पंथ का कर व्यर्थ अर्चन हार बैठी आज मैं सखी !
प्राण वीणा में निरंतर
करूण स्वर मैं साधती थी ,
उड़ सकूँगी क्यों न मैं भी
सोच साहस बाँधती थी ,
व्यर्थ थी वह साधना औ व्यर्थ यह साहस रहा सखी !
पंथ का कर व्यर्थ अर्चन हार बैठी आज मैं सखी !
डगमगाती तरिणी ने
मँझधार भी न देख पाया ,
क्रूर झंझावात ने
पतवार बन उसको बढ़ाया,
खो गयीं सारी दिशायें, तिमिर में ही बढ़ रही सखी !
पंथ का कर व्यर्थ अर्चन हार बैठी आज मैं सखी !
उषा हँसती, किरण जगती
ज्योति से जग जगमगाता ,
क्षितिज तट का शून्य अंतर
पर न कोई मिटा पाता ,
है क्षणिक द्युति, शून्य शाश्वत, जान पाई आज मैं सखी !
पंथ का कर व्यर्थ अर्चन हार बैठी आज मैं सखी !
किरण
बुधवार, 29 सितंबर 2010
शनिवार, 25 सितंबर 2010
* मैंने कितने दीप जलाए *
कितने दीप जलाये मैंने कितने दीप जलाये !
मेरे स्नेह भरे दीपक थे,
सूनी कुटिया के सम्बल थे,
मैंने उनकी क्षीण प्रभा में
अगणित स्वप्न सजाये !
मैंने कितने दीप जलाए !
आँचल से उनको दुलराया,
तूफानों से उन्हें बचाया,
मेरे अँधियारे जीवन को
ज्योतित वो कर पाये !
मैंने कितने दीप जलाये !
अंधकार रजनी की बेला,
नभ पर है तारों का मेला,
उनसे तेरा मन ना बहला
मेरे दीप चुराये !
मैंने कितने दीप जलाये !
तूने क्या इसमें सुख पाया,
मेरे आँसू पर मुसकाया,
निर्मम तुझको दया न आई
मेरे दीप बुझाये !
मैंने कितने दीप जलाये !
किरण
मेरे स्नेह भरे दीपक थे,
सूनी कुटिया के सम्बल थे,
मैंने उनकी क्षीण प्रभा में
अगणित स्वप्न सजाये !
मैंने कितने दीप जलाए !
आँचल से उनको दुलराया,
तूफानों से उन्हें बचाया,
मेरे अँधियारे जीवन को
ज्योतित वो कर पाये !
मैंने कितने दीप जलाये !
अंधकार रजनी की बेला,
नभ पर है तारों का मेला,
उनसे तेरा मन ना बहला
मेरे दीप चुराये !
मैंने कितने दीप जलाये !
तूने क्या इसमें सुख पाया,
मेरे आँसू पर मुसकाया,
निर्मम तुझको दया न आई
मेरे दीप बुझाये !
मैंने कितने दीप जलाये !
किरण
बुधवार, 22 सितंबर 2010
* नवगान *
कौन सा नव गान गाऊँ !
हैं सभी स्वर लय पुराने
कौन सी नव गत बजाऊँ !
कौन सा नव गान गाऊँ !
श्याम अलकों में छिपाये
चँद्रमुख वह रजनि आती,
तारकों से माँग भर कर
स्वप्न जीवन में सजाती,
वह सुखी है,प्रिय,दुखी उर
मैं उसे कैसे दिखाऊँ !
कौन सा नव गान गाऊँ !
चरण अंकित कर महावर
से उषा सुन्दरि सुहागन,
पूजने आती दिवाकर
हृदय में ले साध अनगिन,
भावना के लोक से
कैसे उसे मैं बाँध लाऊँ !
कौन सा नव गान गाऊँ !
प्रिय मिलन को जा रही सरि
आश के दीपक सजाये,
खिलखिलाती लहरियों में
नूपुरों के स्वर मिलाये,
वह अलस मस्ती कहाँ से
व्यथित उर में साध पाऊँ !
कौन सा नव गान गाऊँ !
किरण
हैं सभी स्वर लय पुराने
कौन सी नव गत बजाऊँ !
कौन सा नव गान गाऊँ !
श्याम अलकों में छिपाये
चँद्रमुख वह रजनि आती,
तारकों से माँग भर कर
स्वप्न जीवन में सजाती,
वह सुखी है,प्रिय,दुखी उर
मैं उसे कैसे दिखाऊँ !
