मंगलवार, 2 अक्टूबर 2012

शतश: प्रणाम



ओ आज़ादी के दीवानों, ओ स्वातंत्र्य युद्ध के वीरों ,
ओ रणचण्डी के खप्पर को भरने वाले रणवीरों ! 

देकर  तन मन धन की आहुति जीवन यज्ञ रचाने वालों,
अपने दृढ़ निश्चय के दीपक , जला पंथ दिखलाने वालों ! 

बने  नींव के पत्थर पल क्षण , अपनी भेंट चढ़ाने वालों ,
विजय दुर्ग की प्राचीरों को , दृढ़ करने वाले मतवालों ! 

ओ भारत के कोहिनूर , गाँधी बाबा तुमको प्रणाम ,
ओ  अमर शहीदों भक्तिपूर्ण तुमको प्रणाम शतश: प्रणाम ! 



किरण


सोमवार, 3 सितंबर 2012

तेरी माया

 
 
 
 
रूप ने श्याम तेरे भरमाया ! 
फूल पत्र सुन्दर कलियाँ बन सबका ह्रदय चुराया ! 
रूप ने श्याम तेरे भरमाया ! 

किसीने पत्थर, फूल किसीने, किसीने क्षीर बताया 
वन उपवन में कहा किसीने किसीने नीर बताया ! 

कोई कहता वह मस्जिद में 'खुदा' बना है आया ,
कहा  किसीने 'गॉड' बना गिरिजा में मोहन आया ! 
 
कोई  कहता यमुना तट पर उसने रास रचाया ,
बन कर उसने ग्वाल बाल नवनीत चुरा कर खाया ! 

नंदग्राम में कहा किसीने नंद ने गोद खिलाया ,
राम रूप धर कर लंका में रावण वीर हराया ! 
 
कुरुक्षेत्र  रण भूमि में फिर वह पार्थ सखा बन आया ,
देकर गीता ज्ञान उसे फिर धर्म कर्म सिखलाया ! 

द्रुपद सुता ने की गुहार जब तत्क्षण चीर बढ़ाया ,
जल भीतर गज ग्राह लड़े तब आकर तुरंत छुड़ाया ! 

सुन-सुन करके ऐ मनमोहन तेरी अद्भुत माया ,
कोना-कोना ढूँढा जग का, पता न तेरा पाया ! 
 
निठुर तेरी निठुराई पर तब मन को रोना आया ,
आँखों से मेरी उमड़ आज जीवन में पावस छाया ! 


किरण







रविवार, 26 अगस्त 2012

अर्चना


आओ आओ बेग पधारो व्याकुल ह्रदय हमारा है ,
नाथ न क्यों सुनते अनुनय हो निठुर भाव क्यों धारा है !

दुखी दीन हैं, मन मलीन हैं तेरी गउएँ गोपाला,
आजा फिर दिखला दे मोहन मधुर दृश्य गोकुल वाला !

बृज की शोभा क्षीण हुई है ऐ बृजराज दुलारे आ ,
विरह व्यथा से व्याकुल गोपिन के जीवन उजियारे आ !

माँ जसुदा की सुघर गोद के प्यारे कुँवर कन्हैया आ ,
वंशीधारी, गिरिवरधारी, वन-वन वेणु बजैया आ !

किरण


बुधवार, 15 अगस्त 2012

पन्द्रह अगस्त














देहली  के कण-कण में जाने दबे पड़े कितने इतिहास ,
लाल किले की दीवारों ने देखे कितने हास विलास !

कभी पांडवों ने इसके स्वर्गांचल में मणिरत्न जड़े ,
कभी  स्वत्व पर बलि होने को इस पर ही चौहान लड़े !

देखा है इसकी मिट्टी ने मुगलों का उन्मत्त विलास ,
देखे हैं इसकी धरती ने जाने कितने मृदु मधुमास !

ये यमुना की लोल लहरियाँ देख चुकीं कितने उत्थान ,
और पतन के गहन गर्त में डूबे हुए गलित अभिमान !

इसके शांत अंक में सोये जाने कितने वीर प्रवण ,
कितनी  सतियों ने साजन संग किया मृत्यु का यहाँ वरण !

जब इस लाल किले के ऊपर फहराया परदेशी ध्वज ,
तब झाँसी में बिगुल बजा, चल पड़े वीर सब आलस तज !

हुआ शुरू जबसे स्वतन्त्रता देवी के मठ का निर्माण ,
खेल खेलने लगे मृत्यु का वीर दाँव पर रख कर प्राण !

