मुझको ऐसे गीत चाहिये !
जो पतझड़ में मधुॠतु ला दे
मुझको वह संगीत चाहिये !
मुझको ऐसे गीत चाहिये !
जो चुन लायें श्रम के मोती,
जो वर लायें जीवन ज्योति,
जो चेतायें दुनिया सोती,
मुझको ऐसे मीत चाहिये !
मुझको ऐसे गीत चाहिये !
जो झोली भर दे दीनों की,
आहें छीने आधीनों की,
हों झंकृत तानें बीनों की,
मुझको ऐसी प्रीत चाहिये !
मुझको ऐसे गीत चाहिये !
दुखियों के अरमान दिला दे,
जीवन के वरदान दिला दे,
मर मिटने का मान दिला दे,
मुझको ऐसी जीत चाहिये !
मुझको ऐसे गीत चाहिये !
किरण
शनिवार, 27 नवंबर 2010
बुधवार, 24 नवंबर 2010
पुण्य स्मरण - गुरु तेग बहादुर
माँ की डायरी से परम श्रद्धेय गुरू तेग बहादुर जी
को यह विनम्र एवं भावभीनी श्रद्धांजलि !
तेरे ऐसे रत्न हुए माँ जिनकी शोभा अनियारी,
तेरे ऐसे दीप जले माँ जिनकी शाश्वत उजियारी !
तव बगिया के वृक्ष निराले, अमिट सुखद जिनकी छाया,
ऐसे राग बनाए तूने जिन्हें विश्व भर ने गाया !
तेरे ताल, सरोवर, निर्झर शीतल, निर्मल नीर भरे,
तेरे लाल लाड़ले ऐसे जिन पर दुनिया गर्व करे !
रत्न खान पंजाब भूमि ने ऐसा दीप्त रत्न पाया,
जिसके सद्गुण की आभा से जग आलोकित हो आया !
आनंदपुर ने दीप सँजोया जिसकी ज्योति जली अवदात,
वर्ष तीन सौ बीत चुके पर स्वयम् प्रकाशित है दिन रात !
ऐसा वह वटवृक्ष निराला जिसकी छाया सुखदायी !
सिसक रही मानवता उसके आँचल में जा मुस्काई !
पंच महानद की लहरों से ऐसा गूँजा अद्भुत राग,
मृत जनजीवन के प्रति जागा मानव मन में नव अनुराग !
जिसने ज्ञान सरोवर में अवगाहन कर मन विमल किया,
धन्य लाल वह तेरा माँ जिसने सर देकर 'सी' न किया !
जिसने धर्म ध्वजा फहराई जिसने रक्खा माँ का मान,
दीन दुखी जन के रक्षण में जिसने प्राण किये कुर्बान !
दानवता अविचार मिटाने जिसकी तेग चली अविराम,
तेग बहादुर गुरू चरणों में अर्पित कोटि कोटि परनाम !
किरण
को यह विनम्र एवं भावभीनी श्रद्धांजलि !
तेरे ऐसे रत्न हुए माँ जिनकी शोभा अनियारी,
तेरे ऐसे दीप जले माँ जिनकी शाश्वत उजियारी !
तव बगिया के वृक्ष निराले, अमिट सुखद जिनकी छाया,
ऐसे राग बनाए तूने जिन्हें विश्व भर ने गाया !
तेरे ताल, सरोवर, निर्झर शीतल, निर्मल नीर भरे,
तेरे लाल लाड़ले ऐसे जिन पर दुनिया गर्व करे !
रत्न खान पंजाब भूमि ने ऐसा दीप्त रत्न पाया,
जिसके सद्गुण की आभा से जग आलोकित हो आया !
आनंदपुर ने दीप सँजोया जिसकी ज्योति जली अवदात,
वर्ष तीन सौ बीत चुके पर स्वयम् प्रकाशित है दिन रात !
ऐसा वह वटवृक्ष निराला जिसकी छाया सुखदायी !
सिसक रही मानवता उसके आँचल में जा मुस्काई !
पंच महानद की लहरों से ऐसा गूँजा अद्भुत राग,
मृत जनजीवन के प्रति जागा मानव मन में नव अनुराग !
जिसने ज्ञान सरोवर में अवगाहन कर मन विमल किया,
धन्य लाल वह तेरा माँ जिसने सर देकर 'सी' न किया !
