सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

* देव सुन कर क्या करोगे *

देव सुन कर क्या करोगे दुखी जीवन की कहानी !

यह अभावों की लपट में जल चुका जो वह नगर है,

बेकसी ने जिसे घेरा, हाय यह वह भग्न घर है,

लुट चुका विश्वास जिसका, तड़पती आशा बेचारी,

नयन के श्रृंगार मुक्ता बन चुके अब नीर खारी !

खा चुका जो ठोकरें, अगणित सही हैं लांछनायें,

पर न कर पाया सुफल कुछ भी रहीं जो वांछनायें,

बढ़ रही प्रतिपल विरोधों की लपट नित ज्वाल बन कर,

मिट रहा वह जो कभी लाया यहाँ अमरत्व चुन कर !

मनुज को छलती रही है आदि से अभिलाष मानी,

लुट रही करुणा न पिघले पर कभी पाषाण प्राणी,

यह न आँसू की लड़ी है ज्वलित मानव की निशानी,

देव सुन कर क्या करोगे दुखी जीवन की कहानी !

किरण

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति। धन्यवाद

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  2. बहुत गंभीर मन को छूती रचना |
    आशा

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  3. देव , सुन कर क्या करोगे ...
    नहीं कहते हुए भी कहती हुई अच्छी रचना ..!

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  4. मन की व्यथा को बहुत ही मार्मिक शब्दों में व्यक्त किया है
    बेहद संवेदनशील रचना

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  5. साधना जी मन की व्यथा को जितनी अनुभूति और दर्द से उसके सामने कहा जा सकता है शायद और किसी के नही। दिल को छू गयी रचना। कृप्या मेरे इस ब्लाग को भी देखें ।
    http://veeranchalgatha.blogspot.com/
    धन्यवाद।

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  6. लुट रही करुणा न पिघले पर कभी पाषाण प्राणी,

    यह न आँसू की लड़ी है ज्वलित मानव की निशानी,

    देव सुन कर क्या करोगे दुखी जीवन की कहानी

    एक एक शब्द करुणा में भीगा हुआ ....सुन्दर अभिव्यक्ति

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  7. बहुत ही खुबसूरत रचना...

    मेरे ब्लॉग पर मेरी नयी कविता संघर्ष

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  8. गंभीर मनोभावों वाली सुंदर रचना..... बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  9. बेहद मार्मिक रचना जो मन से एक आह निकाल देने को मजबूर करती है.

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