पहले बनी नींव का पत्थर वह झाँसी की महारानी ,
जिसने राह दिखाई हमको आज़ादी की सुखसानी !

चले बाँध कर कफ़न शीष पर देशप्रेम के मतवाले ,
हँसते-हँसते झूल गये फाँसी पर कितने मतवाले !

आठ युगों की कठिन तपस्या नए देश में रंग लाई ,
'जय स्वदेश' 'जय हिंद' गा उठी मृदु स्वर भर जब शहनाई !

वह 'पन्द्रह अगस्त' सैंतालीस का पावन त्यौहार हुआ ,
जब अपने भारत की सत्ता पर हमको अधिकार हुआ !

बिखर गये सदियों के बंधन हुआ सफल वीरों का त्याग ,
हुआ देश आज़ाद, गुलामी चली गयी भारत से भाग !

इस गौरवमय पुण्य दिवस का क्यों न करें सम्मान सखे ,
आज  इसी 'पन्द्रह अगस्त' पर क्यों न करें अभिमान सखे !

बिछुड़ी हुई कीर्ति रानी का जब भारत से मिलन हुआ ,
आज वही 'पन्द्रह अगस्त' है जब संकट का शमन हुआ !

इस पावन अवसर पर साथी लिखा गया इतिहास नया ,
नव संवत्सर काल शिला पर चरण रेख शुभ डाल गया !

हुआ दीप्त अभिषेक तिलक से जब भारत का भाल प्रशस्त ,
'जय भारत' के साथ-साथ गूँजा 'जय जय पन्द्रह अगस्त' !


किरण









रविवार, 12 अगस्त 2012

श्याम हमारे आओ ...


मुरारी मुरली आज बजाओ ! 

भक्ति की गंगा जमुना में तुम भक्तों को नहलाओ ,
वृन्दावन की कुञ्ज गलिन में आओ रास रचाओ ,
यमुना तट पर फिर मनमोहन मीठे राग सुनाओ ,
क्यों तुम रूठ गये हो कान्हा यह तो हमें बताओ ,
भारतवासी भक्त बनें फिर ऐसी राह दिखाओ ,
नैना प्यासे हैं दर्शन को अब न अधिक तरसाओ ,
क्षीर सिंधु का त्याग करो अब, श्याम हमारे आओ ! 


किरण


मंगलवार, 7 अगस्त 2012

कन्हैया

 
 
गोकुल के रचैया अरु गोकुल के बसैया हरि ,
माखन के लुटैया पर माखन के रखैया तुम ! 
 
गोधन  के कन्हैया अरु गोवर्धन उठैया नाथ ,
बृज के बसैया श्याम बृज के बचैया तुम !

भारत रचैया अरु भारत बचैया कृष्ण ,
गीता के सुनैया अरु गीता के रचैया तुम ! 

बंसी के बजैया अरु चीर के चुरैया हरि  ,
नागन के ऊपर चढ़ि नृत्य के करैया तुम ! 
 
सारी  के चुरैया अरु सारी के बढ़ैया साथ ,
भरी  सभा द्रौपदी की लाज के रखैया तुम !

राधा के गहैया श्याम राधा के छुड़ैया योगी ,
गोपिन संग कुंजन में रास के रचैया तुम ! 

पापी अरु पापिन को स्वर्ग के दिलैया नाथ ,
शरण हूँ मैं लाज राखो कुँवर कन्हैया तुम ! 


किरण




 


मंगलवार, 31 जुलाई 2012

ये नयन बने कारे बादर


ऊधो उनसे कहना जाकर ! 

करुणा कर दर्शन दें हमको ,
नहीं, अब न कहेंगी 'करुणाकर' !

क्यों प्रीति की बेल बढ़ाई तब ,
क्यों  विरह की आग लगाई अब , 
कहें कौन हुआ अपराध है कब , 
जब साथ रहीं हम उनके तब  ?
बेचैन करें मथुरा में जा ,
हमें गोकुल लगता दु:ख सागर ! 

ऊधो उनसे कहना जाकर ! 

'अंतरयामी' वे क्यों हैं बने ,
जब उर अंतर को नहीं गुनें ,
ना ही दिलों का वे संताप हनें ,
कहे 'दु:खहारी' तब कौन उन्हें ? 
हमसे ही मिली हैं उपाधि सकल ,
क्या भूल गये वे नटनागर ? 

ऊधो उनसे कहना जाकर ! 

