शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

संसृति के भाव

संसृति के सब भाव मिटा कर
हो जीवन अभावमय आज,
विगत सुखों के स्वप्न मिटे
आगामी मृदु वैभव का साज !

भाग्य चक्र ने बना दिया जो
क्यों हो उससे क्षोभ सखे,
देख मधुर जीवन औरों का
क्यों हो उसका लोभ सखे !

खण्ड-खण्ड हो बिखर गये
यदि आशा के वे भव्य प्रसाद,
हो बिखरा नैराश्य कुटी में
जीवन का मृदुतम आल्हाद !

स्मृति सरिता इठलाती
कुटिया के प्रांगण में आये,
दिखा नवीन केलि क्रीडा
दुखिया मन को बहला जाये !

नयनों का निर्झर झर-झर कर
प्राणों में अपनत्व भरे,
निश्वासों का मलयानिल
जीवन वन में अमरत्व भरे !

विपदाओं के उमड़-घुमड़
जब घिर आयें बादल अनजान,
तड़ित वेग से चमक उठे तब
प्रिय अधरों की मृदु मुस्कान !

किरण

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

हृदय का ज्वार

व्यर्थ हृदय में ज्वार उमड़ता
व्यर्थ नयन भर-भर आते हैं,
पागल तुझको देख सिसकता
पत्थर दिल मुसका जाते हैं !

युग-युग की प्यासी यह संसृति
पिये करोड़ों आँसू बैठी,
तेरे इन मानस मुक्तों की
कीमत कौन लगा पाते हैं !

यदि अपने अंतरतम के
तू घाव नोंच कर रक्तिम कर ले,
अपने नन्हे से अंतर में
सब दुनिया की पीड़ा भर ले !

तेरे छाले फूट-फूट बह उठें
मर्म टीसें सह-सह कर,
पर जग को क्या परवा तेरी
तू चाहे जो कुछ भी कर ले !

यह जीवन तिल-तिल करके
जल जाएगा ओ पागल प्राणी,
चिता जला देगी इस तन को
रह जायेगी एक कहानी !

अरे कौन तेरी गाथा को
कहे सुनेगा कौन है तेरा,
इस निष्ठुर जग ने अब तक है
कब किसकी पीड़ा पहचानी !

तूने समझा जिन्हें फूल है
वे हैं तीक्ष्ण शूल अभिमानी,
स्वार्थपूर्ण संसार यहाँ पर
सब करते रहते मनमानी !

मान व्यर्थ है कौन मनाने
आएगा तेरा रूठा मन,
व्यर्थ हृदय का रक्त लुटाता
बना नयन निर्झर का पानी !

जग तो सोता शान्ति सेज पर
तू क्यों बिलख-बिलख कर रोता,
नयनों के सागर से स्मृतियों
के चित्र पटल क्यों धोता !

प्राणों की पीड़ा झर-झर कर
व्यर्थ लुटाती अपना जीवन,
हृदय कृषक क्यों निर्ममता की
धरती पर यह मुक्ता बोता !

सखे निर्ममों का यह मेला
यहाँ न स्वप्नों का कुछ मोल,
तेरी आहों, निश्वासों और
आँसू का है क्या कुछ तोल !

आओ क्षण भर इनके संग मिल
हम भी अपना साज बजायें,
यह क्षण भंगुर जीवन साथी
नहीं तनिक भी है अनमोल !


किरण

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

यह कोई भगवान नहीं है

निर्ममता की सतत सृष्टि से सूखे भावुकता के अंकुर,
मोह, राग,करुणा कोमलता साजों के उखड़े सारे स्वर,
साथी खोज रहे हो किस आशा से सुदृढ़ पतवारें,
भँवर-भँवर पर नाच रही है मानवता की नौका जर्जर !

तट हैं दूर, किनारे पंकिल, मंजिल की पहचान नहीं है,
पथ काँटों से भरे हुए हैं, सही दिशा का ज्ञान नहीं है,
कहाँ भटकते भोले राही, कौन तुम्हारा पथ दर्शक है,
यह तो पत्थर की प्रतिमा है, यह कोई भगवान नहीं है !

