सोमवार, 29 मार्च 2010

मनोव्यथा

मन चलो एकांत में
सुख शान्ति से जीवन बिताने,
दु:ख कुछ जग का भुलाने,
आग कुछ उर की बुझाने !

हँस रहा जग देख तुझको
रुक न पल भर भी दिवाने,
बस चला चल राह अपनी
इक नयी दुनिया बसाने !

शून्य में चल गगन को
कुछ दु:खमयी ताने सुनाने,
व्यंग से कुचले ह्रदय के
भाव कुछ उसको दिखाने !

छोड़ दे ये मित्र सारे
हो चुके जो अब बेगाने,
शून्य से कर मित्रता
नैराश्य को आशा बनाने !

भार तू जग को अरे
अब रह न यों उसको दुखाने,
छोड़ मिथ्या मोह को रे
तोड़ दे बंधन पुराने !

क्षितिज के उस पार जा छिप
बैठ कर आँसू बहा ले,
निठुर जग की ज्वाल से रे
यह दुखी जीवन बचा ले !

किरण

शनिवार, 27 मार्च 2010

 
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मेरा परिचय

हँस कर पूछ रहे हो परिचय
कैसे दूँ निज परिचय आज !
जीवित ही शव हूँ मैं प्रियतम
हूँ अवसादों का प्रिय साज़ !

लहराता है प्रति पल-पल पर
पीड़ाओं का उदधि अपार !
असफलता की चट्टानों से
टकराता है पारावार !

सुख की रेखा कभी न जिसने
देखी हो वह क्या जाने
कैसा सुख है कैसा दुख है
भेदभाव कब पहचाने !

संसृति के विस्तृत प्रांगण में
लेकर अभिलाषा आई
निष्ठुर जग पर अपने सब
अरमान लुटाने मैं आई !

आशाओं की सजा आरती
बढ़ी विश्व मंदिर की ओर
स्वार्थ अंध संसृति ने सब पर
मारा निर्दय वज्र कठोर !

टूट गयीं अभिलाषायें सब
बिखर गये सारे अरमान
फूट गए आशा के दीपक
हुआ निराशा तम घमसान !

उर में भीषण अग्नि दहकती
है आहों का भैरव राग
पिघल-पिघल प्रतिपल नयनों से
बह उठता कुचला अनुराग !

अभिशापों से उर प्रदेश में
हुआ वेदनाओं का राज
टूटे-फूटे राग निकलते
त्रस्त पड़ी वीणा से आज !

मत पूछो ऐ देव अरे
मेरे जीवन की करूण कथा
छेडो मत दुखते छालों को
बढ़ जाती है और व्यथा !


किरण

गुरुवार, 25 मार्च 2010

विरहिणी

प्राण न क्या तुम तक पहुँचेगी
व्याकुल उर की करूण पुकार,
और न क्या मैं फिर पाउंगी
अपना लुटा हुआ संसार ?

प्रात पवन ऊषा के आँचल से
आती कुछ ले संदेश ,
और कल्पना पगली चल पड़ती
अपने प्रियतम के देश !

किन्तु भटक कर स्वयम्
भावना में खो जाती है पगली ,
और ह्रदय में छा जाती है
घोर निराशा की बदली !

सांध्य सुन्दरी लाज भरी
कह जाती कानों में आकर ,
उठ तेरे वे प्रियतम आये
जिन्हें बुलाती गानों में !

चौंक देखती किन्तु न कोई
आता, यह था केवल भ्रम ,
कैसे आज लौट आयेंगे
मेरे परदेसी प्रियतम !

मै बन करके श्याम घटा
प्रिय चंद्र छिपा लूँ अपने में ,
भाग्य तारिका चमक पड़े
यदि दर्शन पाऊँ सपने में !

किन्तु असंभव है यह मुझको
स्वप्न स्वप्न बन जाएगा ,
मेरे रूठे जीवनधन को
कौन मना कर लायेगा !

