मंगलवार, 29 जून 2010

दो बूँद

मेरे प्राणों की पीड़ा दो भागों में बँट कर के,
बन कर आँसू छलक पड़ी है दो बूँदों में ढल के !

या आशा और निराशा के दो फल बन स्वयम् फले ये,
अपनी गाथा को कहने गालों पर ढुलक चले ये !

हैं ये करुणा के द्योतक या ज्वाला की चिन्गारी,
या जगती का जीवन है नयनों का पानी खारी !

दावा बन ह्रदय जलाया अब बन कर जल नयनों से,
छल छल कर कथा व्यथा की कह रहे मौन नयनों से !

ओ दृगजल के दो बिन्दू कुछ तो बतलाते जाओ,
क्या भेद भरा है तुममें यह तो समझाते जाओ !

इन प्राणों की पीड़ा को तुमने सहचरी बनाया,
जब जली व्यथा ज्वाला में तुमने निज अंक लगाया !

मेरी पीड़ा के सहचर या तो गाथा कह जाओ,
या संग में अपने ही तुम उसे बहा ले जाओ !

किरण

शनिवार, 26 जून 2010

स्वप्न किसके सच हुए हैं !

स्वप्न किसके सच हुए हैं !
रो न पागल क्या क्षणिक सुख से अपरिमित दुःख मुए हैं !
स्वप्न किसके सच हुए हैं !

भाव उर के बूँद बनने को मचल सहसा पड़े हैं,
नयन शाश्वत बरसने को मेघ बन करके अड़े हैं,
जल उठी है आग उर में आह के उठते धुएँ हैं !
स्वप्न किसके सच हुए हैं !

कौन अपना बन सका है एक क्षण में, एक पल में,
तृप्ति किसकी हो सकी है वारि निधि के क्षार जल में,
बँध सके क्या पींजरे में गगन के उड़ते सुए हैं !
स्वप्न किसके सच हुए हैं !

भग्न कुटिया भा सकी क्या भुला कर अट्टालिकायें,
स्नेह बिन दीपक भला क्या रह सके हैं जगमगाए,
एक नन्हीं बूँद भी क्या भर सकी सागर कुए है !
स्वप्न किसके सच हुए हैं !

सूर्य की उज्ज्वल प्रभा का क्या किसीने पार पाया,
स्मरण उर में सदा ही वेदना का भार लाया,
क्या किसीने गगन उपवन के कुसुम गुच्छे छुए हैं !
स्वप्न किसके सच हुए हैं !

किरण

बुधवार, 23 जून 2010

जीवन पथ

जीवन है पथ , मैं पथिक सखे !

इस पथ में ममता की आँधी
चलती रहती अवदात सखे,
इस पथ में माया की सरिता
बहती रहती दिन रात सखे !

साथी चलना बहुत दूर है
दूर बसा मम देश सखे,
चलते रहना प्रतिपल प्रतिक्षण
रुकना न कहीं लवलेश सखे !

आशाओं की कुटिल झाड़ियाँ
करती हैं उत्पात सखे,
इच्छाओं की अग्नि सुलग
करती रहती व्याघात सखे !

पाप पुण्य की अमा निशा में
करने को अभिसार सखे,
मैं निकली अपने उर में ले
मम प्रियतम का सुप्यार सखे !

बढ़ने देता किन्तु न आगे
अरमानों का भार सखे,
मेरे प्रियतम छिपे हुए हैं
दूर क्षितिज के पार सखे !

किन्तु तोड़ना ही होगा संसृति
का बंधन क्षणिक सखे,
करुणा 'किरण' बढ़ा कर मुझको
देना साहस तनिक सखे !

उमड़ पड़े नयनों से वारिद
रोक न पाऊँ इन्हें सखे,
देखो ह्रदय सिंधु है उमड़ा
पावस बन तुम्हें दिखाऊँ सखे !


किरण

जीवन पथ

रविवार, 20 जून 2010

तंत्री के तार

मत छेड़ो तंत्री के तार !
बिखर जायेंगे छूते ही ये,
गले विरह में बन कर छार !
मत छेड़ो तंत्री के तार !

उर में अब उल्लास न आता,
नहीं आज है कुछ भी भाता,
सजनि प्रेम की मधुर रागिनी
को अब कौन यहाँ है गाता,
रे गायक रहने दो चुभती
शूल समान अरे झंकार !
मत छेड़ो तंत्री के तार !

