सोचा यह मैंने इक
दिन, उपहार उन्हें क्या दूँ मैं ,
किस भाँति रिझा कर
प्रभु को, उनसे शुभ आशिष लूँ मैं !
कुछ चुन कर उर उपवन
से, कोमल मुकुलित कलियों को
इक हार बनाया मैंने,
फिर गूँथ-गूँथ कर उनको !
वह भव्य मूर्ति जब
देखी, नैनों से मैंने जाकर ,
तब छिपा लिया आँचल
में, उपहार तनिक सकुचा कर !
उस जीर्ण-शीर्ण पट
भीतर, जो तंदुल लख सकता था ,
तब हार छिपा वह कैसे,
आँचल में रह सकता था !
मैं सोच रही थी कैसे,
यह हार उन्हें पहनाऊँ ,
क्या कह कर मुरलीधर
को, मैं अपने पास बुलाऊँ !
वे मुस्काये लख
मुझको, मेरे इस पागलपन को ,
फिर ग्रहण किया वह
खुद ही, नीचे कर निज मस्तक को !
किरण
" मैंसोच रही थी कैसे यह हार उन्हें पहनाऊँ
जवाब देंहटाएंक्या कह कर मुरलीधर को अपने पास बुलाऊँ "
गहन अभिव्यक्ति |
आशा
ईश तुम्हें, यह शीश समर्पित
जवाब देंहटाएंमन सुदामा हो जाये फिर प्रभु दूर कहाँ होते हैं
जवाब देंहटाएंभावों के पुष्प भी उनके मन को हरते हैं ...
मैं सोच रही थी कैसे, यह हार उन्हें पहनाऊँ ,
जवाब देंहटाएंक्या कह कर मुरलीधर को, मैं अपने पास बुलाऊँ !
सुन्दर.....
बहुत सुन्दर....
यह स्वप्न भी पूरा हुआ ... :)
जवाब देंहटाएंआभार माँ का !
सुन्दर प्रस्तुति -
जवाब देंहटाएंआभार आदरेया ||
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंवे मुस्काये लख मुझको, मेरे इस पागलपन को ,
जवाब देंहटाएंफिर ग्रहण किया वह खुद ही, नीचे कर निज मस्तक को !
भावनायें भी मन की ... कहाँ - कहाँ क्या रूप धरती हैं अति-सुन्दर वर्णन
आपकी लेखनी भावमय करती हुई
सादर
bhagvaan to bhavna ke bhookhe hai..behtareen prastuti...
जवाब देंहटाएंऐसी भावनाओं का साथ रहा तो भगवन का आशीर्वाद सदा आपके सर पर रहेगा।
जवाब देंहटाएंभगवान् सिर्फ भक्ति का भूखा है ...जिसने सब दिया है उसे हम क्या देंगे ..सिर्फ कृतज्ञता होनी चाहिये ..कृतघ्नता होगी तो फिर भगवान् कहाँ. बेहद मार्मिक भक्तिमयी रचना सादर बधाई के साथ
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावमय करती हुई...............
जवाब देंहटाएंSahaj-saral-bhavpurn bhawo ki maala ko SriHari kaise na sweekarnge bhala***ati sunder
जवाब देंहटाएंSUNDER ATI SUNDER. MAAN KE BHAVO KO BGA GAYA.
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