मुझे दीखता पंथ एक ही
प्रियतम तुम्हें भुला दूँ मैं ,
तेरी स्मृति की वेदी पर
अपनी भेंट चढ़ा दूँ मैं !

जीवन की पगडंडी तेरी
कुसुमों से कोमलतर हो ,
बिछें राह में कंटक मेरे
पैर बढ़ाना दुस्तर हो !

दीपमालिका जगमग जगमग
तेरे प्रांगण में चमकें ,
पीड़ा की ज्वाला में मेरा
जला हुआ यह उर दमके !

लुटी भावना की बस्ती में
यह चिनगारी चमक पड़े ,
भस्मसात अरमानों पर
झर-झर कर आँसू बरस पड़े !


किरण

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

संकल्प

तुम चाहो तो जग में ज्वाला सुलगा दो,
मैं स्वप्नों का संसार न मिटने दूँगी !

तुम विप्लव का संगीत सुनाने आये,
तुम पत्थर पर निज प्रीति लुटाने आये,
तुमने मुकुलित सुमनों का यौवन देखा,
तुमने उजड़े पादप का वैभव देखा !
तुम चाहे उपवन का सौरभ बिखरा दो,
मैं कलियों का अभिसार न मिटने दूँगी !

तुमने चंदा को ज्वालामय बतलाया,
तुमने तारों को हिमकण कह दिखलाया,
तुमने हलचल मय अंतरिक्ष को पाया,
तुमको पृथ्वी का सूनापन मन भाया !
तुम दीप गगन के चाहे भू पर ला दो,
मैं संध्या का श्रंगार न लुटने दूँगी !

पावस, गर्मी, पतझड़ भू के गौरव हैं,
धरती का इनसे ही यौवन अभिनव है,
समरसरंगी पर कभी न गुंजन छाया,
मधु ऋतु का वैभव कभी न कम्पन लाया !
तुम चाहे नन्दन वन की सुषमा ला दो,
मैं मधु ऋतु का सत्कार न करने दूँगी !

हिमगिरी ने रो-रो कर अरुणा बिखराई,
उसके नयनों की निधि करुणा बन छाई,
अब क्यों सागर उस पर अधिकार जताता,
क्यों सिन्धु प्रिया कह उसको जगत बुलाता !
तुम सागर को ही खींच यहाँ ले आओ,
मैं सरिता की जलधार न बढ़ने दूँगी !

तुम रोज़ी रोटी को यूँ ही चिल्लाते,
तुम अंतरतम के घाव व्यर्थ दिखलाते,
क्या पूँजी का यह मणिधर तुम्हें सुनेगा ?
श्रम का सम्बल काँटों का पंथ मिलेगा ?
तुम पूँजीपतियों के वैभव को आँको,
मैं भूखों की मुस्कान न मिटने दूँगी !

किरण

गुरुवार, 18 मार्च 2010

परित्यक्ता

हँस रहा भगवान मुझ पर
भाग्य मेरा रो रहा है !

मानसर के विमल मुक्ता
लुट चुके हैं, शून्य सीपी,
और उर के मधुर कम्पन में
बसी है मूर्ति पी की !
पर जगत की निठुरता से
प्रेम सम्बल खो रहा है !
हँस रहा भगवान मुझ पर
भाग्य मेरा रो रहा है !

प्रिय बने मेरे, मुझे
अपनी बना कर के गये वे,
उछलते अरमान उर के
कुचल कर संग ले गये वे !
मैं तड़पती रह गयी
उर स्मृति को ढो रहा है !
हँस रहा भगवान मुझ पर
भाग्य मेरा रो रहा है !

आज इस सूने हृदय की
कल्पना भी मर चुकी है,
आज एकल मैं खड़ी हूँ
मेरी दुनिया जल चुकी है !
विश्व पथरीली धरा में
बीज सुख के बो रहा है !
हँस रहा भगवान मुझ पर
भाग्य मेरा रो रहा है !