किरण

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

कवि से

सुना न कवि अब करुणा गान !
वितरित करता है कण-कण में अमर सत्य, वेदना महान्
कवि यह तेरा करुणा गान !

यदि संसृति के वज्र प्रहारों से तेरा उर क्षत-विक्षत है,
फिर भी मन की अस्थिरता क्या नहीं तुझे कुछ भी अवगत है ?
दर्द भरे स्वर से गा गाकर सुना रहे हो किसे कथा यह,
क्रूर कठिन पाषाणों को क्यों दिखा रहे हो व्यर्थ व्यथा यह ?
उर में आग, नयन में जीवन, भर अधरों में मृदु मुस्कान !
सुना रहे क्यों करुणा गान !

पा न सके यदि कृपा सिंधु का एक बिंदु तुम निष्ठुर जग से,
पर कवि मनु के अमर पुत्र क्या हट जाओगे आशा मग से ?
विचलित उर में भाव सजा कर वह प्रलयंकारी राग सुना दो,
व्यथित राष्ट्र के जीवन में फिर विप्लव की ज्वाला सुलगा दो !
परिवर्तित हो अश्रु पूर्ण नयनों में अब वीरत्व महान् !
सुना न कवि यह करुणा गान !

किरण

शनिवार, 16 अक्टूबर 2010

देव सुन कर क्या करोगे

देव सुन कर क्या करोगे दुखी जीवन की कहानी !

यह अभावों की लपट में जल चुका जो वह नगर है,
बेकसी ने जिसे घेरा, हाय यह वह भग्न घर है !
लुट चुका विश्वास जिसका, तड़पती आशा बिचारी,
नयन के श्रृंगार मुक्ता बन चुके अब नीर खारी !
यह न आँसू की लड़ी, है ज्वलित मानव की निशानी,
दग्ध अंतर की चिता पर झुलसती तृष्णा विरानी !

देव सुन कर क्या करोगे दुखी जीवन की कहानी !

खा चुका जो ठोकरें, अगणित सही हैं लांछनाएं,
पर न कर पाया सुफल कुछ भी रही जो वांछनाएं !
बढ़ रही प्रतिपल विरोधों की लपट नित ज्वाल बन कर,
मिट रहा वह जो कभी लाया यहाँ अमरत्व चुन कर !
मनुज को छलती रही है आदि से अभिलाष मानी,
लुट रही करुणा न पिघले पर कभी पाषाण प्राणी !

देव सुन कर क्या करोगे दुखी जीवन की कहानी !


किरण

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

साथी राग कौन सा गाऊँ !

साथी राग कौन सा गाऊँ !
बुझती प्रेम वर्तिका में अब कैसे जीवन ज्योति जगाऊँ !
साथी राग कौन सा गाऊँ !

चारों ओर देखती साथी अगम सिंधु दुख का लहराता,
पग-पग शान्ति निरादृत होती,यह जग निष्ठुरता अपनाता,
बोलो तो इस दुखिया मन को क्या कैसे कह कर समझाऊँ !
साथी राग कौन सा गाऊँ !

नित्य जलाती ह्रदय कुञ्ज को चिंता की ज्वाला तिल तिल कर,
जग अपनाता जिसे प्रेम से त्याग रहा उसको पागल उर,
इस उन्मत्त प्रकृति में कैसे बोलो तो प्रिय मैं मिल जाऊँ !
साथी राग कौन सा गाऊँ !

चाह रही हूँ मैं मुसकाना पर यह नैन उमड़ पड़ते हैं,
पुष्प झड़ें उससे पहले ये मोती मुग्ध बरस पड़ते हैं,
बोलो शान्ति देवि की कैसे साथी मैं पूजा कर पाऊँ !
साथी राग कौन सा गाऊँ !

मेरा कवि हँस रहा सखे पर हृदय लुटाता रक्त कटोरे,
चिर निंद्रा है एक ओर औ दूजी ओर प्रेम के डोरे,
कहो न साथी अरे कौन से पथ पर मैं निज पैर बढ़ाऊँ !
साथी राग कौन सा गाऊँ !

