न सभी साकार हुए,
दुखिया उर के आघातों को
तुम भूले, मैं कैसे भूलूँ !


किरण

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर भाव लिए रचना |
    आशा

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  2. बेहद मार्मिक और संवेदनशील रचना।

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  3. जब रजनीगंधा महक उठी,
    खिल उठी कुमुदिनी सरवर में,
    दिग्वधू उठा घूँघट का पट
    मंगल गाती थी सम स्वर में,
    मंथर गति से मलयानिल आ
    हम दोनों को सहला जाता,
    उन प्रथम प्रणय की रातों को
    तुम भूले, मैं कैसे भूलूँ !

    कुछ सुनहली ... मखमली यादों को सिमेट कर लिखी ये रचना ... लय बद्ध .....

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  4. प्रीत की रीत निभाती हुई,,,
    मन की गहराई से लिखी गयी
    भावपूर्ण कृति ....

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  5. आपकी शब्दावली इर्षा का विषय है...इतने सुन्दर शब्दों का प्रयोग करती हैं आप अपनी रचना में के क्या कहें...वाह...अप्रतिम रचना...

    नीरज

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  6. क्या कहूं, समझ नहीं आ रहा है ....
    इतनी सुन्दर रचना ... एक एक शब्द पिरोया हुआ ... अबाक हो गया पढ़कर

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  7. बहुत सुन्दर भवों से रची है यह रचना....किरण जी को शत शत नमन

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