वे रहें आबाद, सुख के
स्वप्न आयें जगमगायें
और उनके सुखद जीवन को
अधिक सुखमय बनायें !
बस कथामय ही अरे
यह शून्य जीवन हो रहा है !
हँस रहा भगवान मुझ पर
भाग्य मेरा रो रहा है !

किरण

बुधवार, 17 मार्च 2010

उलझा जीवन

मुझे छोड़ दो जीवन साथी
तुम अपने पथ पर बढ़ जाओ,
मेरी उर वीणा मत छेड़ो
गा सकते हो यदि तुम, गाओ !
हँस न सकूँगी मैं, पाली है
अंतर में पीड़ा क्षण-क्षण,
फूट उठेंगे दुखते छाले
छेड़ इन्हें मत और दुखाओ !
मेरी उर वीणा मत छेड़ो,
गा सकते हो यदि तुम, गाओ !

सखे कहाँ तक इस संसृति में
मैं पत्थर बन कर विचरूँगी,
आशा और निराशा की
कैसे कब तक मनुहार करूँगी !
मिटा चुकी सारे सुख सपने
अब न किसी का ध्यान भी आता !
मेरे इस पागलपन के संग
सखे न तुम पागल बन जाओ,
मेरी उर वीणा मत छेड़ो
गा सकते हो यदि तुम, गाओ !

मैं हूँ शून्य दीप वह जिसका
स्नेह जल चुका तिल-तिल करके,
मैं वह सुमन लुटा कर सौरभ
बिखर चुका जो कण-कण बन के
मैं वह पात्र बिखर कर जिसका
जीवन शून्य बना जाता है,
मेरे इस उलझे जीवन की
लड़ियाँ साथी मत सुलझाओ !
मेरी उर वीणा मत छेड़ो
गा सकते हो यदि तुम, गाओ !

किरण

मंगलवार, 16 मार्च 2010

गान न छीनो

मुझसे मेरे गान न छीनो !
जीने की है साध न मुझको
मरने का अरमान न छीनो !
मुझसे मेरे गान न छीनो !

मैंने अपनी जीवन नौका
बीच भँवर में ला डाली है,
मैंने अपनी निर्बल आशा
दु:ख की झंझा में पाली है,
नयनों की करुणा से संचित
अधरों की मुस्कान न छीनो !
मुझसे मेरे गान न छीनो !

संघर्षण का निर्मम झोंका
मेरी मंज़िल ज्योतित करता,
सहज सरल विश्वास तुम्हारा
मेरी पीड़ा को कम करता,
दर्शन मत दो पर मंदिर की
देहरी की पहचान न छीनो !
मुझसे मेरे गान न छीनो !

वो मधुरिम दो बोल तुम्हारे
मेरे मानस में आ छाते,
रीते रीते नयनों में तब
रिमझिम सावन घन भर आते,
जीर्ण कुटी को झंकृत करती
उर वीणा की तान न छीनो !
मुझसे मेरे गान न छीनो !

विजन विश्व में एकाकी मन-
सुमन सूख कर बिखर चला है,
मृगमरीचिका से प्राणों का
भोला पंछी छला गया है,
निर्मम याद फेर लो अपनी
कसकों की झंकार न छीनो !
मुझसे मेरे गान न छीनो !

किरण

सोमवार, 15 मार्च 2010

स्वप्न को भी बाँध लूँगी !

स्वप्न को भी बाँध लूँगी
आज जागृति के प्रहर में !
चन्द्र को भी साध लूँगी
कल्पनाओं के मुकुर में !

साधना को इस प्रकृति के
उपकरण नव राग देंगे ,
जागरण के नवल पथ पर
श्रमिक को अनुराग देंगे ,
नव नियति के गीत गूँजेंगे
निराले चर अचर में !
स्वप्न को भी बाँध लूँगी
आज जागृति के प्रहर में !

जोड़ कर नभ के कुसुम मैं
अब प्रकृति पूजन करूँगी ,
त्याग श्रद्धा प्रेम के रख दीप
जग ज्योतित करूँगी ,
कोकिला की मधुर स्वर लहरी
भरूँगी निज अधर में !
स्वप्न को भी बाँध लूँगी
आज जागृति के प्रहर में !

