बुधवार, 27 अप्रैल 2011

प्रेम नगर

अंधकार सावन की रिमझिम, यह बादल की बेला ,
विद्युत की गर्जन, मारुत का झोंका और झमेला !
बीहड़ वन है, नदी भयानक, बाधाओं का मेला ,
नगर अगम्य, डगर अनजानी, तू चल पड़ा अकेला !

रुक न सकोगे बोलो कैसी चलने की मजबूरी ,
राही तेरे प्रेमनगर की मंजिल की क्या दूरी !

सिसक रही हैं कहीं किसीके पागलपन की चाहें ,
टूटी साँसों की सीमा में कहीं तड़पती आहें !
फ़ैली ही रह गयीं युगों जाने कितनी ही बाहें ,
कहीं कराहें, कस कर रोतीं कहीं निराश निगाहें !

टूटे दिल हैं बिछे, बिछी हैं कितनी आँखें गीली !
राही तेरे प्रेमनगर की पगडंडी पथरीली !

वहाँ उमंगों में सरिता है, धुन में है परवाना ,
कंठों में चातक रागों में रट कर एक तराना !
आँखों में गतिहीन चकोरी, मन मयूर मनमाना ,
अरमानों में अपने को ही अपने आप मिटाना !

पीड़ा का मधुमास वहाँ है, आँसू की बरसातें ,
राही तेरे प्रेमनगर की बड़ी मनोरम बातें !

कोई किसको अपना समझे, समझे किसे पराया ,
आया जिसका ध्यान, जिसे भी जी चाहा अपनाया !
जाने किसने किस जादू का कैसा जाल बिछाया ,
वहाँ जेठ की दोपहरी है, किन्तु न कोई छाया !

प्राणों में है प्यास, रगों में मृगतृष्णा का पानी ,
राही तेरे प्रेमनगर की कैसी अजब कहानी !

उमड़ उठीं सूखी सरितायें, उमड़ा सागर खारा ,
हरियाली के ऊपर उठ कर अपना पंख पसारा !
नीरस मरु के आँगन में भी उमड़ उठी जलधारा,
किन्तु वहीं क्यों कबका प्यासा वह पंछी बेचारा !

टेक निबाहे, पीना चाहे, एक बूँद को तरसे ,
राही तेरे प्रेमनगर में रिमझिम बादल बरसे !

बह साहस का रक्त अचानक बना पसीना देखा ,
दो गज़ का दिल और वही गज़ भर का सीना देखा !
अरे अमृत की अभिलाषा में विष का पीना देखा ,
मरने में सौ बार खुशी से उसका जीना देखा !

घर जलता है पर घरवाले करते हैं रंगरेली ,
राही तेरे प्रेमनगर की कैसी जटिल पहेली !

एक खेल में इस जीवन का सुखकर सपना देखा ,
एक जाप ही दो प्राणों का मिल कर जपना देखा !
इन सूनी-सूनी आँखों में सुख का सपना होता ,
मैं होता फिर मेरे मन का कोई अपना होता !

कुछ उसकी सुनता, उससे भी कुछ अपनी कह पाता ,
राही तेरे प्रेमनगर में यदि मैं भी रह पाता !

यहाँ हमेशा दीवाली है, यहाँ हमेशा होली ,
मादकता से भरी सभी के उर अंतर की झोली !
'और''और' है और यहाँ है 'पियो''पियो' की बोली ,
किस मस्ती में झूम रही है दीवानों की टोली !

माटी का जीवन भी इसमें बन जाता है सोना ,
राही तेरा प्रेमनगर है कितना सुघर सलोना !


किरण





शनिवार, 23 अप्रैल 2011

एक अकेली सौदाई है

जनजीवन ही सस्ता है बस केवल इस संसार में ,
एक अकेली सौदाई है मौत भरे बाज़ार में !

निकल पड़ी है चौराहों पर नंगे भूखों की टोली ,
धू-धू कर जल रही हाट में अरे अभावों की होली ,
घूम रहे सब दिशाहीन से पाने को दो कौर अनाज ,
सरे आम नीलाम हो रही है घर की गृहणी की लाज !

दूध दही की नदियाँ बदलीं विवश अश्रु की धार में ,
एक अकेली सौदाई है मौत भरे बाज़ार में !

गेहूं, जौ, मक्का, चावल के खेत लुटे, रो रहा किसान ,
हर घर में घुस गये लुटेरे, लूट ले गये सब सामान ,
रक्षक ही भक्षक बन बैठे, कुचल रहे हैं जनजीवन ,
कौन सुने फ़रियाद कि कितने घायल हैं हर तन और मन !

