गुरुवार, 18 मार्च 2010

परित्यक्ता

हँस रहा भगवान मुझ पर
भाग्य मेरा रो रहा है !

मानसर के विमल मुक्ता
लुट चुके हैं, शून्य सीपी,
और उर के मधुर कम्पन में
बसी है मूर्ति पी की !
पर जगत की निठुरता से
प्रेम सम्बल खो रहा है !
हँस रहा भगवान मुझ पर
भाग्य मेरा रो रहा है !

प्रिय बने मेरे, मुझे
अपनी बना कर के गये वे,
उछलते अरमान उर के
कुचल कर संग ले गये वे !
मैं तड़पती रह गयी
उर स्मृति को ढो रहा है !
हँस रहा भगवान मुझ पर
भाग्य मेरा रो रहा है !

आज इस सूने हृदय की
कल्पना भी मर चुकी है,
आज एकल मैं खड़ी हूँ
मेरी दुनिया जल चुकी है !
विश्व पथरीली धरा में
बीज सुख के बो रहा है !
हँस रहा भगवान मुझ पर
भाग्य मेरा रो रहा है !

वे रहें आबाद, सुख के
स्वप्न आयें जगमगायें
और उनके सुखद जीवन को
अधिक सुखमय बनायें !
बस कथामय ही अरे
यह शून्य जीवन हो रहा है !
हँस रहा भगवान मुझ पर
भाग्य मेरा रो रहा है !

किरण

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