है सुहानी मिलन बेला
देव अर्चन को तुम्हारे ,
अमिय कण संचित करूँगी
शांत सुरसरि के किनारे ,
अब नया जीवन भरूँगी
गगन गंगा की लहर में !
स्वप्न को भी बाँध लूँगी
आज जागृति के प्रहर में !

किरण

रविवार, 14 मार्च 2010

मैं ज्योति जगाने आती हूँ !

तुम जीवन दीप बुझा दो
मैं शमशान जगाने आती हूँ !

तुम गीत क्रांति के गाकर
विद्रोही करते मानव को,
तुम सुना काव्य विप्लवकारी
चेताते सोये दानव को,
तुम दावानल सुलगा दो
मैं जल कण बरसाने आती हूँ !

तुम नये सृजन के स्वप्न दिखा
भोले जन जीवन ठगते हो,
तुम नव जागृति कह भूखों के
मुख से ले रोटी भगते हो,
तुम हाहाकार मचा दो
मैं करुणा बिखराने आती हूँ !

तुम मधु ऋतु में यों जा खोये
आगत का ध्यान नहीं लाये
क्या जाने कब इस धरती पर
भीषण निदाध आकर छाये,
तुम पतझड़ ला फैला दो
मैं भूतल सरसाने आती हूँ !

यह शरद प्रभा आ क्षण भर को
जीवन का सत्य भुलाती है,
चिर शाश्वत तम की है छाया
छल के पट में बिलमाती है,
तुम अमाँ रात्रि को छा दो
मैं चिर ज्योति जगाने आती हूँ !

किरण

शनिवार, 13 मार्च 2010

अंत और अनंत

जीवन के मृदु क्षण मैं साथी
कैसे जाऊँ भूल !
तुम अनंत मैं अंत
चिरंतन है यह सुन्दर मेल ,
एक दूसरे पर अवलम्बित
है जीवन का खेल !
काटूँगी वियोग की घड़ियाँ
स्मृति झूला झूल !
जीवन के मृदु क्षण मैं साथी
कैसे जाऊँ भूल !

दो दिन को आता पतझड़ में
मंजुल मधुर वसंत,
कलियाँ खिल-खिल सुरभित करतीं
नित प्रति दिशा दिगंत !
कसक हृदय में सहसा
पड़ते तब ‘मृदु क्षण’ बन शूल !
जीवन के मृदु क्षण मैं साथी
कैसे जाऊँ भूल !

मोह न है कुछ इस जीवन का
और न ही कुछ लोभ,
ढूँढ रहा है पथ, यह पागल
प्राण ह्र्दय भर क्षोभ !
जहाँ शांति सागर बहता है
सुखमय जिसका कूल !
जीवन के मृदु क्षण मैं साथी
कैसे जाऊँ भूल !

किरण

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

वेदना के गीत

वेदना के राग गाने को मिले स्वर साधना के ,
गीत तेरी वन्दना के मीत कैसे गा सकूंगी !

यामिनी ने फूल की सेजें बिछाईं
पा उपेक्षा चाँद की मुरझा गयी हैं ,
चाँदनी ने हर्ष की मणियाँ लुटाईं
ओस बन सारी धरा पर छा गयी हैं !
इस अमावस की अंधेरी रात में ओ रे अपरिचित
पंथ तेरे द्वार आने का कहाँ से पा सकूँगी !
गीत कैसे गा सकूँगी !

कामना की अनखिली कलियाँ लुटा कर
विरस पतझड़ में अकेली मैं खड़ी हूँ ,
देख कर विश्वास का मृगजल सुहाना
अधर सूखे तृप्त करने को अड़ी हूँ !
ले गयी हैं छीन कर मुस्कान पौधों की बहारें
फूल तेरी अर्चना को मैं कहाँ से पा सकूँगी !
गीत कैसे गा सकूँगी !