किये प्रतीक्षा बैठी हूँ मैं,
स्नेह और ममता दीपक ले,
सींचा पथ तिल-तिल कर मैंने,
ढार-ढार कर जल नयनों से,
किन्तु न ले पाई हूँ मैं सखि,
उनकी मृदु सेवा का भार !
मत छेड़ो तंत्री के तार !

आहों की आँधी घिर आईं,
उमड़-उमड़ आँखें भर आईं,
सजल अश्रुओं की फुहार सखि,
छूट-छूट कर तन पर आईं,
ऊर्ध्व स्वाँस ने छेड़ रखी है
पहले ही रागिनी मल्हार !
मत छेड़ो तंत्री के तार !


किरण

गुरुवार, 17 जून 2010

आज मुझे जी भर रोने दो

आज मुझे जी भर रोने दो !

बीते मधुर क्षणों को मुझको
विस्मृति सागर में खोने दो ,
आज मुझे जी भर रोने दो !

छुओ न उर के दुखते छाले,
मेरी साधों के हैं पाले,
बढ़ने दो प्रतिपल पर पीड़ा
उसमें स्मृतियाँ खोने दो !

आज मुझे जी भर रोने दो !

मत छीनो मेरी उर वीणा,
भर देगी प्राणों में पीड़ा,
अश्रु कणों के निर्मल मुक्ता
आह सूत्र में पो लेने दो !

आज मुझे जी भर रोने दो !

स्मृति मुझसे रूठ गयी है,
और सुषुप्ति राख हुई है,
विगत दिवस हैं स्वप्न, मुझे
स्वप्नों की रजनी में सोने दो !

आज मुझे जी भर रोने दो !

रहे अमर आँखों का पानी,
मैं , मेरी दुनिया दीवानी,
दीवानों को अपनी दुनिया
में दीवाना ही रहने दो !

आज मुझे जी भर रोने दो !


किरण

रविवार, 13 जून 2010

ज्योतिकण

कौन के अरमान नभ में ज्योतिकण बन छा रहे हैं !

कौन सी वह है सुहागन देव का जो ध्यान धरती,
गगन गंगा में पिया हित दीप का जो दान करती,
छूट कर उसके करों से जो उमड़ते आ रहे हैं !
कौन के अरमान नभ में ज्योतिकण बन छा रहे हैं !

आज किसने गा दिया है राग दीपक मधुर स्वर भर,
जल गए जो स्वर्ग के दीपक सलोने सभी चुन कर,
चमचमाते नील प्रांगण में सभी को भा रहे हैं !
कौन के अरमान नभ में ज्योतिकण बन छा रहे हैं !

कौन दीपावलि सजा कर कर रहे हैं ध्यान किसका,
कौन सी वह लक्ष्मी है कर रहे आह्वान जिसका,
इस अमा की रात्रि में जो शून्य जग चमका रहे हैं !
कौन के अरमान नभ में ज्योतिकण बन छा रहे हैं !

कौन सी दुखिया बहाती नयन से अविराम मोती,
चन्द्र की छा प्रभा जिन पर भर रही है अमर ज्योति,
किस अभागन के ह्रदय के घाव ये दिखला रहे हैं !
कौन के अरमान नभ में ज्योतिकण बन छा रहे हैं !

चाँदनी के नयन मुक्ता हैं धरा के घाव उर के,
साँध्य सुंदरि दीप धरती शशि रमा का ध्यान धरते,
वे नियंता चतुर गायक राग दीपक गा रहे हैं !
कौन के अरमान नभ में ज्योतिकण बन छा रहे हैं !

किरण

मंगलवार, 8 जून 2010

और छाया है अँधेरा

'उन्मना' एवं 'सुधीनामा' के पाठकों का मैं ह्रदय से आभार व्यक्त करती हूँ
जिन्होंने इनकी रचनाओं को पढ़ा और सराहा ! क्षमायाचना के साथ यह कहना
चाहूँगी कि मेरे अमेरिका प्रवास के कारण शायद कुछ समय का व्यवधान इन
ब्लॉग्स पर नयी रचनाएँ डालने में पड़ेगा ! आशा है आप मेरी दिक्कत को
समझ कर मुझे क्षमा करेंगे ! मेरी यथासंभव कोशिश रहेगी कि मैं वहाँ जाकर
भी आप सबके संपर्क में रहूँ और कुछ नया देने की कोशिश करूँ !