घर में चूहे दण्ड पलते, सन्नाटा हर द्वार में ,
एक अकेली सौदाई है मौत भरे बाज़ार में !

जनता के प्रतिनिधि से माँगी पागल प्राणों ने रोटी ,
लाठी, गोली, अश्रु गैस से बिखर गयी बोटी-बोटी ,
खुल कर खेल रही दानवता, सिसक उठी है मानवता ,
सड़कों, गलियों, चौराहों पर कुचली जाती है ममता !

सत्ता के मद में हैं अंधे बैठे जो सरकार में ,
एक अकेली सौदाई है मौत भरे बाज़ार में !

जब-जब माँगा रक्त चंडिका ने आई जनता भोली ,
उस प्यासी खप्पर वाली को दिया रक्त, भर दी झोली ,
फिर भी उसकी प्यास अमिट ही रही, निराली धुन पाई ,
घर के दीपक बलिवेदी पर भेंट चढ़ा कर इतराई !

अजब शान्ति और तृप्ति मिल रही उसको इस अधिकार में ,
एक अकेली सौदाई है मौत भरे बाज़ार में !


किरण

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

दो तस्वीरें


चित्रकार इक चित्र बनाना !
जिसके एक ओर उजड़ा अति दलित ग्राम दर्शाना !
चित्रकार इक चित्र बनाना !

टूटे-फूटे गृह हों न्यारे ,
झुलसे खेत वृक्ष हों सारे ,
अग्नी का साम्राज्य वहाँ हो ,
सर्वनाश का राज्य वहाँ हो ,
भूखे नन्हे बच्चों का हा "माँ-माँ" कह चिल्लाना !
चित्रकार इक चित्र बनाना !

दुखी कृषक बैठे मन मारे ,
क्षुधित प्राण दुर्बल बेचारे ,
कृषक पत्नियाँ भी बैठी हों ,
नयन नीर नदियाँ बहती हों ,
मानों आई देह धार कर करुणा ही दिखलाना !
चित्रकार इक चित्र बनाना !

दूजी ओर फिर यह दर्शाना ,
सुन्दर मंदिर एक सजाना ,
चारों ओर अग्नि हो जलती ,
मानों दूजा मंदिर ढलती ,
उसके भीतर प्रलयंकारी महाशक्ति बिठलाना !
चित्रकार इक चित्र बनाना !

नयनों से हो अग्नि उगलती ,
अट्टहास कर मानों हँसती ,
दन्तपंक्ति विद्युत सम शोभित ,
मुण्डमाल हिय पर हो दर्शित,
साड़ी लाल, रुधिर से लथपथ सारी देह दिखाना !
चित्रकार इक चित्र बनाना !

एक हाथ दलितों के ऊपर ,
दूजे कर में हो कृपाण खर ,
अभयदान दीनों को देती ,
अन्यायी को भय से भरती ,
तेज पराक्रम का अखण्ड साम्राज्य वहाँ दर्शाना !
चित्रकार इक चित्र बनाना !


किरण

चित्र गूगल से साभार !

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

कब तक यह वैषम्य पलेगा







वर्षों पूर्व रचित माँ की इस अद्भुत रचना को पढ़िए और स्वयं देखिये कि यह रचना आज के सन्दर्भों में भी आश्चर्य जनक रूप से कितनी प्रासंगिक है !







कब तक यह वैषम्य पलेगा !

जहाँ गगनचुम्बी प्रासाद हैं वहीं झोंपड़ी दीन बेचारी ,
जहाँ भरा वैभव कुबेर का वहीं दीखते विवश दुखारी ,
जहाँ व्यर्थ जलपान प्रीतिभोजों में लुटता षठ रस व्यंजन ,
वहीं बिलखते सूखे टुकड़ों को ये भूखे नग्न भिखारी !

अरे न्यायकारी बतला दो कब तक तेरी इस धरती पर ,
केवल अन्न वस्त्र पाने को दुखिया प्राणी स्वयं गलेगा !

कब तक यह वैषम्य पलेगा !

इधर बंद कमरों, ऊनी कपड़ों में ठण्ड मिटाई जाती ,
बिजली के पंखों के नीचे गर्मी दूर भगाई जाती ,
उधर कडकती सर्दी में भी दाब दांत होंठों के भीतर ,
और जेठ की कड़ी धूप में ही किस्मत अजमाई जाती !