किरण

गुरुवार, 11 मार्च 2010

विश्व देव वंदन

'उन्मना' का यह प्रथम पुष्प प्रिय पाठकों को समर्पित है ! 'उन्मना' में सभी रचनायें मेरी माँ श्रीमती ज्ञानवती सक्सैना 'किरण' द्वारा रचित हैं ! इन्हें आप तक पहुँचाने का मेरा यह विनम्र प्रयास है !

जो विश्व देव मैं तुम्हें रिझाने पाऊँ ,
जो जगतपते मैं तुम्हें जगाने पाऊँ !

तो ताल तरंगिणि से जल कण चुन-चुन कर
अपने नयनों की घटिकाओं में भर कर
ओ विष्णु देव तव चरण धुलाने आऊँ !
जो विश्व देव मैं तुम्हें जगाने पाऊँ !

बोझिल बादल की मैं गरिमा ले आऊँ
सूने अंतर के अम्बर में भर लाऊँ
ओ विश्वम्भर जी भर तुझको नहलाऊँ !
जो विश्व देव मैं तुम्हें जगाने पाऊँ !

सुरभित कुसुमों का मैं पराग ले आऊँ
कोमल कलिका की मैं सुवास भर लाऊँ
तेरे मन्दिर के प्रांगण में बिखराऊँ !
जो विश्व देव मैं तुम्हें जगाने पाऊँ !

मैं हरिताम्बर ले आऊँ प्रकृति नटी का
दूँ बाल चन्द्र का मस्तक पर शुभ टीका
तेरी प्रतिमा को नित्य नवीन सजाऊँ !
जो विश्व देव मैं तुम्हें जगाने पाऊँ !

लाऊँ चुन-चुन कर मधुर फलों की डाली
तेरे भोजन को जग उपवन के माली
मैं भुवन भास्कर का दीपक ले आऊँ !
जो विश्व देव मैं तुम्हें जगाने पाऊँ !

अपने गीतों में भर कोकिल का मृदु स्वर
मैं नित्य सुनाऊँ राग रागिनी गाकर
हा देव ! किंतु मैं शक्ति कहाँ से पाऊँ !
जो विश्व देव मैं तुम्हें जगाने पाऊँ !

मैं तुच्छ मनुज तुम हो महान जगदीश्वर
कैसे चरणों की धूल चढ़े मस्तक पर
केवल आकुल उर अंतर तुम्हें दिखाऊँ !
जो विश्व देव मैं तुम्हें जगाने पाऊँ !

लाऊँ भर झोली अश्रुहार दुखियों के
व्याकुल आहें, करुणोदगार दुखियों के
दे दो साहस ऐ देव भेंट कर जाऊँ !
जो विश्व देव मैं तुम्हें रिझाने पाऊँ !