यदि दीन न होते तो उनसे ,
सब 'दीनानाथ' नहीं कहते ,
जग  में न अनाथ अरे होते ,
तब 'नाथ' उन्हें हम क्यों कहते !
जब हम जैसों पर दया करें ,
कहालावें तभी वे 'दयासागर' ! 

ऊधो उनसे कहना जाकर ! 

सब राग भोग हमने छोड़े ,
कुलकान त्याग बंधन तोड़े ,
जीवन के हैं अब क्षण थोड़े ,
कब तक यूँ रहेंगे मुँह मोड़े !
अब तो वर्षा ऋतु रहती नित ,
ये नयन बने कारे बादर ! 

ऊधो उनसे कहना जाकर ! 


किरण




रविवार, 22 जुलाई 2012

खेतों की महारानी





उमड़-घुमड़ कर आये बदरवा, रिमझिम बरसे पानी रे ,
घूँघट में खिल उठी सलोनी खेतों की महारानी रे !

रुन-झुन रुन-झुन बिछिया बाजे, झन-झन झाँझर बोले रे ,
कुहू-कुहू कोयलिया कुहुके, रनिया का मन डोले रे !

पँचरंग चूनर उड़े हवा में, लहँगे का रंग धानी रे ,
घूँघट में खिल उठी सलोनी खेतों की महारानी रे !

कारे धौरे बैल सुहाने, हल बक्खर की जोत रे ,
रजवा के संग जाये सजनिया ले अनाज की मोट रे !

वन में बोले मोर पपीहा, फुल बगिया हरषानी रे ,
घूँघट में खिल उठी सलोनी खेतों की महारानी रे !

हरी ओढ़नी धरती माँ की, लहर-लहर लहराये रे ,
चंदन बिरवा डाल हिंडोला बहू मल्हारें गाये रे!

उड़  कागा जो बीरन आवें, फले तुम्हारी बानी रे ,
घूँघट में खिल उठे सलोनी खेतों की महारानी रे !

हाथन मेंहदी, पैर महावर, माँग सिन्दूर सुहाये रे ,
तीखे नैना भरे लाज से, काजर को शरमाये रे !

छनक-छनक छन पहुँची बाजे, झाँझर झमक सुहानी रे ,
घूँघट में खिल उठी सलोनी खेतों की महारानी रे !

" गंगा मैया दीप सँजोऊँ, हार फूल ले आऊँ रे ,
खेतन  मेरे सोना बरसे  तो मैं तुम्हें नहाऊँ रे !"

बैठी शगुन मनावहिं गोरी, वर दे अवढर दानी रे ,
घूँघट  में खिल उठी सलोनी खेतों की महारानी रे !



किरण

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

पानी गिरा कर मेह के रूप में







 पानी गिरा कर मेह के रूप में
अन्न उगाते कभी अभिराम हैं !

शोभा दिखाते हमें अपनी जो ऐसी
फिर विद्युत रूप कभी वे ललाम हैं !









शब्द सुना कर घन गर्जन का
ध्वनि शंख की करते कभी बलभान हैं !

घनश्याम के रूप में आज सखी
इस हिंद में आये वही घन श्याम हैं !








किरण

सोमवार, 28 मई 2012

अश्रुमाल















नाथ तुम्हारी क्षुद्र सेविका लाई यह रत्नों का हार ,
तुम पर वही चढ़ाती हूँ मैं करना मेरे प्रिय स्वीकार !

मेरा मुझ पर नाथ रहा क्या जो कुछ है वह तेरा है ,
मुझे निराशा अरु आशा की लहरों ने प्रभु घेरा है !

तुम लक्ष्मी माँ के प्रिय पति हो रत्न भेंट हों कैसे नाथ ,
रत्नों की जब खान स्वयं माँ होवें प्रियतम तेरे साथ !

बस हैं यह आँसू ही भगवन्  जिनका है यह हार सजा ,
करती  भेंट करो स्वीकृत प्रभु यद्यपि तुम्हें यह रहा लजा !

किरण

शुक्रवार, 11 मई 2012

माँ की याद


आज आपको अपनी माँ की एक दुर्लभ रचना पढ़वाने जा रही हूँ जिसका रचना काल सन् १९५५-५६ का रहा होगा ! उन दिनों मातृ दिवस मनाने का चलन नहीं था ! माँ को किसी दिवस विशेष पर याद किया जाना चाहिये ऐसी प्रथा भी भारतीय समाज में तब प्रचलित नहीं थी ! लेकिन माँ के प्रति बेटी के प्रेम और श्रद्धा की यह शाश्वत धारा अनादि काल से प्रवाहित हो रही है और शायद जब तक सृष्टि का क्रम चलेगा यह प्रवाहित होती रहेगी ! लीजिए आज प्रस्तुत है एक ऐसी रचना जिसमें मेरी माँ ने अपनी माँ को व्याकुल होकर याद किया है ! मेरी नानीजी का देहांत सन् १९५५ में हुआ था !