कौन सा नव गान गाऊँ !
चरण अंकित कर महावर
से उषा सुन्दरि सुहागन,
पूजने आती दिवाकर
हृदय में ले साध अनगिन,
भावना के लोक से
कैसे उसे मैं बाँध लाऊँ !
कौन सा नव गान गाऊँ !
प्रिय मिलन को जा रही सरि
आश के दीपक सजाये,
खिलखिलाती लहरियों में
नूपुरों के स्वर मिलाये,
वह अलस मस्ती कहाँ से
व्यथित उर में साध पाऊँ !
कौन सा नव गान गाऊँ !
किरण
शनिवार, 18 सितंबर 2010
* पंछी अकेला *
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
नील नभ के सुघर उपवन ओर बढ़ता जा रहा था,
केतकी के कुञ्ज सा उड्पुन्ज मन को भा रहा था,
खोजती थीं चपल आँखें शांत, निर्जन, शून्य कोटर,
रच सके वह रह जहाँ निज कल्पना का नीड़ सुन्दर,
रवि किरण मुरझा रही थी, आ रही थी सांध्य बेला !
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
थक चुके थे पंख उसके छा रही मन पर उदासी,
क्रूर जग की निठुरता से हो दुखी, जीवन निरासी,
अलस उर में शून्य का साम्राज्य अविचल छा रहा था,
उस प्रताड़ित आत्मा पर शोक तम गहरा रहा था,
सोचता वह बैठ जाऊँ एक क्षण को पंख फैला !
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
तृण चुनूँ कोमल उदित रवि किरण के सुन्दर सुहाने,
श्वेत बादल से चुनूँ कुछ रूई के टुकड़े लुभाने,
चाँदनी की चुरा कतरन सुघर तारक कुसुम चुन लूँ,
और अपनी प्रियतमा संग नीड़ नव निर्माण कर लूँ,
हो सुखद संसार मेरा, हो मधुर प्रात: सुनहला !
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
देखता हूँ इधर कुछ फैले हुए से नाज के कण,
झिलमिलाते गेहूँओं की कांति से है सुघर हर कण,
ला चुगाऊँ नवल कोमल बालकों को चैन पाऊँ,
शान्ति का संसार रच लूँ प्रेम का जीवन बिताऊँ,
निर्दयी झंझा न होगी और बधिकों का न मेला !
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
इस जगत में स्वार्थ से हैं भरे सब ये आज प्राणी,
दूसरों की शान्ति सुख का हरण करते हैं गुमानी,
मारते ठोकर, सहारा बेबसों को भी न देते,
चोंच में आया हुआ चुग्गा झपट कर छीन लेते,
दीखता जब यह सुघर उपवन न क्यों छोड़ूँ झमेला !
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
किरण
नील नभ के सुघर उपवन ओर बढ़ता जा रहा था,
केतकी के कुञ्ज सा उड्पुन्ज मन को भा रहा था,
खोजती थीं चपल आँखें शांत, निर्जन, शून्य कोटर,
रच सके वह रह जहाँ निज कल्पना का नीड़ सुन्दर,
रवि किरण मुरझा रही थी, आ रही थी सांध्य बेला !
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
थक चुके थे पंख उसके छा रही मन पर उदासी,
क्रूर जग की निठुरता से हो दुखी, जीवन निरासी,
अलस उर में शून्य का साम्राज्य अविचल छा रहा था,
उस प्रताड़ित आत्मा पर शोक तम गहरा रहा था,
सोचता वह बैठ जाऊँ एक क्षण को पंख फैला !
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
तृण चुनूँ कोमल उदित रवि किरण के सुन्दर सुहाने,
श्वेत बादल से चुनूँ कुछ रूई के टुकड़े लुभाने,
चाँदनी की चुरा कतरन सुघर तारक कुसुम चुन लूँ,
और अपनी प्रियतमा संग नीड़ नव निर्माण कर लूँ,
हो सुखद संसार मेरा, हो मधुर प्रात: सुनहला !
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
देखता हूँ इधर कुछ फैले हुए से नाज के कण,
झिलमिलाते गेहूँओं की कांति से है सुघर हर कण,
ला चुगाऊँ नवल कोमल बालकों को चैन पाऊँ,
शान्ति का संसार रच लूँ प्रेम का जीवन बिताऊँ,
निर्दयी झंझा न होगी और बधिकों का न मेला !
