कैसे कहूँ सखी मैं तुमसे अपने उर की मौन व्यथा,
उमड़-उमड़ कर कहते आँसू इस जीवन की करुण कथा !
आज याद आती बचपन की कैसा था वह प्यारा काल,
खाना, हँसना और खेलना अल्हड़पन से मालामाल !
मैं भोली थी, लेशमात्र भी दुःख का ज्ञान न था मुझको,
नहीं जानती, प्रेम द्वेष का किंचित् भान न था मुझको !
निज सखियों संग खेल खेलना, गाना ही था मुझे पसंद,
प्रेम कलह में कैसा सुख था, रहती थी कैसी निर्द्वंद !
किन्तु समय ने पलटा खाया, मैंने यौवन पथ देखा,
इस विष के प्याले को सजनी मैंने अमृत सम लेखा !
देखा मैंने प्रेम पंथ भी, प्रियतम को भी देखा खूब,
और प्रणय की रंगरलियों से ह्रदय कभी भी सका न ऊब !
किन्तु सखी है मँहगा यह पथ भेंट किया जिसको बचपन,
भूल गयी सब हँसी खेल मैं, है चिन्तामय अब जीवन !
यह इच्छा है एक बार फिर प्यारा बचपन आ जाये,
वह अल्हड़ता, वह चंचलता फिर जीवन में छा जाये !
किरण
सच है बचपन आखिर बचपन ही होता है....इसकी स्मृतियाँ नहीं भूलतीं ...स्वछन्द , चिंताविहीन ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
बचपन तो बचपन ही है |उसका कोई मुकाबला नहीं |बहुत ही भाव पूर्ण रचना |
जवाब देंहटाएंआशा
बस यही प्यास तो सबको होती है मगर गया वक्त कब लौट कर आता है……………।बेहद उम्दा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंकिन्तु सखी है मँहगा यह पथ भेंट किया जिसको बचपन,
जवाब देंहटाएंभूल गयी सब हँसी खेल मैं, है चिन्तामय अब जीवन !
आह वही जिंदगी के छलावे वही अंत में जीवन की यथार्थ धरा के शूल
और पूरी जिंगदी शब्दों में कैसे ढाल दी ....काबिले तारीफ है.