माँ कैसे अब धीर धरूँ मैं ! 
जन्मदायिनी जननी तूने उकता कर क्यों छोड़ी ममता ,
अरी कौन सी परवशता में पड़ यों जग से तोड़ी ममता ,
माँ बतला दे एक बार अब कैसे जीवन में विचरूँ मैं !
माँ कैसे अब धीर धरूँ मैं !
पल भर मेरी इन आँखों में आँसू तुझे न भाते थे माँ ,
उन आँखों में उमड़ सरोवर पल क्षण तुझे बुलाते हैं माँ ,
हृदय बना पाषाण छिपी जा कैसे तेरी खोज करूँ मैं !
माँ कैसे अब धीर धरूँ मैं !
हमें बिलखता छोड़ तुझे क्या अमरावति का सुख मन भाया ,
जो पीड़ा से अपने ही अंशों के अंतर को छलकाया ,
बिलख रहे ये प्राण इन्हें क्या कह समझा कर कष्ट हरूँ मैं !
माँ कैसे अब धीर धरूँ मैं !
भुला न पाती मैं तेरे अंतर का स्नेह सरोवर छल-छल ,
मिटा न पाती सौम्य मूर्ति अंतस से अपने हा क्षण पल ,
तेरे बिना दु:ख रजनी के , अन्धकार से क्यों न डरूँ मैं !
माँ कैसे अब धीर धरूँ मैं !
मिला तुझे क्या मेरा बचपन अपने हाथों मिटा गयी जो ,
बना सुरक्षित निज प्राणों को मेरी हस्ती मिटा गयी जो ,
माँ, ओ मेरी माँ , तेरी सुधि अंतर से कैसे बिसरूँ मैं !
माँ कैसे अब धीर धरूँ मैं !
देख उदासी हाय कौन दुखिया मन की मनुहार करेगा ,
पा आभास कष्ट का हा अब कौन धीर दे प्यार करेगा ,
माँ को खोकर ओ निर्दय प्रभु नव अभिलाषा कौन करूँ मैं !
माँ कैसे अब धीर धरूँ मैं !

किरण  

रविवार, 29 अप्रैल 2012

परियों का प्यार

स्वर्गलोक से परियाँ आयीं किरण नसैनी से होकर ,
नन्हे पौधों को नहलाया ओस परी ने खुश होकर ! 

फूलपरी ने आ उन सबका फूलों से श्रृंगार किया ,
सोई  कली जगाईं, पलकें चूम बहुत सा प्यार दिया ! 

फिर  सुगंध की परियाँ कलसे भर-भर कर पराग लाईं ,
नन्हे पौधों को सौरभ की भर-भर प्याली पकड़ाईं !    

देख सूर्य का तेज लाज से सकुचा कर सब भाग गईं ,
खेल  खेलने फूलों के संग तितली भँवरे चले कई !

बच्चों पौधों जैसे यदि उपकारी तुम बन जाओगे ,
वीर जवाहर, बापू से बन जग में नाम कमाओगे ! 

तो यह ही सब परियाँ आकर तुम पर प्यार लुटायेंगी ,
जग में फूलों की सुगंध सी कीर्ति तुम्हारी गायेंगी ! 

नाम तुम्हारा अमर रहेगा सब तुमको दुलरायेंगे ,
'ये हैं सच्चे लाल हिंद के' , कह जन मन सुख पायेंगे ! 


किरण







सोमवार, 23 अप्रैल 2012

न खुशियों में हो मस्त तुम













कुछ बहारों ने आकर चमन से कहा ,
यूँ न फूलो न खुशियों में हो मस्त तुम!

हमने माना खिले गुल हर इक शाख पर
हर कली झूमती , मस्त है ज़िंदगी ,
बुलबुलें गा रहीं गीत मस्ती भरे
कर रहीं तितलियाँ झुक तुम्हें बंदगी !

चार दिन को मिली ताज़गी जो तुम्हें
कुछ करो, दूसरों की भलाई करो ,
छोड़ दो तुम गरूर और झूठी हया
गर मरो तो शहीदों की मानिंद मरो !

मुस्कुराता  समाँ रह न पायेगा फिर
फिर न बुलबुल तराने सुना पायेगा ,
जब उजड़ जायेगा वह नशेमन, न फिर
वह खुशी के तराने सुना पायेगा !