इन जर्जर देहों में भी तो वही रक्त है, वही प्राण हैं ,
फिर भी इतना भेदभाव क्यों , क्या यह यूँ ही सदा चलेगा !

कब तक यह वैषम्य पलेगा !

मत देखो ये मोटर कारें , मत देखो ये महल अटारी ,
मत देखो होटल के कमरे , मत देखो धन मद अधिकारी ,
देखो अगर देख सकते हो ये नंगे भूखों की टोली ,
ये देखो बेकारों के घर , देखो ये श्रमिकों की खोली !

धन वैभव के अटल सिंधु में जीवन नौका खे लेने को ,
क्या उजड़े भोले मानव को बस साहस पतवार मिलेगा !

कब तक यह वैषम्य पलेगा !

है यह अपना देश और सरकार हमारी है, सब कहते ,
प्रश्न न रोटी का हल होता वर्षों बीत गये दुःख सहते ,
सदा तरसते और बिलखते रहे, न घूरे से दिन लौटे ,
आश्वासन की मृगमारीचिका में झेलीं अनगिनती चोटें !

अपना स्वत्व स्वयं पाने को अपने ही वोटों के बल पर ,
चुने गये सत्ताधारी से कब तक यह संघर्ष चलेगा !

कब तक यह वैषम्य पलेगा !


किरण

रविवार, 10 अप्रैल 2011

भारत माता

ओ अगाध ममता की देवी ओ मेरी भारत माता ,
अन्यायों से नहीं झुकेंगे तेरे वीर कष्ट त्राता !

तेरी भव्य मूर्ति अंकित है जनमानस में अविचल शांत ,
रूप अलौकिक, अभिनव, ज्योतिर्मय मुखमंडल किंचित् श्रांत !

शुभ्र केश राशि पर सज्जित हिम किरीट स्वर्णाभ सुघर ,
है ललाट पर अंकित कुंकुम चर्चित अमरनाथ मंदिर !

गिरी कज्जल की ललित रेख से सज्जित कजरारे नैना ,
काश्मीर की केसर क्यारी से सुरभित मधुरिम बैना !

पञ्च महानद के आभामय मुक्ता तव गलहार बने ,
गुर्जर, बंग वीर रत्नों से गर्वित तव भुजपाश तने !

हरित शालिवन से तेरे धानी आँचल में रत्न जड़े ,
विन्ध्य, सतपुड़ा, नीलगिरी के कटिबंधों से पुष्प झड़े !

महाराष्ट्र, मद्रास, युगल चरणों में गोदावरि नूपुर ,
कृष्णा , कावेरी की पायल में रुनझुन का मधुरिम स्वर !

महादेवी तव युगल चरण को महा सिंधु नित धोता है ,
तेरे इस वैभव पर माता अरि दल सर धुन रोता है !

तेरी रक्षा में बलिवेदी पर चढ़ चले वीर अगणित ,
त्यागी, प्रेमी, धीर, वीर, व्रतधारी, सक्षम, शांत, सुचित !

तेरे इस अक्षय वैभव को चोर चुराने नित आते ,
देख पहरुए सजग, कर्मरत दुखी निराश लौट जाते !

मेरे मन की यह अभिलाषा माँ कैसे मैं बतलाऊँ ,
पूजा की विधि नहीं जानती कैसे मंदिर तक आऊँ !

है इतनी ही साध हृदय की कुछ तेरी पूजा कर लूँ ,
तेरी इस अपरूप माधुरी को अपने उर में भर लूँ !

एक कामना है यह मेरी किसी बेल का फूल बनूँ ,
बलिदानी वीरों की पदरज में अपना नव नीड़ चुनूँ !


किरण

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

दर्पण

आज से माँ की दूसरी पुस्तक 'सतरंगिनी' की रचनाएं इस ब्लॉग पर अपने पाठकों के लिये उपलब्ध करा रही हूँ ! इन रचनाओं का कथ्य, इनकी अभिव्यक्ति और इनका कलेवर आपको पहले की रचनाओं से भिन्न मिलेगा और आशा करती हूँ ये रचनाएं भी आपको अवश्य पसंद आयेंगी !


आज अभावों की ज्वाला में
झुलसा हर इंसान रो दिया ,
अन्वेषण से थक नयनों ने
भू में करुणा पुन्ज बो दिया ,
कुछ ऐसे मौसम में साथी
यह खेती लहलहा उठी है ,
जग ने निर्ममता अपना ली
मानवता ने प्यार खो दिया !


किरण