किरण

श्रीमती ज्ञानवती सक्सैना ‘किरण’ : जीवन परिचय

सुधी पाठकों,
अपनी माँ, श्रीमती ज्ञानवती सक्सैना ‘किरण’, की रचनाओं को आप तक पहुँचाने में हम दोनों बहनों को जिस अपार आनन्द की अनुभूति हो रही है वह वर्णनातीत है ! उनकी संघर्षमय सृजनशीलता, अद्भुत लगन तथा अदम्य इच्छाशक्ति को हमारी यह सविनय श्रद्धांजलि है ! जिन विषम परिस्थितियों और परिवेश में इन कविताओं का सृजन हुआ होगा इसके लिये यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि यह कार्य किसी आसाधारण व्यक्तित्व के हाथों ही सम्पन्न हुआ होगा ! माँ की इस लेखन यात्रा में हम लोग बचपन से ही उनके सहयात्री रहे हैं ! आइये संक्षेप में उनकी जीवन यात्रा के कुछ पड़ावों पर ठहर कर उन संदर्भों पर दृष्टिपात कर लें जिन्होंने निश्चित रूप से उनकी रचनाशीलता को प्रभावित किया होगा !
माँ का जन्म 14 अगस्त 1917 को उदयपुर के सम्मानित कायस्थ परिवार में हुआ ! नानाजी, श्री ज्वालाप्रसादजी सक्सैना, उदयपुर दरबार में राजस्व विभाग में महत्वपूर्ण पद पर आसीन थे एवम तत्कालीन महाराज के अत्यंत घनिष्ठ और विश्वस्त सहायकों में उनका नाम भी प्रमुख रूप से आदर के साथ लिया जाता है ! लेकिन सुख-सुविधा सम्पन्न यह बचपन बहुत अल्पकाल के लिये ही माँ को सुख दे पाया ! मात्र 6 वर्ष की अल्पायु में ही क्रूर नियति ने माँ के सिर से नानाजी का ममता भरा संरक्षण छीन लिया और यहीं से संघर्षों का जो सिलसिला आरम्भ हुआ वह आजीवन अनवरत रूप से चलता ही रहा !
माँ का जन्म जिस युग और परिवेश में हुआ उस युग में महिलाओं को सख्त नियंत्रण और पर्दे में रहना पड़ता था ! घर की चारदीवारी के बाहर की दुनिया उनके लिये नितांत अनजानी हुआ करती थी ! लड़कियों को लड़कों की तुलना में हीन जीवन जीने के लिये विवश होना पड़ता था ! उनके लिये शिक्षा के बहुत सीमित अवसर हुआ करते थे और प्राय: घरेलू काम-काज जैसे पाक कला, कढ़ाई बुनाई, चित्रकारी, सीना पिरोना, दरी कालीन आसन बनाना आदि में दक्षता प्राप्त करना ही उनके लिये आवश्यक समझा जाता था ! माँ अत्यंत कुशाग्र बुद्धि की एक अति सम्वेदनशील महिला थीं ! उन्होंने अपने घर परिवार की किसी भी मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं किया लेकिन अपने बौद्धिक विकास को भी कभी अवरुद्ध नहीं होने दिया ! कन्या पाठशाला में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्हें स्कूल जाने के अवसर नहीं मिले जबकि हमारे सभी मामा उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे थे ! हमारे सबसे बड़े मामाजी, श्री सूरज प्रसाद जी सक्सैना, कोटा के एक ख्याति प्राप्त चिकित्सक और सर्जन थे ! माँ ने प्राइवेट विशारद पास किया और इसके उपरांत सन् 1936 में उनका विवाह पिताजी, श्री बृजभूषण लाल जी सक्सैना, के साथ हो गया ! माँ ने जहाँ घरेलू काम-काज में दक्षता प्राप्त की थी वहीं निजी स्तर पर स्वाध्याय कर उन्होंने अपनी रचनाशीलता को भी निखारने का प्रयत्न किया था ! वे बहुत अच्छी कवितायें, कहानियाँ और लेख इत्यादि लिखा करती थीं ! लेकिन उनकी यह प्रतिभा विवाह से पूर्व केवल उन्हीं तक सीमित रही !