इसलिये याद रक्खो अरे गुलिस्ताँ
दूसरों के लिये मत रहो मस्त तुम ,
कुछ बहारों ने आकर चमन से कहा
यूँ न फूलो न खुशियों में हो मस्त तुम !


किरण





रविवार, 15 अप्रैल 2012

जहाँ से चले थे

जहाँ से चले थे वहीं जा रहे हैं ,
न पूछो कि क्या-क्या लिये जा रहे हैं !

किसीकी खुशी का लुटा कारवाँ है ,
किसीके चमन पर बरसती खिज़ाँ है ,
ये दिल बेबसी से सिये जा रहे हैं ,
न पूछो कि क्या-क्या लिये जा रहे हैं !

यहाँ गम के नगमें सुनाएँ किसे हम ,
तड़पता हुआ दिल दिखायें किसे हम ,
हम आँखों के आँसू पिये जा रहे हैं ,
न पूछो कि क्या-क्या लिये जा रहे हैं !

किसीकी निगाहों में बेकार हैं हम ,
किसीकी तमन्ना से बेज़ार हैं हम ,
सिसकते हुए भी जिए जा रहे हैं ,
न पूछो कि क्या-क्या लिये जा रहे हैं !

मचलते रहें यूँ ना अरमाँ किसीके ,
बिखरते फिरें यूँ ना सामाँ किसीके ,
जियें वो दुआ हम दिये जा रहे हैं ,
न पूछो कि क्या-क्या लिये जा रहे हैं !


किरण

गुरुवार, 29 मार्च 2012

रामनवमी

रामनवमी के उपलक्ष्य में माँ की एक उत्कृष्ट रचना आपके सामने प्रस्तुत करने जा रही हूँ ! आशा है आपको उनकी यह रचना अवश्य पसंद आयेगी !

अब तक तुमने राम सदा परतंत्र देश में जन्म लिया ,
परदेशी शासक की कड़वी अवहेला का घूँट पिया !

तब थे इस निराश भारत के तुम आधार, तुम्हीं स्तंभ ,
इन हताश पथिकों की मंजिल के थे राम तुम्हीं अवलंब !

तब तुम सदा प्रतीक्षित रहते सदा पुकारे जाते थे ,
संकटमोचन नाम तुम्हारा ले जन मन सुख पाते थे !

राजा का स्वागत राजा ही करते , रीत पुरानी थी ,
किन्तु विदेशी राजा को यह बात सदा अनजानी थी !

तब इस नवमी के अवसर पर जनता साज सजाती थी
आवेंगे अब राम हमारे ,सोच सोच सुख पाती थी |

इस परदेशी शासक से वे आकर पिंड छुडाएंगे ,
राज्य राम का होगा जब तब हम सब मिल सुख पाएंगे |

स्वप्न हमारा पूर्ण हुआ अब क्यूँ न मगन हो हर्षायें
अपने शासक की सत्ता के क्यूँ न हृदय से गुण गायें |

अब न हमें नैराश्य सताता व्यर्थ तुम्हें क्यों दुःख देवें ,
राम राज्य के इस सागर में नौका राजा खुद खेवें |

तुम आते हो तो आ जाओ अब तो राज्य तुम्हारा है
हम निश्चिन्त रहे अब क्यों ना राम राज्य जब प्यारा है |

बुरा ना मानो राम, आज जनता क्यों व्यर्थ समय खोवे
अब तो अपने ही शासक हैं क्यों ना चैन से हम सोवें |

तुम राजा हो राम हमारे, हम प्रसन्न इससे भारी ,
मंत्री मंडल करे तुम्हारे स्वागत की अब तैयारी |

हम तो दीन हीन सेवक हैं कैसे क्या तैयार करें
केवल थोड़े भाव पुष्प राजा जन से स्वीकार करें |

किरण






गुरुवार, 22 मार्च 2012

पंथी परदेसी


राह तुम्हारी दूर चले आये तुम पंथी भूले ,
हुए उदय कुछ पुण्य हमारे पद रज पा हम फूले !

स्नेह बिंदु कुछ इस मरुथल में आ तुमने बरसाये ,
ये सूखे जीवन तरु राही पा तुमको सरसाये !

स्वागत गान तुम्हारा गाती भ्रमरावलि की टोली ,
मृदु पराग से भर दी तुमने नव कुसुमों की झोली !

ओ परदेसी आज तुम्हें पा हमने सीखा पाना ,
जीवन की ममता माया को अब हमने पहचाना !