जिसने धर्म ध्वजा फहराई जिसने रक्खा माँ का मान,
दीन दुखी जन के रक्षण में जिसने प्राण किये कुर्बान !
दानवता अविचार मिटाने जिसकी तेग चली अविराम,
तेग बहादुर गुरू चरणों में अर्पित कोटि कोटि परनाम !
किरण
रविवार, 21 नवंबर 2010
राह बताता जा रे राही
ओ राही राह बताता जा रे राही !
बीहड़ पंथ डगर अनजानी,
बिजली कड़के बरसे पानी,
नदी भयानक उमड़ रही है,
नाव डलाता जा रे राही !
राह बताता जा रे राही !
मेरी मंजिल बहुत दूर है,
अन्धकार से राह पूर है,
स्नेह चुका जर्जर है बाती,
दीप जलाता जा रे राही !
राह बताता जा रे राही !
चलते-चलते हार गयी रे,
नैनन से जलधार बही रे,
ओ रे निष्ठुर व्यथित हृदय की,
पीर मिटाता जा रे राही !
राह बताता जा रे राही !
रूठे देव मनाऊँ कैसे,
दर्शन उनके पाऊँ कैसे,
मान भरे मेरे अंतर का
मान मिटाता जा रे राही !
राह बताता जा रे राही !
राह बताता जा !
किरण
बीहड़ पंथ डगर अनजानी,
बिजली कड़के बरसे पानी,
नदी भयानक उमड़ रही है,
नाव डलाता जा रे राही !
राह बताता जा रे राही !
मेरी मंजिल बहुत दूर है,
अन्धकार से राह पूर है,
स्नेह चुका जर्जर है बाती,
दीप जलाता जा रे राही !
राह बताता जा रे राही !
चलते-चलते हार गयी रे,
नैनन से जलधार बही रे,
ओ रे निष्ठुर व्यथित हृदय की,
पीर मिटाता जा रे राही !
राह बताता जा रे राही !
रूठे देव मनाऊँ कैसे,
दर्शन उनके पाऊँ कैसे,
मान भरे मेरे अंतर का
मान मिटाता जा रे राही !
राह बताता जा रे राही !
राह बताता जा !
किरण
गुरुवार, 18 नवंबर 2010
बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !
बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !
ले समस्त अंतर का प्यार
आई हूँ मैं तेरे द्वार,
सुन्दर भाव कुसुम सुकुमार
करने भेंट अश्रु का हार,
खोल खोल ओ रे करुणामय
अपनी करुण कुटी का द्वार !
बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !
इस जीवन के शीत हेमंत
मम पतझड़ के मधुर वसंत,
तीव्र ग्रीष्म में जल की धार
शीतल तव स्मृति आभार,
निष्ठुर निर्दयता में क्या
पा लोगे अब जीवन का सार !
बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !
व्याकुल उर की क्षीण पुकार
और दीन दुखियों का प्यार,
दया सिंधु वह दया अपार
तुम्हें खींच लाती इस पार,
क्या न तुम्हें कुछ आती करुणा
सुन कर मेरी करुण पुकार !
बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !
किरण
ले समस्त अंतर का प्यार
आई हूँ मैं तेरे द्वार,
सुन्दर भाव कुसुम सुकुमार
करने भेंट अश्रु का हार,
खोल खोल ओ रे करुणामय
अपनी करुण कुटी का द्वार !
बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !
इस जीवन के शीत हेमंत
मम पतझड़ के मधुर वसंत,
तीव्र ग्रीष्म में जल की धार
शीतल तव स्मृति आभार,
निष्ठुर निर्दयता में क्या
पा लोगे अब जीवन का सार !
बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !
व्याकुल उर की क्षीण पुकार
और दीन दुखियों का प्यार,
दया सिंधु वह दया अपार
तुम्हें खींच लाती इस पार,
क्या न तुम्हें कुछ आती करुणा
सुन कर मेरी करुण पुकार !
बैठूँ या कि जाऊँ मैं हार !
