तुम चाहो तो जग में ज्वाला सुलगा दो,
मैं स्वप्नों का संसार न मिटने दूँगी !
तुम विप्लव का संगीत सुनाने आये,
तुम पत्थर पर निज प्रीति लुटाने आये,
तुमने मुकुलित सुमनों का यौवन देखा,
तुमने उजड़े पादप का वैभव देखा !
तुम चाहे उपवन का सौरभ बिखरा दो,
मैं कलियों का अभिसार न मिटने दूँगी !
तुमने चंदा को ज्वालामय बतलाया,
तुमने तारों को हिमकण कह दिखलाया,
तुमने हलचल मय अंतरिक्ष को पाया,
तुमको पृथ्वी का सूनापन मन भाया !
तुम दीप गगन के चाहे भू पर ला दो,
मैं संध्या का श्रंगार न लुटने दूँगी !
पावस, गर्मी, पतझड़ भू के गौरव हैं,
धरती का इनसे ही यौवन अभिनव है,
समरसरंगी पर कभी न गुंजन छाया,
मधु ऋतु का वैभव कभी न कम्पन लाया !
तुम चाहे नन्दन वन की सुषमा ला दो,
मैं मधु ऋतु का सत्कार न करने दूँगी !
हिमगिरी ने रो-रो कर अरुणा बिखराई,
उसके नयनों की निधि करुणा बन छाई,
अब क्यों सागर उस पर अधिकार जताता,
क्यों सिन्धु प्रिया कह उसको जगत बुलाता !
तुम सागर को ही खींच यहाँ ले आओ,
मैं सरिता की जलधार न बढ़ने दूँगी !
तुम रोज़ी रोटी को यूँ ही चिल्लाते,
तुम अंतरतम के घाव व्यर्थ दिखलाते,
क्या पूँजी का यह मणिधर तुम्हें सुनेगा ?
श्रम का सम्बल काँटों का पंथ मिलेगा ?
तुम पूँजीपतियों के वैभव को आँको,
मैं भूखों की मुस्कान न मिटने दूँगी !
किरण
तुम रोज़ी रोटी को यूँ ही चिल्लाते,
जवाब देंहटाएंतुम अंतरतम के घाव व्यर्थ दिखलाते,
क्या पूँजी का यह मणिधर तुम्हें सुनेगा ?
LAJWAAB PANKTIYA,,,,,,,,,,,,,
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंएक सार्थक कविता |सुंदर भाव |
जवाब देंहटाएंआशा
आपकी संवेदना पहली बार अनुभव कर रहा हूं.
जवाब देंहटाएंभावपक्ष का जवाब नहीं, और तीक्ष्णता भी भरपूर.
पहली बार आया हूँ इस गली
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा
आपके ज़ज्बात पड़कर
कुछ अपना सा लगा
यूँही पिरोते रहिये अपने दिले राज़
अन्दर-बाहर अपने जैसा भी लगा
कभी अजनबी सी, कभी जानी पहचानी सी, जिंदगी रोज मिलती है क़तरा-क़तरा…
http://qatraqatra.yatishjain.com/
कल 20/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
बहुत सुन्दर संकल्प....
जवाब देंहटाएंकिरण जी को सदर नमन...
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंपावन संकल्प!
जवाब देंहटाएंसादर!