विवाहोपरांत माँ ने बुन्देलखण्ड के वैभवशाली ज़मींदार खानदान में कदम रखा ! हमारे बाबा, श्री देवलाल जी सक्सैना, बड़ी आन बान शान वाले रौबीले व्यक्तित्व के स्वामी थे ! ससुराल में मायके से भी अधिक रूढिवादी वातावरण था ! ऐसे रूढ़िवादी वातावरण में, जहाँ लड़कियों पर ही बहुत रोक टोक और वर्जनायें लादी जाती थीं, वहाँ बहुओं पर तो उनसे भी अधिक प्रतिबन्ध लगाये जाते थे ! पर्दा इतना सख्त कि हाथ पैरों की उंगलियाँ भी दिखाई नहीं देनी चाहिये ! बुन्देलखण्ड की भीषण गर्मी और उसमें भी सिर से पाँव तक कपडों की कई कई पर्तों में लिपटे होने के बावजूद ऊपर से चादर भी ओढ़ना अनिवार्य होता था ! घर से बाहर ड्योढ़ी तक अगर जाना हो तो दोनों ओर पर्दे की कनातें तान दी जाती थीं जिनके बीच से होकर दादीजी, माँ व घर की अन्य महिलायें दरवाज़े पर रखी पालकी में जा बैठतीं और कहार उसे उठा कर गंतव्य तक पहुँचा देते !
पिताजी, श्री बृजभूषण लाल जी सक्सैना, सरकारी अफसर थे और अपनी नौकरी के कारण उन्हें नये-नये स्थानों पर स्थानांतरित होकर जाना पड़ता था ! ईश्वर का धन्यवाद कि उन्होंने माँ के अन्दर छिपी प्रतिभा को पहचाना ! ससुराल के रूढ़िवादी वातावरण से पिताजी ने उन्हें बाहर निकाला और अपनी प्रतिभा को निखारने के लिये उन्हें समुचित अवसर प्रदान किये ! माँ ने गृहणी के दायित्वों को कुशलता से निभाते हुए अपनी शिक्षा के प्रति भी जागरूकता का परिचय दिया ! उन्होंने विदुषी, साहित्यलंकार, साहित्यरत्न तथा फिर बी. ए., एम. ए. तथा एल. एल. बी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं ! पढ़ने का शौक इतना कि होमियोपैथिक चिकित्सा में भी डॉक्टर की उपाधि प्राप्त कर ली ! शादी से पूर्व मात्र विशारद पास एक अति सामान्य शिक्षित महिला विवाहोपरांत कुछ ही वर्षों में ‘ डॉक्टर ज्ञानवती सक्सैना ‘किरण’ साहित्यलंकार, साहित्यरत्न, एम. ए., एल. एल. बी.’ कहलाई जाने लगी ! इस सबके साथ ही उनका कवितायें, कहानियाँ इत्यादि लिखने का क्रम भी लगातार चलता रहा ! लेखन का शौक उन्हें बचपन से ही था ! इलाहाबाद में अल्पावधि के लिये प्रयाग महिला विद्यापीठ में अध्ययन के दौरान श्रीमती महादेवी वर्मा तथा श्री हरिवंश राय बच्चन व अन्य मूर्धन्य साहित्यकारों के सान्निध्य में प्रोत्साहन पा साहित्य सृजन का यह अंकुर और पुष्पित पल्लवित हो गया ! इन्दौर भोपाल रेडियो स्टेशन से अक्सर उनकी कवितायें व कहानियां प्रसारित और पुरस्कृत होती रहती थीं ! उन दिनों मंच पर कवि सम्मेलनों के आयोजनों का बहुत प्रचलन था ! और माँ अक्सर निमंत्रण पाकर इन कवि सम्मेलनों में भाग लिया करती थीं ! प्राय: हम बच्चे भी ऐसे अवसरों पर उनके साथ जाया करते थे और नामचीन साहित्यकारों के साथ मंच पर माँ को बैठा देख कर बड़े गर्व का अनुभव करते थे ! मालवा क्षेत्र के साहित्यकारों में माँ का नाम काफी प्रसिद्ध था ! ‘किरण’ माँ का उपनाम था ! उनकी रचनायें प्राय: सभी स्तरीय साहित्यिक पत्रिकाओं में छपा करती थीं !
पिताजी अतिरिक्त जिला एवम सत्र न्यायाधीश के गम्भीर पद पर आसीन थे ! वे अपने कार्य में अति व्यस्त रहते थे! माँ को समाज सेवा का भी बड़ा शौक था ! पिताजी के कार्यकाल में वे अक्सर महिला मण्डलों की अध्यक्ष हुआ करती थीं और समाज सेवा के अनेक कार्यक्रमों का संचालन वे अपनी संस्था के माध्यम से किया करती थीं ! विशिष्ट अवसरों पर वे सांस्कृतिक संध्याओं का आयोजन भी किया करती थीं जिनमें प्राय: साहित्यिक नाटकों का मंचन, कवि गोष्ठियाँ तथा गीत संगीत के अनेकों रोचक कार्यक्रम हुआ करते थे ! खरगोन में उन्होंने जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘ध्रुव स्वामिनी’ का इतना सफल निर्देशन और मंचन किया था कि वर्षों तक लोगों के मन में इस अभूतपूर्व नाटक की स्मृतियाँ संचित रही थीं !