किरण
रविवार, 14 नवंबर 2010
मंगल कामना
माँ की डायरी में यह मंगल कामना नेहरू जी के जन्म दिवस १४ नवंबर
के दिन उन्हीं को समर्पित की गयी थी ! कदाचित तब देश को नयी-नयी
आज़ादी मिली थी और वे देश के प्रथम प्रधान मंत्री बने थे ! आज उनके
ब्लॉग के माध्यम से ये श्रृद्धा सुमन उनकी ओर से मैं नेहरू जी के पुण्य
स्मरण को समर्पित कर रही हूँ !
साधना
ओ शरद निशे ले आई हो यों अद्भुत सुख भण्डार सखी,
लहराता दसों दिशाओं में आनंद का पारावार सखी,
लो मूक हुई वाणी कैसे अब प्रकट करूँ उद्गार सखी,
सह सकता कैसे दीन हृदय कब इतने सुख का भार सखी !
बिखरा कर मधुर चंद्रिका यह किसका तू है स्वागत करती,
देती बिखेर स्वर्णिम तारे, मानो निर्धन का घर भरती,
मुक्तामय ओस गिरा कर जो बहुमूल्य निछावर तू करती,
किसका इस मदिर पवन द्वारा आराधन आवाहन करती !
कुछ ऊली फूली बढ़ी चली किस ओर अरी जाती सजनी,
द्रुम दल को हिला-हिला हर्षित कल कीर्ति मधुर गाती सजनी,
यदि लाल किले के सुदृढ़ मार्ग की ओर चली जाती सजनी,
तो हृदय कुञ्ज के भाव कुसुम पहुँचा उन तक आती सजनी !
देती बिखेर उन चरणों पर इस तुच्छ हृदय का प्यार सखी,
लेती पखार फिर युगल चरण निर्मल नयनांजलि ढार सखी,
पुलकित उर वीणा की उन तक पहुँचाना यह झंकार सखी,
तेरे स्वर में मिलकर ये स्वर कर उठें मधुर गुंजार सखी !
पृथ्वी जल वायु रहे जब तक गंगा यमुना की धार सखी,
शशि रहे चंद्रिकायुक्त, रवी रहे ज्योती का आगार सखी,
लहराये तिरंगा भारत का सत रज तम हो साकार सखी,
हो सुदृढ़ राष्ट्र की नींव, अखंडित हो स्वतंत्र सरकार सखी !
किरण
के दिन उन्हीं को समर्पित की गयी थी ! कदाचित तब देश को नयी-नयी
आज़ादी मिली थी और वे देश के प्रथम प्रधान मंत्री बने थे ! आज उनके
ब्लॉग के माध्यम से ये श्रृद्धा सुमन उनकी ओर से मैं नेहरू जी के पुण्य
स्मरण को समर्पित कर रही हूँ !
साधना
ओ शरद निशे ले आई हो यों अद्भुत सुख भण्डार सखी,
लहराता दसों दिशाओं में आनंद का पारावार सखी,
लो मूक हुई वाणी कैसे अब प्रकट करूँ उद्गार सखी,
सह सकता कैसे दीन हृदय कब इतने सुख का भार सखी !
बिखरा कर मधुर चंद्रिका यह किसका तू है स्वागत करती,
देती बिखेर स्वर्णिम तारे, मानो निर्धन का घर भरती,
मुक्तामय ओस गिरा कर जो बहुमूल्य निछावर तू करती,
किसका इस मदिर पवन द्वारा आराधन आवाहन करती !
कुछ ऊली फूली बढ़ी चली किस ओर अरी जाती सजनी,
द्रुम दल को हिला-हिला हर्षित कल कीर्ति मधुर गाती सजनी,
यदि लाल किले के सुदृढ़ मार्ग की ओर चली जाती सजनी,
तो हृदय कुञ्ज के भाव कुसुम पहुँचा उन तक आती सजनी !
देती बिखेर उन चरणों पर इस तुच्छ हृदय का प्यार सखी,
लेती पखार फिर युगल चरण निर्मल नयनांजलि ढार सखी,
पुलकित उर वीणा की उन तक पहुँचाना यह झंकार सखी,
तेरे स्वर में मिलकर ये स्वर कर उठें मधुर गुंजार सखी !
पृथ्वी जल वायु रहे जब तक गंगा यमुना की धार सखी,
शशि रहे चंद्रिकायुक्त, रवी रहे ज्योती का आगार सखी,
लहराये तिरंगा भारत का सत रज तम हो साकार सखी,
हो सुदृढ़ राष्ट्र की नींव, अखंडित हो स्वतंत्र सरकार सखी !
