साँझ घिर आई प्रवासी !
तुम न आये, छा गयी जग पर न जाने कब उदासी !
साँझ घिर आई प्रवासी !
ह्रदय में तूफ़ान मचले, नयन में वारिद घनेरे,
बढ़ गए पश्चिम दिशा में निविड़ तम के व्यस्त घेरे,
तरसती है सिंधु तट पर मीन भी व्याकुल पियासी !
साँझ घिर आई प्रवासी !
चंद्रिका की सेज के बिखरे गगन में पुष्प सारे,
निशा विरहाकुल बिलखती गगन गंगा के किनारे,
चन्द्र की आकृति जलाती लाल लोहे के तवा सी !
साँझ घिर आई प्रवासी !
मनुज, पशु, पक्षी सभी अपने घरों में शांत सोते,
स्नेह सुख में लींन, निज श्रम बिंदु परिजन बीच खोते,
एक तुम ही भूल बैठे पंथ घर का दूर वासी !
साँझ घिर आई प्रवासी !
किरण
लाजवाब प्रस्तुती ......
जवाब देंहटाएंसुंदर और सशक्त रचना ।
जवाब देंहटाएंसंग्रहणीय प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंमनुज, पशु, पक्षी सभी अपने घरों में शांत सोते,
जवाब देंहटाएंस्नेह सुख में लींन, निज श्रम बिंदु परिजन बीच खोते,
एक तुम ही भूल बैठे पंथ घर का दूर वासी !
साँझ घिर आई प्रवासी !
बहुत खूब .........अच्छी और सुन्दर रचना
bahut hi sundar abhivyakti
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भाव्।
जवाब देंहटाएंएक भाव प्रवण रचना |बहुत सुंदर शब्द चयन
जवाब देंहटाएंआशा
प्रवासी के लिए गहरी भावनाएं लिए एक सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंBahut hi umda bhaav liye rachna hai ... anupam ...
जवाब देंहटाएंएक तुम ही भूल बैठे पंथ घर का दूर वासी !
जवाब देंहटाएंसाँझ घिर आई प्रवासी !
बहुत सुन्दर
साधना बहन .
जवाब देंहटाएंअति प्रशंसनीय ।
आप सभी का ह्रदय से धन्यवाद !
जवाब देंहटाएं