शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

बरखा वियोगिनी

है प्रफुल्लित धरिणी सारी और पादप झूमते हैं,
मत्त सारंग देख प्रियतम मेघ रह-रह कुहुकते हैं !

आज चातक की जलन हो शांत सुख में व्यस्त सोती,
त्रस्त सीपी स्वाति सुख में आज अपना दुःख डुबोती !

आज सजती प्रकृति अनुपम साज स्वप्नों में ठगी सी,
नाचती गाती मिलन के गीत प्रिय सुख में पगी सी !

लाज से भर सूर्य बैठे ओट में जा बादलों की ,
पूर्व की मृदु वायु बहती आज रह-रह पागलों सी !

सब सुखों में मस्त अपने किन्तु किसने खोज की है,
बरसती जो बूँद प्रतिपल कौन की परछाईं सी है !

विरह कातर विरहिणी की हृदय ज्वाला पिघल प्रतिपल,
नयन निर्झर से बहाती तरल करुणा धार अविरल !

या किसी पागल हृदय की आह बादल बन अड़ी है,
बरसती उसके नयन से अश्रुधारा की झड़ी है !

या बिछुडते दो हृदय रोते विरह के याद कर क्षण,
और वे आँसू बरसते मेघ का रख रूप हर क्षण !

देख करके क्रोध की ज्वाला तरिणी की दुखी हो वह,
रो रही है चंद्रिका प्रिय विरह में व्याकुल पड़ी वह !

सखे अद्भुत है कहानी इन बरसते बादलों की,
जो जलाती बूँद बन कर और दुनिया पागलों की !

किरण

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

मैं फूलों में मुस्काती हूँ

मैं फूलों में मुस्काती हूँ,
मैं कलियों में शरमाती हूँ,
मैं लहरों के संग गाती हूँ,
मैं तारों में छिप जाती हूँ !

चंदा तारे हैं मीत मेरे,
झंझा के झोंके गीत मेरे,
रिमझिम बादल की घुँघरू ध्वनि,
होते सुभाव अभिनीत मेरे !

यह अखिल विश्व रंगस्थल है,
इसमें जितनी भी हलचल है,
सब है जीवन का मोल भाव,
सबमें ममता, सब में छल है !

किरणों के झूले पर आती,
खिलखिल कर ऊषा हँस जाती,
संध्या वियोगिनी प्रिय सुधि में,
जब अरुण क्षितिज में खो जाती !

तब मेरे राग उभरते हैं,
तब मेरे प्राण उमड़ते हैं,
तब मेरे नयनों में करुणा
के घन चौकड़ियाँ भरते हैं !

क्यों ? नहीं जान मैं सकी कभी,
पर मन की गति ना रुकी कभी,
है एक यही कवि की थाती,
जो नहीं विश्व में बिकी कभी !

मैं हूँ सबमें, सब मुझमें हैं,
है यही चिरंतन शिवम् सत्य,
मैं भूतकाल, मैं वर्तमान ,
मैं ही आने वाला अगत्य !


किरण

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

प्रतीक्षा

आगमन सुन प्राणधन का
भर गया उल्लास मन में मिट गया सब क्लेश तन का !
आगमन सुन प्राणधन का !

साज भूषण, वसन नूतन, भेंट हित उत्सुक हृदय ले ,
चौक सुन्दर पूर कर डाले पलक के पाँवड़े ,
दीप साजे आरती को मैं चली ले स्नेह मन का !
आगमन सुन प्राणधन का !

जगत उपवन से निराली भाव कलिका का चयन कर ,
गूँथ ली इक प्रेम माला नयन मुक्ता कण पिरो कर ,
किन्तु भारी हो गया कटना मुझे हर एक छन का !
आगमन सुन प्राणधन का !

किन्तु रजनीपति छिपे, दीपक गगन के भी बुझे सब ,
वह हार भी मुरझा गया पर प्रिय ना आ पाये अभी तक ,
ज्योति नयनों की बुझी, पिघला न निष्ठुर हृदय उनका !
आगमन सुन प्राणधन का !


किरण

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

निज मन मंदिर में

निज मन मंदिर में मैंने है
अतिथि बसाया एक नया,
वार दिया उस पर अपनापन
उससे ही वैराग्य लिया !

अनजाने आ छिपा कहीं से
उसको नहीं देख पाई,
उसके आने से जीवन में
एक नयी आँधी आई !

उसने सुख के स्वप्न तोड़ कर
कुचल दिये सारे अरमान,
अभिलाषा का हव्य बना कर
महायज्ञ का किया विधान !

