गुरुवार, 18 नवंबर 2010

बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !

बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !

ले समस्त अंतर का प्यार
आई हूँ मैं तेरे द्वार,
सुन्दर भाव कुसुम सुकुमार
करने भेंट अश्रु का हार,
खोल खोल ओ रे करुणामय
अपनी करुण कुटी का द्वार !
बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !

इस जीवन के शीत हेमंत
मम पतझड़ के मधुर वसंत,
तीव्र ग्रीष्म में जल की धार
शीतल तव स्मृति आभार,
निष्ठुर निर्दयता में क्या
पा लोगे अब जीवन का सार !
बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !

व्याकुल उर की क्षीण पुकार
और दीन दुखियों का प्यार,
दया सिंधु वह दया अपार
तुम्हें खींच लाती इस पार,
क्या न तुम्हें कुछ आती करुणा
सुन कर मेरी करुण पुकार !
बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !

किरण

6 टिप्‍पणियां:

  1. "व्याकुल उर की क्षीण पुकार -------तुम्हें खींच लाती इस पार"
    भावनाओं से ओतप्रोत रचना |सुंदर शब्द चयन |
    आशा

    जवाब देंहटाएं
  2. सुन्दर भाव कुसुम सुकुमार
    करने भेंट अश्रु का हार,
    खोल खोल ओ रे करुणामय
    अपनी करुण कुटी का द्वार !
    बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !

    जरूर खोलेगा द्वार और खोलना ही पडेगा जब पुकार इतनी करुणाभरी होगी तो कौन ऐसा निष्ठुर होगा जो चुपचाप देखता रहेगा…………बेहद भक्ति भाव से ओत-प्रोत रचना।

    जवाब देंहटाएं
  3. व्याकुल उर की क्षीण पुकार
    और दीन दुखियों का प्यार,
    दया सिंधु वह दया अपार
    तुम्हें खींच लाती इस पार,
    क्या न तुम्हें कुछ आती करुणा
    सुन कर मेरी करुण पुकार !
    बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !

    बहुत खूबसूरत छंद बद्ध रचना ....अपार खजाना है आपकी माँ का ...हमें पढवाने के लिए आभार

    जवाब देंहटाएं