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
इस जगत में स्वार्थ से हैं भरे सब ये आज प्राणी,
दूसरों की शान्ति सुख का हरण करते हैं गुमानी,
मारते ठोकर, सहारा बेबसों को भी न देते,
चोंच में आया हुआ चुग्गा झपट कर छीन लेते,
दीखता जब यह सुघर उपवन न क्यों छोड़ूँ झमेला !
ह्रदय में कुछ साध लेकर उड़ चला पंछी अकेला !
किरण
गुरुवार, 16 सितंबर 2010
* नाव न रोको *
साथी मेरी नाव न रोको !
चली जा रही अपने पथ पर
डग-मग बहती हिलती डुलती,
इस चंचल उत्फुल्ल सरित पर
इठलाती कुछ गाती चलती,
मेरी मंजिल दूर, देव मुझको
जाने दो, अब मत रोको !
साथी मेरी नाव न रोको !
सह न सकेगा यह उर यह सुख
हर न सकेगा प्राणों का दुःख,
मेरे जीवन के पथ पर सम
कैसा दुःख और कैसा प्रिय सुख,
मेरी अमर अश्रुओं की निधि
मत छीनो, मुझको मत रोको !
साथी मेरी नाव न रोको !
मैं बहती हूँ , बहने दो प्रिय
मैं सहती हूँ, सहने दो प्रिय,
मेरी भग्न हृदय कुटिया को
यदि सूना तुम छोड़ सको प्रिय,
तो जाओ, आबाद रहो तुम
मेरा शाश्वत पंथ न रोको !
साथी मेरी नाव न रोको !
किरण
चली जा रही अपने पथ पर
डग-मग बहती हिलती डुलती,
इस चंचल उत्फुल्ल सरित पर
इठलाती कुछ गाती चलती,
मेरी मंजिल दूर, देव मुझको
जाने दो, अब मत रोको !
साथी मेरी नाव न रोको !
सह न सकेगा यह उर यह सुख
हर न सकेगा प्राणों का दुःख,
मेरे जीवन के पथ पर सम
कैसा दुःख और कैसा प्रिय सुख,
मेरी अमर अश्रुओं की निधि
मत छीनो, मुझको मत रोको !
साथी मेरी नाव न रोको !
मैं बहती हूँ , बहने दो प्रिय
मैं सहती हूँ, सहने दो प्रिय,
मेरी भग्न हृदय कुटिया को
यदि सूना तुम छोड़ सको प्रिय,
तो जाओ, आबाद रहो तुम
मेरा शाश्वत पंथ न रोको !
साथी मेरी नाव न रोको !
किरण
रविवार, 12 सितंबर 2010
* अनुनय *
प्रियतम हृदयपटल पर जबसे
मैंने की तव छवि निर्माण,
सुख से उछले पड़ते हैं ये
मेरे पागल हर्षित प्राण !
कभी प्रेम से कर मनुहारें
उसे मनाने को आते,
देकर 'निठुर' उपाधि कभी वे
उससे रूठ बैठ जाते !
मूर्ति तुम्हारी ही को प्रियतम
समझ रहे हैं वे निज देव,
कब तक यों छल करके उनसे
कहाँ छुपोगे तुम स्वयमेव !
इन भोले प्राणों के संग यह
बोलो नाथ कहाँ का न्याय,
हुए जर्जरित व्याकुलता से
अधिक न सह सकते अन्याय !
प्रियतम यदि वे दर्श तुम्हारा
शीघ्र यहाँ न पायेंगे,
तो जीवन का मोह छोड़ कर
पास तुम्हारे आयेंगे !
किरण
मैंने की तव छवि निर्माण,
सुख से उछले पड़ते हैं ये
मेरे पागल हर्षित प्राण !
कभी प्रेम से कर मनुहारें
उसे मनाने को आते,
देकर 'निठुर' उपाधि कभी वे
उससे रूठ बैठ जाते !
मूर्ति तुम्हारी ही को प्रियतम
समझ रहे हैं वे निज देव,
कब तक यों छल करके उनसे
कहाँ छुपोगे तुम स्वयमेव !
इन भोले प्राणों के संग यह
बोलो नाथ कहाँ का न्याय,
हुए जर्जरित व्याकुलता से
अधिक न सह सकते अन्याय !