आशाओं के दुर्ग तोड़
अधिकार जमाया आ सब ओर,
एक निराशा भवन बना कर
उसमें आन छिपा वह चोर !

दो अक्षर का नाम बता कर
देता परिचय और नहीं,
सब संसार देख आई पर
हो न जहाँ वह ठौर नहीं !

अति आदर से हृदय कुञ्ज में
उसको ठहराया सजनी,
जीवन बना पहेली मेरा
जैसे भेद भरी रजनी !


किरण

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

मेरे भाव

मेरे इस सूने जीवन में
शरद पूर्णिमा बन आये तुम ,
अमा रात्रि से अंधकार में
पूर्ण चंद्र के छाये तुम !

उजड़ चुकी थी जब पतझड़ में
इस उपवन की सब हरियाली ,
सरस सरल मधुऋतु समान
आकर इसमें हो सरसाये तुम !

जब रोती सूनी निदाध में
विकल टिटहरी तड़प-तड़प कर ,
तब वर्षा के सघन मेघ बन
उसे रिझाने हो आये तुम !

विरह व्यथित चकवी निराश हो
जब जीवन आशा बिसराती ,
प्रथम किरण सी आस ज्योति ले
धैर्य बँधाने हो आये तुम !

तुम मेरे सुख दुःख के साथी
मेरे अरमानों की प्रतिलिपि
मुझे तोष है दुःख वारिधि में
कविता नौका ले आये तुम !

किरण

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

कवि तुम युग-युग के प्रतीक

कवि की वाणी के सौरभ से
सुरभित युग-युग के हैं कण-कण,
कवि की कविता से हरे भरे
रहते जन-जन के तन मन धन !

कवि भाव सुमन यों पुन्ज-पुन्ज
खिल उठे कल्पना लतिका में,
ज्यों नील गगन, चन्दा, तारे
प्रतिबिम्बित हों सुर सरिता में !

कवि के बंधन में बँधे हुए
हैं मेघ, पवन, ऋतु, काल सभी,
कवि के इंगित पर डोल उठे
इस प्रकृति नटी के बाल सभी !

कवि ने रति की नयनांजलि से
शिव की प्रतिमा को पिघलाया,
कवि ने लव कुश की वीणा से
रघुकुल के पति को दहलाया !

कवि की ही सफल प्रेरणा वह
जिसने गौरी का मान हना,
कवि की ही धन्य भावना वह
जो दुखी हृदय का त्राण बना !

कवि की कविता ने महलों में
रस रंग सुधा भी बिखरा दी,
कवि की ही कविता ने वसुधा
अरि के शोणित से पखरा दी !

कवि की वाणी ने दिला दिया
भारत माँ का उजड़ा गौरव,
कवि की फुलवारी से बिखरा
स्वातंत्र्य सुमन का शुचि सौरभ !

कवि ही मानव के अंतर से
करुणा धारा जग में लाया,
कवि ने इतिहास बदल डाले
कवि ने बदली युग की काया !

कवि कृति के हेम वर्ण होते
शारद के मस्तक के सुटीक,
वह धन्य धरा वह धन्य गगन
हों जिसके कवि युग के प्रतीक !


किरण

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

चल मन अपनी प्यास बुझाने !

चल मन अपनी प्यास बुझाने !
मानस सर के निर्मल जल में, निज जीवन के स्रोत मिलाने !
चल मन अपनी प्यास बुझाने !

मत बन चंचल तज जग वैभव,
मत इस सुख पर दीवाना बन,
क्षणभंगुर है यह जग, यह सुख,
क्षणभंगुर है जग का वैभव,
माया मृग से चंचल सपने, ले चल उसमें आज डुबाने !

चल मन अपनी प्यास बुझाने !

संकीर्ण पंथ है लक्ष्य दूर,
पग-पग पर कंटक जाल बिछे,
छू मत इन चंचल वृक्षों को,
अभिसिक्त मोह रूपी जल से,
चल मन इस पापी जीवन के, दागों को धो आज मिटाने !

चल मन अपनी प्यास बुझाने !

है प्यास प्यास कुछ और नहीं,
होतीं न तृप्त अभिलाषायें,
आशा के दीपक क्षीण पड़े,
छाईं घनघोर निराशायें,
अब यहाँ कौन आएगा रे मन, तुझको भूली राह बताने !

चल मन अपनी प्यास बुझाने !

वे पथ दर्शक तो चले गये,
उनकी कृतियों का आश्रय ले,
माया तृष्णा को त्याग अरे,
रीते घर में यह निधि भर ले,
यह मिथ्या जग इसका वैभव, ले चल दुःख पर आज लुटाने !

चल मन अपनी प्यास बुझाने !


किरण