नदी किनारे बैठा चातक मरता आज तृषा से ,
पीड़ित धरा कोप से रवि की रह-रह भरे उसाँसे !

तुमने पिला मधुर वाणी रस उसके भाव जगाये ,
सरस स्वच्छ शबनम से आँसू धरिणी पर बरसाये !

ओ अनजाने राही कैसे स्वागत करें तुम्हारा ,
हृदय थाल में भाव दीप रख करें पंथ उजियारा !

पलक पाँवड़े बिछा दिए जा रखना याद हमारी ,
हमें तुम्हारी यह स्मृति निधि सारे जग से प्यारी !


किरण



गुरुवार, 8 मार्च 2012

घर की रानी


अपनी माँ की विविध रसों की रचनाएं मैं आपको पढ़वा चुकीहूँ! होली का मस्ती भरा त्यौहार है आज आपको उनकी एक बिलकुल ही नये रसरंग की रचना पढ़वाने जा रही हूँ जो तब भी बहुत लोकप्रिय थी और हर कवि सम्मलेन में इसे सुनाने की फरमाइश उनसे ज़रूर की जाती थी ! इस रचना को उन्होंने जब रचा होगा तब हम सब भाई बहन छोटे-छोटे रहे होंगे ! यह रचना अपने आप में बहुत कुछ समेटे हुए है और उस युग की गृहलक्ष्मी के सम्पूर्ण रूप का दिग्दर्शन कराती है ! तो लीजिए आप भी इस शब्द चित्र का आनंद उठाइये !

मैं हूँ अपने घर की रानी !

मेरा छोटा सा राजमहल
सबके महलों से है विचित्र ,
गृहरानी का जिसके अंदर
है छिपा समुज्ज्वल चित्र चरित्र ,
दिन रात व्यवस्था मैं उसकी
करती रहती हूँ मनमानी !

मैं हूँ अपने घर की रानी !

निज सायं प्रात: चौके में
अपना आसन लगवाती हूँ ,
करछी, चिमटा, चकला, बेलन
सबके झगड़े निबटाती हूँ ,
चूल्हे में सुलगा कर ज्वाला
आटे में देती हूँ पानी !

मैं हूँ अपने घर की रानी !

मुन्ना-मुन्नी छोटे-छोटे
दो राजमहल के मंत्री हैं ,
दोनों ऊधम करते रहते
दोनों झगड़ालू तंत्री हैं ,
जब बहुत ऊब जाती उनसे
करती चाँटों से मेहमानी !

मैं हूँ अपने घर की रानी !

जब द्वारबान, चौका पानी
वाला ना कोई आता है ,
तब उसका ही वेश बनाना
मेरे मन को भाता है ,
फिर ऐसा रूप पलटती हूँ
जाती न तनिक भी पहचानी !

मैं हूँ अपने घर की रानी !

पर गृहस्वामी के आते ही
भीगी बिल्ली बन जाती हूँ ,
जो मिलता है आदेश मुझे
चुपचाप वही कर लाती हूँ ,
पर बाहर उनके जाते ही
मैं बन जाती फिर महारानी !

मैं हूँ अपने घर की रानी !

भूले से यदि कोई पुस्तक
मेरे हाथों पड़ जाती है ,
पढ़ती उसको ऐसे झटपट
ज्यों भूखी ग्रास निगलती है ,
उस पुस्तक को मन ने मानों
उदरस्थित करने की ठानी !

मैं हूँ अपने घर की रानी !


किरण

रविवार, 4 मार्च 2012

जीवन प्याली


मेरी जीवन प्याली दे
तू बूँद-बूँद भर साकी ,
परिपूरित कर दे कण-कण
रह जाये न खाली बाकी !

मैं ढूँढ-ढूँढ थक आई
साकी तेरी मधुशाला ,
दे दे भर-भर कर मुझको
मोहक प्याले पर प्याला !

मैं हो जाऊँ पी-पी कर
बेसुध पागल मतवाली ,
छा जावे इन अधरों पर
तेरे मधु की मृदु लाली !

ले अमिट साध यह साकी
मैं तेरे सम्मुख आई ,
इस हाला में जीवन की
सारी सुख शान्ति समाई !

दे साकी इतनी हाला
बेसुध होऊँ छक जाऊँ ,
बस एक बार ही पीकर
साकी अनंत तक जाऊँ !


किरण

चित्र गूगल से साभार

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

आ वसन्त ! खेलो होली !


