कवि तुम ऐसी ज्योति जलाओ
जगमग जगमग जग हो जाये !
नील गगन के दीप सुनहरे
लाकर धरती पर बिखराओ ,
सप्त सिंधु की लोल लहरियों
पर जागृति का साज सजाओ ,
कवि तुम ऐसा राग सुनाओ
छोड़ उदासी सब मुस्कायें !
कवि तुम ऐसी ज्योति जलाओ
जगमग जगमग जग हो जाये !
बाल सूर्य की सुघर रश्मियाँ
लाकर कण-कण ज्योतित कर दो ,
अरुण उषा का पिला सोमरस
रागान्वित सबका मन कर दो ,
कवि तुम ऐसी बीन बजाओ
तन मन धन की सुधि खो जाये !
कवि तुम ऐसी ज्योति जलाओ
जगमग जगमग जग हो जाये !
शीतल स्वाति बूँद चुन-चुन कर
शान्ति सुधा रस ला बरसाओ ,
तप्त धरणी, संतप्त प्राण उर
में शीतलता आ फैलाओ ,
कवि तुम ऐसी प्रीति जगाओ
राग द्वेष सब क्षय हो जाये !
कवि तुम ऐसी ज्योति जलाओ
जगमग जगमग जग हो जाये !
किरण
गुरुवार, 28 जुलाई 2011
शुक्रवार, 22 जुलाई 2011
कृतघ्न मानव
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
प्रथम स्नेह का सम्बल देकर दीपक को भरमाया ,
सरल वर्तिका के जीवन को तिल-तिल कर जलवाया ,
जिसने ज्योति बिखेरी सब पर उसके तले अँधेरा ,
पर उपकारी इस दीपक ने जग से है क्या पाया !
इसने चुप-चुप जलना सीखा, जग ने इसे जलाना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
जिस माटी से अन्न उगा, जिसमें जीवन के कण हैं ,
मिलता अमृत सा जल जिसके अंतर से प्रतिक्षण है ,
किन्तु इसे ही व्यर्थ समझ कर सबने की अवहेला ,
जग के अत्याचारों के उस पर कितने ही व्रण हैं !
इसने पल-पल गलना सीखा, जग ने इसे गलाना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
निर्धन कृषकों की मेहनत का फल है सबने देखा ,
उसके अगणित उपकारों का कहो कहाँ पर लेखा ,
रूखी-सूखी खाकर वे औरों पर अन्न लुटाते ,
अंग-अंग से बहा पसीना, मुख स्मित की रेखा !
फिर भी इसने डरना सीखा, जग ने इसे डराना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
जिस नारी के रक्तदान से नर ने यह तन पाया ,
जिसने गीले में सोकर सूखे में इसे सुलाया ,
आज उसी को पशु बतला कर करते हाय अनादर ,
जिसने बरसों भूखी रह कर मन भर इसे खिलाया !
इसने केवल रोना जाना, जग ने इसे रुलाना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
किरण
प्रथम स्नेह का सम्बल देकर दीपक को भरमाया ,
सरल वर्तिका के जीवन को तिल-तिल कर जलवाया ,
जिसने ज्योति बिखेरी सब पर उसके तले अँधेरा ,
पर उपकारी इस दीपक ने जग से है क्या पाया !
इसने चुप-चुप जलना सीखा, जग ने इसे जलाना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
जिस माटी से अन्न उगा, जिसमें जीवन के कण हैं ,
मिलता अमृत सा जल जिसके अंतर से प्रतिक्षण है ,
किन्तु इसे ही व्यर्थ समझ कर सबने की अवहेला ,
जग के अत्याचारों के उस पर कितने ही व्रण हैं !
इसने पल-पल गलना सीखा, जग ने इसे गलाना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
निर्धन कृषकों की मेहनत का फल है सबने देखा ,
उसके अगणित उपकारों का कहो कहाँ पर लेखा ,
रूखी-सूखी खाकर वे औरों पर अन्न लुटाते ,
अंग-अंग से बहा पसीना, मुख स्मित की रेखा !
फिर भी इसने डरना सीखा, जग ने इसे डराना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
जिस नारी के रक्तदान से नर ने यह तन पाया ,
जिसने गीले में सोकर सूखे में इसे सुलाया ,
आज उसी को पशु बतला कर करते हाय अनादर ,
जिसने बरसों भूखी रह कर मन भर इसे खिलाया !
इसने केवल रोना जाना, जग ने इसे रुलाना !
निठुर मनुज की दानवता को कब किसने पहचाना !
किरण
मंगलवार, 5 जुलाई 2011
कहो क्यों कर बैठे हो मान
माँ की रचनाओं में से आज मैंने एक बहुत पुरानी रचना चुनी है ! इसका सृजन काल भारत के स्वतंत्र होने से पूर्व का है ! उस समय एक आम भारतीय किस विवशता, व्याकुलता एवं पीड़ा के मानस को भोग रहा था यह कविता उस वेदना को बड़े ही सशक्त तरीके से अभिव्यंजित करती है ! आशा है इस कविता का रसास्वादन आप सभी इसके रचनाकाल को ध्यान में रख कर करेंगे और उस पीड़ा के सहभागी बनेंगे जिसे हर भारतीय ने तब झेला था !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !
क्यों रूठे हो हाय बता दो हम तो हैं अनजान !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !
पराधीनता में जकड़ी है यह भारत संतान ,
दाने-दाने को तरसे है खोकर सब अभिमान ,
नित्य सहते हैं हम अपमान !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !
धन, वैभव, विद्या, बल, पौरुष पहुँचे इंग्लिस्तान ,
बुद्धि हुई है भ्रष्ट हमारी हृदय हुआ अज्ञान ,
बिसारा दया, धर्म अरु दान !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !
मृतक समान पड़े हैं हम सब खोकर जन, धन, मान ,
बस केवल उन्नति की आशा बचा रही है प्राण ,
हाय कब आओगे भगवान !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !
यदि अनजाने हुआ दयामय हमसे कुछ नुकसान ,
क्षमा करो अपराध कृपा कर विवश ना हो अवसान ,
कृपा कर दो स्वतन्त्रता दान !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !
किरण
क्यों रूठे हो हाय बता दो हम तो हैं अनजान !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !
पराधीनता में जकड़ी है यह भारत संतान ,
दाने-दाने को तरसे है खोकर सब अभिमान ,
नित्य सहते हैं हम अपमान !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !
धन, वैभव, विद्या, बल, पौरुष पहुँचे इंग्लिस्तान ,
बुद्धि हुई है भ्रष्ट हमारी हृदय हुआ अज्ञान ,
बिसारा दया, धर्म अरु दान !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !
मृतक समान पड़े हैं हम सब खोकर जन, धन, मान ,
बस केवल उन्नति की आशा बचा रही है प्राण ,
हाय कब आओगे भगवान !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !
यदि अनजाने हुआ दयामय हमसे कुछ नुकसान ,
क्षमा करो अपराध कृपा कर विवश ना हो अवसान ,
कृपा कर दो स्वतन्त्रता दान !
कहो क्यों कर बैठे हो मान !
किरण
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