किरण
बुधवार, 10 नवंबर 2010
मैं जाऊँ ढूँढने कहाँ-कहाँ ?
मैं जाऊँ ढूँढने कहाँ-कहाँ ?
रजनी की काली अलकों में,
तारों की झिलमिल ज्योती में,
तुम छिपे हुए हो जीवन धन
इस ओस के सुन्दर मोती में !
निशिपति की मृदु मुस्काहट में
आकर के तुम मुस्का जाते,
घिर करके श्याम बादलों में
तुम उनको खेल खिला जाते !
सुन्दर गुलाब की लाली में
अधरों की लाली छिपती है,
कोमल कलिका के रंगों में
हाथों की लाली छिपती है !
सूरज की ज्योती में प्रियतम
ज्योतिर्मय रूप तुम्हारा है,
अरुणोदय की अँगड़ाई में
उज्ज्वलतम रूप तुम्हारा है !
सरिता की चंचल लहरों में
वह श्याम रूप बहता पाया,
सागर के शांत कलेवर में
तव शांत रूप ठहरा पाया !
घर में, मग में, वन-उपवन में,
पृथ्वी, आकाश में, यहाँ-वहाँ,
सर्वत्र व्याप्त हो श्याम तुम्हीं
मैं जाऊँ ढूँढने कहाँ-कहाँ !
किरण
रजनी की काली अलकों में,
तारों की झिलमिल ज्योती में,
तुम छिपे हुए हो जीवन धन
इस ओस के सुन्दर मोती में !
निशिपति की मृदु मुस्काहट में
आकर के तुम मुस्का जाते,
घिर करके श्याम बादलों में
तुम उनको खेल खिला जाते !
सुन्दर गुलाब की लाली में
अधरों की लाली छिपती है,
कोमल कलिका के रंगों में
हाथों की लाली छिपती है !
सूरज की ज्योती में प्रियतम
ज्योतिर्मय रूप तुम्हारा है,
अरुणोदय की अँगड़ाई में
उज्ज्वलतम रूप तुम्हारा है !
सरिता की चंचल लहरों में
वह श्याम रूप बहता पाया,
सागर के शांत कलेवर में
तव शांत रूप ठहरा पाया !
घर में, मग में, वन-उपवन में,
पृथ्वी, आकाश में, यहाँ-वहाँ,
सर्वत्र व्याप्त हो श्याम तुम्हीं
मैं जाऊँ ढूँढने कहाँ-कहाँ !
किरण
शनिवार, 6 नवंबर 2010
रहस्य
है रहस्य सारा ही जग यह
सब संसृति मतवाली है,
पार वही हो जाता इससे
जिसने पथ गति पा ली है !
जीवन है वरदान या कि
अभिशाप न जाना जाता है,
है दुर्गम इसकी गली-गली
पथ कोई खोज न पाता है !
सुख सामग्री भी बन जाती
कभी यहाँ दुःख का आगार,
कभी सिखाता दुःख जीवन को
करना अपनेपन से प्यार !
तन की ममता कभी भूलती
कभी मोह होता दुर्दांत,
घृणा कभी होती जीवन से
पीड़ा करती कभी अशांत !
आह खोज कैसे पायेंगे
इस रहस्य को पागल प्राण,
सदा जलेंगे इसी ज्वाल में
होगा कभी न इससे त्राण !
किरण
सब संसृति मतवाली है,
पार वही हो जाता इससे
जिसने पथ गति पा ली है !
जीवन है वरदान या कि
अभिशाप न जाना जाता है,
है दुर्गम इसकी गली-गली
पथ कोई खोज न पाता है !
सुख सामग्री भी बन जाती
कभी यहाँ दुःख का आगार,
कभी सिखाता दुःख जीवन को
करना अपनेपन से प्यार !
तन की ममता कभी भूलती
कभी मोह होता दुर्दांत,
घृणा कभी होती जीवन से
पीड़ा करती कभी अशांत !
आह खोज कैसे पायेंगे
इस रहस्य को पागल प्राण,
सदा जलेंगे इसी ज्वाल में
होगा कभी न इससे त्राण !
किरण
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