जल रहे दीपक सुनहरे और छाया है अँधेरा !

ओढ़ काली चूनरी विधु वदन आँचल में छिपाए,
चपल चंचल चरण धरती लाज से सिर को झुकाए,
आ रही वह साँध्य सुन्दरि प्रिय मिलन की लालसा ले,
गगन सागर के किनारे नभ सरित का जाल सा ले,
फाँस लेगी प्राण का मन मीन सा यों डाल घेरा !

जल रहे दीपक सुनहरे और छाया है अँधेरा !

पर मिलन की यामिनी को विरह का संसार भाया,
हास्य की उज्ज्वल प्रभा को अश्रु का संसार भाया,
शांत शीतल प्रेम सुख को दुःख का श्रृंगार भाया,
चाँदनी का पट उठा कर गहन तम का प्यार भाया,
जल रहे यों ह्रदय के अरमान सूने डाल घेरा !

जल रहे दीपक सुनहरे और छाया है अँधेरा !

दूर करते तम निरंतर दीप अपने प्राण देकर,
स्नेह की संवेदना में त्याग का वरदान लेकर,
किन्तु क्या उस त्याग का प्रतिफल उसे मिलता रहा है,
जो मिटा अस्तित्व अपना दीप यह जलता रहा है,
जो पड़ा घनघोर तम में कर रहा है जग रुपहरा !

जल रहे दीपक सुनहरे और छाया है अँधेरा !

ये गगन के दीप हैं धरती न इनको पा सकेगी,
नीलिमा कोमल सलोनी ही इन्हें बिलमा सकेगी,
ये जलेंगे यों सदा ही पर धरा सूनी रहेगी,
‘दिए के नीचे अँधेरा ही रहा’ संसृति कहेगी,
यह अमा की रात है होता नहीं जिसमें उजेरा !

जल रहे दीपक सुनहरे और छाया है अँधेरा !

किरण

रविवार, 6 जून 2010

मुझे सुहाता मुरझाना

तुम्हें फूल का खिलना भाता
मुझे सुहाता मुरझाना,
तुम्हें न भाते साश्रु नयन
मुझको न सुहाता मुस्काना !

तुम पूनम की सुघर चाँदनी
पर बलि-बलि जाते साथी,
मुझको शांत अमावस्या का
भाता यह सूना बाना !

उदित सूर्य की स्वर्ण रश्मियाँ
तुम्हें मधुर कुछ दे जातीं,
मुझे क्षितिज में डूबे रवि का
भाता वह पथ पहचाना !

तुम वसंत में कोकिल का स्वर
सुन-सुन मस्त हुआ करते,
मुझे सुहाता पावस में
पपिहे का पियु-पियु चिल्लाना !

तुम्हें सुहाती ऋतुपति के
स्वागत में व्यस्त धरिणी सज्जित,
मुझे सुहाता अम्बर का
नयनों से आँसू बरसाना !

तुम राधा मोहन के संग में
मिल कर रास रचा लेते,
मुझे सुहाते राधा के आँसू
मोहन का तज जाना !

तुम हो आदि उपासक साथी
मुझे अंत लगता प्यारा,
तुम्हें मिलन के राग सुहाते
मुझे विरह का प्रिय गाना !

आदि अंत का, विरह मिलन का
रंज खुशी का जब पूरक,
क्यों न अंत को प्यार करूँ मैं
व्यर्थ आदि पर इतराना !

किरण

मंगलवार, 1 जून 2010

सब एकाकी

इस संसृति में सब एकाकी !
चमक रहा ऊषा के आँचल में नभ का तारा एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !

ज्वार उठा सागर के उर में लहरें तट पर आ टकराईं,
निर्मम तट पर आकर उसने निज जीवन की निधि बिखराई,
सागर में अब भी हलचल है तट पर लहर मिटी एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !

उषा उठा प्राची पट आई किरणों की सुन्दर सखियाँ ले,
और सांध्य बेला में खोई अपने प्राणों की पीड़ा ले,
सूर्य प्रभा ले गया सुनहरी बुझती किरण रही एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !

सुमनों की चादर बहार ने आकर पृथ्वी पर फैलाई,
पर पतझड़ ने लूटा उसको सूनी पड़ी सुघर अमराई,
इस निर्जन बगिया में तितली पागल घूम रही एकाकी !
इस संसृति में सब एकाकी !

किरण