मंगलवार, 11 मई 2010

साँझ घिर आई प्रवासी !

साँझ घिर आई प्रवासी !
तुम न आये, छा गयी जग पर न जाने कब उदासी !
साँझ घिर आई प्रवासी !

ह्रदय में तूफ़ान मचले, नयन में वारिद घनेरे,
बढ़ गए पश्चिम दिशा में निविड़ तम के व्यस्त घेरे,
तरसती है सिंधु तट पर मीन भी व्याकुल पियासी !
साँझ घिर आई प्रवासी !

चंद्रिका की सेज के बिखरे गगन में पुष्प सारे,
निशा विरहाकुल बिलखती गगन गंगा के किनारे,
चन्द्र की आकृति जलाती लाल लोहे के तवा सी !
साँझ घिर आई प्रवासी !

मनुज, पशु, पक्षी सभी अपने घरों में शांत सोते,
स्नेह सुख में लींन, निज श्रम बिंदु परिजन बीच खोते,
एक तुम ही भूल बैठे पंथ घर का दूर वासी !
साँझ घिर आई प्रवासी !

किरण

12 टिप्‍पणियां:

  1. लाजवाब प्रस्तुती ......

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  2. मनुज, पशु, पक्षी सभी अपने घरों में शांत सोते,
    स्नेह सुख में लींन, निज श्रम बिंदु परिजन बीच खोते,
    एक तुम ही भूल बैठे पंथ घर का दूर वासी !
    साँझ घिर आई प्रवासी !

    बहुत खूब .........अच्छी और सुन्दर रचना

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  3. एक भाव प्रवण रचना |बहुत सुंदर शब्द चयन
    आशा

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  4. प्रवासी के लिए गहरी भावनाएं लिए एक सुन्दर रचना.

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  5. एक तुम ही भूल बैठे पंथ घर का दूर वासी !
    साँझ घिर आई प्रवासी !

    बहुत सुन्दर

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  6. आप सभी का ह्रदय से धन्यवाद !

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