मंथर गति से मलय पवन आ
सौरभ से नहला जाता ,
कुहू-कुहू करके कोकिल जब
मंगल गान सुना जाता !

हरित स्वर्ण श्रृंगार साज जब
अवनि उमंगित होती थी ,
स्वागत को ऋतुराज तुम्हारे
सुख स्वप्नों में खोती थी !

भर फूलों में रंग पराग के
कुमकुम से भर कर झोली ,
आते थे ऋतुराज खेलने
तुम प्रतिवर्ष यहाँ होली !

किन्तु आज आहों की ज्वाला
हृदय नीड़ को जला रही ,
निज पुत्रों के बलिदानों से
अब वसुधा तिलमिला रही !

अब न कोकिला के मृदु स्वर में
मंगलमय संगीत भरा ,
दुखिया दीन मलीन वेश में
प्रस्तुत है ऋतुराज धरा !

है दारिद्र्य देव का शासन
नंगे भूखों की टोली ,
दुखी जनों के हृदय रक्त से
आ वसन्त खेलो होली !


किरण




सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

आई बहार आया वसन्त


फूली सरसों झूमी बालें, धरणी को फिर श्रृंगार मिला ,
छाई आमों पर तरुणाई, बौरों को मधु का प्यार मिला !

नव पादप झूम उठे साथी, कोकिल फिर तान लगी भरने ,
नव खिली कली को देख भ्रमर, फिर से मनुहार लगे करने !

कोमल किसलय के आँचल से, छाई वृक्षों पर हरियाई ,
चंचला प्रकृति के प्रांगण में, फिर आज बज उठी शहनाई !

फिर रक्त कुसुम खिलखिला उठे, टेसू ने वन में भरा रंग ,
कुसुमायुध लेकर आ पहुँचा, निज सखा सहित ऋतुपति अनंग !

सौरभ वितरित कर कुसुमों ने, कर दिये सुगन्धित दिग्दिगंत ,
सब जग हर्षित हो नाच उठा, आई बहार आया वसन्त !


किरण

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

वसंतागमन











आज नयनों में जीवन है !

दर्शन कर उस प्राण सखा का
पुलकित तन मन है !

आज नयनों में जीवन है !

आज कुसुमित उर की डाली ,
आज प्रमुदित मन का माली ,
आया नव वसन्त आज
मुकुलित यह उपवन है !

आज नयनों में जीवन है !

भाव अंकुर हैं फूट चले ,
मधुप सौरभ हैं लूट चले ,
आज लुटाता मृदु पराग
मलयानिल क्षण-क्षण है !

आज नयनों में जीवन है !

रंगीली आशा की कलियाँ ,
कर रहीं खिल-खिल रंगरलियाँ ,
आया उनके देश पाहुना
वह तो जीवन धन है !

आज नयनों में जीवन है !


किरण

रविवार, 29 जनवरी 2012

हे राम


बापू के निर्वाण दिवस पर माँ की अनमोल कृतियों से यह अनुपम रचना श्रद्धांजलि स्वरुप आपके लिये प्रस्तुत है ! पढ़िये और आनंद उठाइये !

कौन कहता राष्ट्र का दीपक बुझा छाया अँधेरा ,
कौन कहता स्वर्ग में पाया है बापू ने बसेरा !

कौन कहता खो गया वह रत्न दुःख सागर बढ़ा कर ,
कौन कहता वह अमर मानव गया निज बलि चढ़ा कर !

आज भी बापू हमारे बीच में हैं आँख खोलो ,
सत्य की सुरसरि बहाते हैं उठो सब पाप धो लो !

देख लो दलितों के उर में हैं बसे वे भव्य भावन ,
देख लो जन-जन के प्राणों में रसे वे पतित पावन !

देख लो नव राष्ट्र की नाली में उनका रक्त बहता ,
देख लो स्वातंत्र्य सत्ता में उन्हें प्रत्यक्ष रहता !

आज भी मर कर अमर वे और तुम जी कर मरे से ,
खोजते हो पथ निरंतर भ्रमित माया में डरे से !

आज भी ध्रुव से प्रकाशित कर रहे तम का निवारण ,
भावना के बंधनों में बँध रहे वे तरणि तारण !

एक थे पहले, अनेकों रूप अब धारण किये हैं ,
युग प्रवर्तक, महा मानव, आज अमृत सा पिये हैं !

सैकड़ों युग तक जियेंगे पथ प्रदर्शक देव गाँधी ,
प्रति हृदय मंदिर बनेगा और प्रतिमा पूज्य गाँधी !