देख रहे सब सुख के सपने, मैं दु:खों का भार संजोये,
स्मृति के सागर में विस्मृत मुक्ताओं की माल पिरोये,
स्वागत को द्वारे पर आई, अब कैसे सब साज सजाऊँ !
साथी राग कौन सा गाऊँ !

किरण

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010

* क्या जग का उद्धार न होगा *

ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?

इस पतझड़ के से मौसम में

उपवन का श्रृंगार लुट गया,

लजवंती रजनी के कर से

आँचल का आधार छुट गया,

उमड़ी करुणा के मेघों से पृथ्वी का अभिसार न होगा ?

ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?

मुरझाये फूलों का यौवन

आज धूल में तड़प रहा है,

काँटों के संग रह जीवन में

कितना उसने कष्ट सहा है,

किन्तु देवता की प्रतिमा पर चढ़ने का अधिकार न होगा ?

ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?

उन्मादिनी हवा ने आकर

सूखे पत्तों को झकझोरा,

मर्मर कर धरिणी पर छाये

सुखद वृक्ष का आश्रय छोड़ा,

कुम्हलाई कलियों के उर में क्या जीवन का प्यार न होगा ?

ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?

ओ माली तेरी बगिया में

आ वसंत कब मुस्कायेगा,

कब कोकिल आग्रह के स्वर में

स्वागत गीत यहाँ गायेगा,

क्या तितली भौरों के जीवन में सुख का संचार न होगा ?

ओ निर्मम तव दमन चक्र से क्या जग का उद्धार न होगा ?


किरण

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

* देव सुन कर क्या करोगे *

देव सुन कर क्या करोगे दुखी जीवन की कहानी !

यह अभावों की लपट में जल चुका जो वह नगर है,

बेकसी ने जिसे घेरा, हाय यह वह भग्न घर है,

लुट चुका विश्वास जिसका, तड़पती आशा बेचारी,

नयन के श्रृंगार मुक्ता बन चुके अब नीर खारी !

खा चुका जो ठोकरें, अगणित सही हैं लांछनायें,

पर न कर पाया सुफल कुछ भी रहीं जो वांछनायें,

बढ़ रही प्रतिपल विरोधों की लपट नित ज्वाल बन कर,

मिट रहा वह जो कभी लाया यहाँ अमरत्व चुन कर !

मनुज को छलती रही है आदि से अभिलाष मानी,

लुट रही करुणा न पिघले पर कभी पाषाण प्राणी,

यह न आँसू की लड़ी है ज्वलित मानव की निशानी,

देव सुन कर क्या करोगे दुखी जीवन की कहानी !

किरण

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

* अमर बापू *

पाठकों से विनम्र निवेदन है कि इस कविता का रचनाकाल पचास के दशक का है ! वे इस तथ्य के साथ इस रचना का रसास्वादन करें ! यह श्रद्धांजलि मेरी माँ 'किरण' जी के द्वारा श्रद्धेय बापू को ! 

२ अक्टूबर पर विशिष्ट भेंट ! 

बापू तुमने बाग लगाया, खिले फूल मतवारे थे,

इन फूलों ने निज गौरव पर तन मन धन सब वारे थे !

बापू तुमने पंथ दिखाया, चले देश के लाल सुघर,

जिनकी धमक पैर की सुन कर महाकाल भी भागा डर !

बापू तुमने ज्योति जला दी देश प्रेम की मतवाली,

हँस कर जिस पर जान लुटा दी कोटि शलभ ने मतवाली !

बापू तुमने बीन बजाई मणिधर सोये जाग गए,

सुन फुंकार निराली जिनकी बैरी भी सब भाग गए !

बापू तुमने गीता गाई, फिर अर्जुन से चेते वीर,

हुआ देश आज़ाद, मिटी युग-युग की माँ के मन की पीर !

आ जाओ, ओ बापू, फिर से भारत तुम्हें बुलाता है,

नवजीवन संचार करो, यह मन की भीति भुलाता है !

अभी तुम्हारे जैसे त्यागी की भारत में कमी बड़ी,

आओ बापू, फिर से जोड़ो सत्य त्याग की सुघर कड़ी !

 

किरण