रविवार, 9 मई 2010

बासी फूल

मैं पतझड़ का बासी फूल !
चढ़ न सकूँगी देव मूर्ति पर, मिटना होगा बन कर धूल !
मैं पतझड़ का बासी फूल !

प्रिय के युगल चरण साकार, सह न सकेंगे मेरा भार,
सौरभ हीन शून्य जीवन मम, इसे सजाना है बेकार,
कान्त कल्पना प्रिय चरणों पर चढ़ने की, थी मेरी भूल !
मैं पतझड़ का बासी फूल !

शून्य सदा मेरा उर अंतर, शून्य मेघ, निर्मल है अम्बर,
गगन पंथ में चढ़ता ढलता शांत चन्द्र, उत्तप्त दिवाकर,
मेरी भाव लहरियों से टकराता उर सागर का कूल !
मैं पतझड़ का बासी फूल !

विस्मृति मुझे जगा कर जाती, स्मृति मुझे रुला कर जाती,
सुप्त दशा में जागृति का सुख सदा ध्यान में प्रिय के पाती,
जब स्थिर नयनों के झूले में प्रिय आकर जाते झूल !
मैं पतझड़ का बासी फूल !

किन्तु निराशा का आधार मेरे लिए सदा साकार,
आशा का छल मुझे दिखाता प्रियतम का मृगजल सा प्यार,
अपने को खोकर उनको ही पाना है, जीवन का मूल !
मैं पतझड़ का बासी फूल !

किरण

5 टिप्‍पणियां:

  1. अपने को खोकर उनको ही पाना है, जीवन का मूल !
    मैं पतझड़ का बासी फूल !

    great expressions :)

    thanks :)

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  2. अपने को खोकर ही उसको पाना
    जीवन का मूल ...
    मगर
    कभी कभी बहुत थका देता है
    खुद को खोना
    तन और मन दोनों को ही ...!!
    मन को छू गयी कविता ...

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  3. "शून्य सदा मेरा मन अंतर -------"
    बहुत सुंदर भाव ,
    आशा

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  4. किन्तु निराशा का आधार मेरे लिए सदा साकार,
    आशा का छल मुझे दिखाता प्रियतम का मृगजल सा प्यार,
    अपने को खोकर उनको ही पाना है, जीवन का मूल !
    मैं पतझड़ का बासी फूल !
    Bahut khoob..har kisi ko kabhi na kabhi patjhadka basi phool banna hi padta hai..

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  5. तन और मन दोनों को ही ...!!
    ........मन को छू गयी कविता ..

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