हँस कर पूछ रहे हो परिचय
कैसे दूँ निज परिचय आज !
जीवित ही शव हूँ मैं प्रियतम
हूँ अवसादों का प्रिय साज़ !
लहराता है प्रति पल-पल पर
पीड़ाओं का उदधि अपार !
असफलता की चट्टानों से
टकराता है पारावार !
सुख की रेखा कभी न जिसने
देखी हो वह क्या जाने
कैसा सुख है कैसा दुख है
भेदभाव कब पहचाने !
संसृति के विस्तृत प्रांगण में
लेकर अभिलाषा आई
निष्ठुर जग पर अपने सब
अरमान लुटाने मैं आई !
आशाओं की सजा आरती
बढ़ी विश्व मंदिर की ओर
स्वार्थ अंध संसृति ने सब पर
मारा निर्दय वज्र कठोर !
टूट गयीं अभिलाषायें सब
बिखर गये सारे अरमान
फूट गए आशा के दीपक
हुआ निराशा तम घमसान !
उर में भीषण अग्नि दहकती
है आहों का भैरव राग
पिघल-पिघल प्रतिपल नयनों से
बह उठता कुचला अनुराग !
अभिशापों से उर प्रदेश में
हुआ वेदनाओं का राज
टूटे-फूटे राग निकलते
त्रस्त पड़ी वीणा से आज !
मत पूछो ऐ देव अरे
मेरे जीवन की करूण कथा
छेडो मत दुखते छालों को
बढ़ जाती है और व्यथा !
किरण
बहुत खूब, लाजबाब !
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा रचना प्रस्तुत की है माता जी की.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना है ...
जवाब देंहटाएंएक मार्मिक ह्रदय को छूती रचना |बहुतसुंदर
जवाब देंहटाएंआशा