मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

स्वप्न के ये खिलौने

मुझे दे दिये स्वप्न के ये खिलौने
कहाँ तक सम्हालूँ, कहाँ पर सजाऊँ !

मुझे चाँदनी रात भाती नहीं है,
चमक तारकों की सुहाती नहीं है,
मुझे चाहिये स्नेह के दीप अनुपम
जिन्हें मैं जला कर जगत जगमगाऊँ !

यह बादल की रिमझिम मुझे छेड़ जाती,
यह बिजली दशा पर मेरी मुस्कुराती,
घटा मेरी आँखों में आकर छिपी है
जिसे चाहूँ जब मैं लुटाऊँ, बहाऊँ !

न आती मुझे प्रेम की लोरियाँ हैं,
न भाती प्रभाती मुझे त्याग की है,
मुझे चाहिये बेबसी के तराने
कि मैं ग़म के नग़मे बनाऊँ, सुनाऊँ !

वसंती पवन आज बौरा रहा है,
खिले फूल को चूम भौंरा रहा है,
जले दिल की दुनिया में उजड़ी बहारें
कहाँ पर बसाऊँ, कहाँ पर खिलाऊँ !

न मन्दिर, न मसजिद मुझे बरगलाये,
न मूरत किसी की मेरा मन लुभाये,
मुझे चाहिये एक तस्वीर ऐसी
कि जिस पर मिटूँ, ध्यान जिसका लगाऊँ !

नदी है या सागर न इसका पता है,
भँवर में पड़ी नाव तट लापता है,
मिले याद का एक सम्बल किसी का
कि जिसके सहारे उतर पार जाऊँ !

मुझे दे दिये स्वप्न के ये खिलौने
कहाँ तक सम्हालूँ, कहाँ पर सजाऊँ !

किरण

10 टिप्‍पणियां:

  1. एक बार फिर एक अदभुत रचना ... सुन्दर अभिव्यक्ति ..

    विकास पाण्डेय
    www.vicharokadarpan.blogspot.com

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  2. मुझे चाँदनी रात भाती नहीं है,
    चमक तारकों की सुहाती नहीं है,
    मुझे चाहिये स्नेह के दीप अनुपम
    जिन्हें मैं जला कर जगत जगमगाऊँ !
    In alfaazon ne mujhe meri ek rachna yaad dila dee...! Aapko chand alfaaz bhej doongi..! Aapke jaisee kshmata nahi hai lekin!

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  3. एक सार्थक रचना |सुंदर अभिब्यक्ति|
    आशा

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  4. जी ज़रूर क्षमा जी ! आपकी सराहना के लिये ह्र्दय से धन्यवाद ! आपकी रचना अवश्य पढना चाहूँगी ! मुझे प्रतीक्षा रहेगी !

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  5. bahut hi sundar....
    behtareen rachna...
    mere blog par is baar..
    वो लम्हें जो शायद हमें याद न हों......
    jaroor aayein...

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  6. साधना जी, सभी रचनाएँ बहुत सुंदर हैं. बहुत अच्छा लगा पढ़ कर.

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