रविवार, 16 मई 2010

हताशा

तुम न आये मैं तुम्हारी बाट ही तकती रही,
और स्वागत को तुम्हारे साज नव सजती रही !
तुम न आये सूर्य की अंतिम किरण भी खो गयी है,
तुम न आये चन्द्र की यह ज्योत्सना भी सो गयी है !
तुम न आये पर निशा ने कालिमा जग पर बिछा दी,
तुम न आये फिर उषा ने अरुणिमा भू पर लुटा दी !
तुम न आये कामना की कली भी मुरझा चली है,
तुम न आये साधना की श्रंखला सकुचा चली है !
तुम न आये लगन की डोरी ह्रदय की टूटती है,
तुम न आये सब्र की पतवार कर से छूटती है !
तुम न आये नाव जीवन की अतल में जा रही है,
तुम न आये ज्योति आशा की तिमिर से छा रही है !
तुम अगर आते मनुज की भावना सूनी न रहती,
तुम अगर आते धरा की विकलता दूनी न रहती !
किन्तु मानव की पुकारें लौट आईं तुम न आये,
और धरती की कराहें लौट आईं तुम न आये !
द्वार पर जा मंदिरों के लौट आई तुम न आये,
तुम रहे पाषाण ही क्यों देवता तुम बन न पाए !

किरण

8 टिप्‍पणियां:

  1. Kya gazab ki rachna hai!Kitni hi shraddha rakho,patthar patthar hi rahta hai..

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  2. द्वार पर जा मंदिरों के लौट आई तुम न आये,
    तुम रहे पाषाण ही क्यों देवता तुम बन न पाए !

    sundar man ki sundar abhivakti ....bahut khoob

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  3. अति सुन्दर और क्या प्रवाह है!! वाह!

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  4. तुम रहे पाषाण देवता न बन पाए ...
    देवता की दरकार ही क्यूँ ...???

    राह तकती एक अच्छी कविता ...!!

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