किरण


माँ की इस विनम्र श्रद्धांजलि में मेरे भाव कुसुम भी बापू के लिये सविनय समर्पित हैं !

बुधवार, 25 जनवरी 2012

नव वसन्त आया


सखी री नव वसन्त आया !

आदि पुरुष ने धरा वधू पर पिचकारी मारी ,
नीले पीले हरे रंग से रंग दी रे सारी ,
अरुण उषा से ले गुलाल मुखड़े पर बिखराया ,
वह सकुचाई संध्या के मिस अंग-अंग भरमाया !

सखी री नव वसन्त आया !

रति की चरणाकृति पाटल किंशुक मिस मुस्काई ,
वन-वन उपवन नगर डगर में सुषमा इठलाई ,
रंग बिरंगी कुसुम प्यालियों को ला फैलाया ,
चतुर चितेरा प्रकृति पटल पर चित्र सजा लाया !

सखी री नव वसन्त आया !

सरस्वती ने निज वीणा को फिर से झनकारा ,
कोकिल की मृदु स्वर लहरी से गूँजा जग सारा ,
राग बहार यहाँ पर आकर ऐसा बौराया ,
फीकी पड़ी कीर्ति तब जब कोकिल ने गाया !

सखी री नव वसन्त आया !


किरण


शनिवार, 14 जनवरी 2012

वसन्त का भोर


आज अपनी माँ की काव्य मंजूषा से एक बहुत ही खूबसूरत रचना आपके लिये लेकर लाई हूँ ! इस रचना में देश के तत्कालीन कर्णधारों के प्रति उनका यह भोला विश्वास आम जनता की आशाओं का प्रतिनिधित्व करता है ! यह विश्वास कितना कायम रह सका और कितना टूटा यह तो सभी जानते हैं लेकिन इस रचना की सकारात्मकता अपने आप में अद्भुत है !
द्वार पर है वसन्त का भोर
जा रहा है पतझड़ मुख मोड़ ,
प्रगति के चरण बढ़ रहे हैं
अभावों की चिंता दो छोड़ !

रिक्त सब पात्र भरेंगे शीघ्र
रमा का फिर होगा साम्राज्य ,
दुखों की चादर होगी क्षीण
बढ़ेगा सुख सौरभ अविभाज्य !

काल की चाल बदल देगा
हमारा नया स्वर्ण इतिहास ,
लक्ष्य सारे ही होंगे पूर्ण
हृदय में है इतना उल्लास !

प्रमोदिनी ऊषा आयेगी
नित्य मंगल घट लेकर प्रात ,
खिलेंगे मुरझाये तब फूल
हँसेंगे कोमल तन जल जात !

साधना का फल शुभ होगा
मिलेगा जीवन को वरदान ,
हमारी मातृभूमि है स्वर्ग
न हो फिर क्यों इस पर अभिमान !

दक्ष भारत के कर्णाधार
शान्ति के दूत, दया के देव ,
त्याग की मूर्ति लिये स्फूर्ति
बताते पथ हमको स्वयमेव !

मिलेगी क्यों न हमें फिर विजय
न होगा क्यों चिंता से त्राण ,
अभावों का निश्चय है नाश
प्रफुल्लित होंगे तन-मन-प्राण !

श्रमिक नव चेतन पायेंगे
दलित त्यागेंगे भ्रम भय भूत ,
एकता होगी फिर अक्षय
विरोधों की छँट करके छूत !

ज्ञान का कोष लुटा देगा
विश्व का तब यह देश महान ,
सूर्य की प्रथम किरण के साथ
गगन में गूँजे गौरव गान !


किरण



गुरुवार, 5 जनवरी 2012

फूल बनूँ या धूल बनूँ

यह इच्छा है बहुत युगों से
फूल बनूँ या धूल बनूँ ,
तेरे किसी काम आऊँ मैं
अपना जीवन धन्य करूँ !

फूल बनूँ तो देवालय के
किसी वृक्ष से जा चिपटूँ ,
तेरे किसी भक्त द्वारा प्रिय
तेरे चरणों से लिपटूँ !

फूल नहीं तो धूल बनाना
जिस पर भक्त चलें तेरे ,
उनके पावन युगल चरण से
अंग पुनीत बनें मेरे !

किन्तु भाग्य के आगे किसका
वश चलता मेरे भगवन् ,
विधि विडम्बना से यदि मैं बन सकूँ
न पग की भी रज कण !

तो प्रभुवर पूरी करना यह
मेरे मन में बसी उमंग ,
करुणा करके मुझे बनाना
प्रेम सिंधु की तरल तरंग !


किरण