प्राण न क्या तुम तक पहुँचेगी
व्याकुल उर की करूण पुकार,
और न क्या मैं फिर पाउंगी
अपना लुटा हुआ संसार ?
प्रात पवन ऊषा के आँचल से
आती कुछ ले संदेश ,
और कल्पना पगली चल पड़ती
अपने प्रियतम के देश !
किन्तु भटक कर स्वयम्
भावना में खो जाती है पगली ,
और ह्रदय में छा जाती है
घोर निराशा की बदली !
सांध्य सुन्दरी लाज भरी
कह जाती कानों में आकर ,
उठ तेरे वे प्रियतम आये
जिन्हें बुलाती गानों में !
चौंक देखती किन्तु न कोई
आता, यह था केवल भ्रम ,
कैसे आज लौट आयेंगे
मेरे परदेसी प्रियतम !
मै बन करके श्याम घटा
प्रिय चंद्र छिपा लूँ अपने में ,
भाग्य तारिका चमक पड़े
यदि दर्शन पाऊँ सपने में !
किन्तु असंभव है यह मुझको
स्वप्न स्वप्न बन जाएगा ,
मेरे रूठे जीवनधन को
कौन मना कर लायेगा !
मुझे दीखता पंथ एक ही
प्रियतम तुम्हें भुला दूँ मैं ,
तेरी स्मृति की वेदी पर
अपनी भेंट चढ़ा दूँ मैं !
जीवन की पगडंडी तेरी
कुसुमों से कोमलतर हो ,
बिछें राह में कंटक मेरे
पैर बढ़ाना दुस्तर हो !
दीपमालिका जगमग जगमग
तेरे प्रांगण में चमकें ,
पीड़ा की ज्वाला में मेरा
जला हुआ यह उर दमके !
लुटी भावना की बस्ती में
यह चिनगारी चमक पड़े ,
भस्मसात अरमानों पर
झर-झर कर आँसू बरस पड़े !
किरण
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंलुटी भावना की बस्ती में
जवाब देंहटाएंयह चिनगारी चमक पड़े ,
भस्मसात अरमानों पर
झर-झर कर आँसू बरस पड़े !
खासकर इन पंक्तियों ने रचना को एक अलग ही ऊँचाइयों पर पहुंचा दिया है शब्द नहीं हैं इनकी तारीफ के लिए मेरे पास...बहुत सुन्दर..
सुन्दर शब्दों के चयन के साथ विरह व्यथा को भी खूब लिखा है....एक उच्चस्तरीय रचना...
जवाब देंहटाएंक्या कहूँ, सिर्फ इतना ही कहूँगा बहुत ही बढ़िया पूरी तरह से डुबो लिया!
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारी और भावपूर्ण कविता,
जवाब देंहटाएंएस बी सक्सेना
विरह श्रंगार की अदभुद रचना |अति सुंदर |
जवाब देंहटाएंआशा