समाज सेवा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और सक्रियता को देखते हुए 1978 में उन्हें तीन वर्ष के लिये मध्यप्रदेश की समाज कल्याण परिषद का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया ! इस अवधि में उनके तत्वावधान में परिषद ने कई कल्याणकारी व लोकोपयोगी योजनाओं को राज्य में लागू किया ! वे भारतीय जनता पार्टी की भी सक्रिय सदस्य थीं और 1975 में आपातकाल के दौरान कुछ समय के लिये जेल में भी रहीं ! समाज कल्याण बोर्ड के अध्यक्ष पद से निवृत होने के बाद उनकी नियुक्ति उनके गृह नगर उज्जैन में शपथ आयुक्त के पद पर हो गयी और अपने जीवन के शेष दिनों तक वे इसी पद पर कार्यरत रहीं !
विवाह के उपरांत हम तीनों भाई बहनों की नन्हीं-नन्हीं उँगलियाँ थाम गृहस्थी के सभी दायित्वों को सुचारु रूप से सम्हालते हुए और व्यावहारिक जीवन की संघर्षमय आपाधापी के बीच साहित्य सृजन की जिस डगर पर माँ ने कदम बढाये थे उस पर वह अथक निरंतर चलती ही रहीं ! लेकिन धीरे धीरे स्वास्थ्य उनका साथ छोड़ रहा था ! 4 नवम्बर 1986 को उन्होंने राह बदल चिर विश्राम के लिये स्वर्ग के मार्ग पर अपने कदम मोड़ लिये ! इस संसार में दैहिक यात्रा के साथ-साथ उनकी लेखन यात्रा को भी पूर्णविराम लग गया ! अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं को पुस्तक रूप में छपवाने की उत्कट इच्छा को वे कई कठिनाइयों और बाधाओं के कारण पूरा नहीं कर सकीं थीं ! उनकी इस इच्छा को पूरा करने का प्रयास हम बहनों ने किया है ! हम लोगों की शिक्षा-दीक्षा व जीवन में सफल प्रतिस्थापना के लिये उन्होंने कितने मूल्य चुकाये होंगे इसका अनुमान आज हम लोगों को कदम-कदम पर होता है ! यह अवश्य है कि अपने जीवनकाल में उन्हें अपनी कई अभिलाषाओं की बलि चढ़ानी पड़ी होगी लेकिन जो संस्कार शिक्षा और मूल्य उन्होंने हमें दिये वे अनमोल हैं और आज अपने जीवन में हम स्वयम को जिस स्थान पर पाते हैं उसमें प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों ही रूप से उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है और हम इसके लिये सदैव उनके ऋणी रहेंगे !
इन कविताओं के संकलन में कुछ कठिनाइयों का सामना भी हमें करना पड़ा है ! धुंधली लिखावट के कारण अपठनीय तथा कहीं-कहीं अधूरी छूटी पंक्तियों को पूरा करने के लिये हमने अपनी कल्पना का सहारा लेने का दुस्साहस भी किया है लेकिन इस बात का पूरा ध्यान रखने की चेष्टा की है कि कविता के मर्म को चोट ना पहुँचे और उसका केन्द्रीय भाव आहत ना हो ! गुणीजनों को यदि इसमें हमारी कोई त्रुटि दिखाई दे तो हम इसके लिये हृदय से क्षमा याचना करते हैं ! इन रचनाओं को आपकी सराहना और प्यार मिलेगा इसी विश्वास के साथ इन्हें प्रकाशित करने का बीड़ा हमने उठाया है ! यही माँ की सृजनशीलता के प्रति हमारी विनम्र श्रद्धांजलि है !
आप सभी के अनुग्रह की अपेक्षा के साथ ,
विनीत
आशा
साधना