शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

* कैसे कहूँ *

कैसे कहूँ सखी मैं तुमसे अपने उर की मौन व्यथा,
उमड़-उमड़ कर कहते आँसू इस जीवन की करुण कथा !

आज याद आती बचपन की कैसा था वह प्यारा काल,
खाना, हँसना और खेलना अल्हड़पन से मालामाल !

मैं भोली थी, लेशमात्र भी दुःख का ज्ञान न था मुझको,
नहीं जानती, प्रेम द्वेष का किंचित् भान न था मुझको !

निज सखियों संग खेल खेलना, गाना ही था मुझे पसंद,
प्रेम कलह में कैसा सुख था, रहती थी कैसी निर्द्वंद !

किन्तु समय ने पलटा खाया, मैंने यौवन पथ देखा,
इस विष के प्याले को सजनी मैंने अमृत सम लेखा !

देखा मैंने प्रेम पंथ भी, प्रियतम को भी देखा खूब,
और प्रणय की रंगरलियों से ह्रदय कभी भी सका न ऊब !

किन्तु सखी है मँहगा यह पथ भेंट किया जिसको बचपन,
भूल गयी सब हँसी खेल मैं, है चिन्तामय अब जीवन !

यह इच्छा है एक बार फिर प्यारा बचपन आ जाये,
वह अल्हड़ता, वह चंचलता फिर जीवन में छा जाये !


किरण

4 टिप्‍पणियां:

  1. सच है बचपन आखिर बचपन ही होता है....इसकी स्मृतियाँ नहीं भूलतीं ...स्वछन्द , चिंताविहीन ..
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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  2. बचपन तो बचपन ही है |उसका कोई मुकाबला नहीं |बहुत ही भाव पूर्ण रचना |
    आशा

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  3. बस यही प्यास तो सबको होती है मगर गया वक्त कब लौट कर आता है……………।बेहद उम्दा प्रस्तुति।

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  4. किन्तु सखी है मँहगा यह पथ भेंट किया जिसको बचपन,
    भूल गयी सब हँसी खेल मैं, है चिन्तामय अब जीवन !

    आह वही जिंदगी के छलावे वही अंत में जीवन की यथार्थ धरा के शूल

    और पूरी जिंगदी शब्दों में कैसे ढाल दी ....काबिले तारीफ है.

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