प्रियतम यदि वे दर्श तुम्हारा
शीघ्र यहाँ न पायेंगे,
तो जीवन का मोह छोड़ कर
पास तुम्हारे आयेंगे !
किरण
गुरुवार, 9 सितंबर 2010
* साकार बनो ओ निराकार *
साकार बनो ओ निराकार !
कर प्राण देह से अलग
भला क्या मानव मानव रह सकता,
पूजा के बिना पुजारिन का
अस्तित्व न कोई रह सकता !
अंतर की भाव तरंगों का
होता है मुख पर आवर्तन,
मानस का हर्ष शोक आकर
करता नयनों में परिवर्तन !
अनुभव के बिना न हो सकती
अभिव्यक्ति कभी भी जीवन में,
क्या बिना सत्य आधार लिए
कल्पना कभी जगती मन में !
बतला असीम बिन सीमा के
कैसे तेरा अस्तित्व रहे ,
मृत हो न जगत में आज अरे
तो कैसे फिर अमरत्व रहे !
जल बिना जलाशय का जीवन
जगती में किसने है देखा,
वह चित्र बनेगा कैसे फिर
जिसमें न बने पहले रेखा !
सृष्टा और संसृति में रखना,
है भेदभाव फिर निराधार,
तेरी साकार मूर्ति ही है
मेरी पूजा, मेरा श्रृंगार !
साकार बनो ओ निराकार !
किरण
कर प्राण देह से अलग
भला क्या मानव मानव रह सकता,
पूजा के बिना पुजारिन का
अस्तित्व न कोई रह सकता !
अंतर की भाव तरंगों का
होता है मुख पर आवर्तन,
मानस का हर्ष शोक आकर
करता नयनों में परिवर्तन !
अनुभव के बिना न हो सकती
अभिव्यक्ति कभी भी जीवन में,
क्या बिना सत्य आधार लिए
कल्पना कभी जगती मन में !
बतला असीम बिन सीमा के
कैसे तेरा अस्तित्व रहे ,
मृत हो न जगत में आज अरे
तो कैसे फिर अमरत्व रहे !
जल बिना जलाशय का जीवन
जगती में किसने है देखा,
वह चित्र बनेगा कैसे फिर
जिसमें न बने पहले रेखा !
सृष्टा और संसृति में रखना,
है भेदभाव फिर निराधार,
तेरी साकार मूर्ति ही है
मेरी पूजा, मेरा श्रृंगार !
साकार बनो ओ निराकार !
किरण
शनिवार, 4 सितंबर 2010
* आँसू दे सन्देश *
आँसू दे सन्देश ह्रदय की व्यथा सुनायें,
आहें दे आदेश प्रेम का पंथ दिखायें !
लख जीवन गति स्वयम् देव तुम जान सकोगे,
मेरे उर के भाव प्राण पहचान सकोगे !
आस न देना मुझे कुटिल जग छलने वाली,
मत देना विश्वासपूर्ण दुनिया मतवाली !
नहीं तुम्हारे दिव्य चरण की दर्श लालसा,
और न जग जो प्रेम वधिक के सघन जाल सा !
देना दुःख का देश तुम्हें उसमें पाउँगी,
या दुखियों का प्रेम कि जिसमें खो जाउँगी !
मिल जायेंगे निश्छल मन से मैं-तुम तुम-मैं,
पाप पुञ्ज सा दुखमय जीवन करके सुखमय !
हम दोनों का प्रेम वहीं सीमित हो जाये,
क्षुद्र जगत के जीव उसे पहचान न पाये !
किरण
आहें दे आदेश प्रेम का पंथ दिखायें !
लख जीवन गति स्वयम् देव तुम जान सकोगे,
मेरे उर के भाव प्राण पहचान सकोगे !
आस न देना मुझे कुटिल जग छलने वाली,
मत देना विश्वासपूर्ण दुनिया मतवाली !
नहीं तुम्हारे दिव्य चरण की दर्श लालसा,
और न जग जो प्रेम वधिक के सघन जाल सा !
देना दुःख का देश तुम्हें उसमें पाउँगी,
या दुखियों का प्रेम कि जिसमें खो जाउँगी !
मिल जायेंगे निश्छल मन से मैं-तुम तुम-मैं,
पाप पुञ्ज सा दुखमय जीवन करके सुखमय !
हम दोनों का प्रेम वहीं सीमित हो जाये,
क्षुद्र जगत के जीव उसे पहचान न पाये !
किरण
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