तुम कहते यह फूली सरसों पृथ्वी पर नवयौवन लाई ,
पर मुझे दीखता रुग्ण धरा है पाण्डु रंग से सकुचाई !
तुमको फूले पलाश लगते प्रियतमा प्रकृति के आभूषण,
पर मुझे दग्ध अरमानों के लगते ये चमक रहे हैं कण !
क्यों तुम्हें प्रकृति का मदिर हास कोमल किसलय में दीख रहा,
मैं कहती पादप लुटा कोष हो दीन माँग अब भीख रहा !
मुकुलित पुष्पों की छटा देख कहते तारे फैले भू पर
मैं देख रही अवनि अंतर के व्रण ये झलक रहे ऊपर !
तुम कोकिल का पंचम स्वर सुन कहते गा स्वागत गीत रही,
मैं सोच रही यह बुला रही बिछुड़ा जो इसका मीत कहीं !
तुम कहते मलय पवन आक़र सुरभित कर जाता है कण-कण ,
मैं देख रही दुखिया उर से यह आह निकलती है प्रति क्षण !
लख आम्र बौर से लदी डाल तुम कहते नवजीवन आया ,
मैं सोच रही यह अमृत घट क्यों यहाँ स्वयं लुटने आया !
सुन-सुन गुंजन भौंरों का तुम कहते कितना मादक स्वर है ,
मैं कहती श्याम वस्त्र धारी स्यापे वालों का यह घर है !
जो बचपन, युवा, प्रौढ़ता की नश्वरता बता रहे गाकर ,
जब तक रस है सब अपने हैं फिर कौन यहाँ आता जाकर !
ये अपने-अपने भाव सखे, है दृष्टिकोण अपना-अपना ,
कहता इस जग को सत्य एक, कहता दूजा इसको सपना !
यदि यह ऋतुपति है, यही कहा जाता पृथ्वी का सत्य कंत ,
तो क्यों न सदा रहता भू पर, होता क्यों इसका शीघ्र अंत !
जिसकी थोथी मादक छवि का गुण गाते हैं कवि गण अनंत ,
क्या यही तुम्हारी है बहार, क्या यही तुम्हारा है वसन्त !
किरण
तुमको फूले पलाश लगते प्रियतमा प्रकृति के आभूषण,
पर मुझे दग्ध अरमानों के लगते ये चमक रहे हैं कण !
क्यों तुम्हें प्रकृति का मदिर हास कोमल किसलय में दीख रहा,
मैं कहती पादप लुटा कोष हो दीन माँग अब भीख रहा !
मुकुलित पुष्पों की छटा देख कहते तारे फैले भू पर
मैं देख रही अवनि अंतर के व्रण ये झलक रहे ऊपर !
तुम कोकिल का पंचम स्वर सुन कहते गा स्वागत गीत रही,
मैं सोच रही यह बुला रही बिछुड़ा जो इसका मीत कहीं !
तुम कहते मलय पवन आक़र सुरभित कर जाता है कण-कण ,
मैं देख रही दुखिया उर से यह आह निकलती है प्रति क्षण !
लख आम्र बौर से लदी डाल तुम कहते नवजीवन आया ,
मैं सोच रही यह अमृत घट क्यों यहाँ स्वयं लुटने आया !
सुन-सुन गुंजन भौंरों का तुम कहते कितना मादक स्वर है ,
मैं कहती श्याम वस्त्र धारी स्यापे वालों का यह घर है !
जो बचपन, युवा, प्रौढ़ता की नश्वरता बता रहे गाकर ,
जब तक रस है सब अपने हैं फिर कौन यहाँ आता जाकर !
ये अपने-अपने भाव सखे, है दृष्टिकोण अपना-अपना ,
कहता इस जग को सत्य एक, कहता दूजा इसको सपना !
यदि यह ऋतुपति है, यही कहा जाता पृथ्वी का सत्य कंत ,
तो क्यों न सदा रहता भू पर, होता क्यों इसका शीघ्र अंत !
जिसकी थोथी मादक छवि का गुण गाते हैं कवि गण अनंत ,
क्या यही तुम्हारी है बहार, क्या यही तुम्हारा है वसन्त !
किरण
बसंत पर प्रकृति के सुन्दर वर्णन के साथ मन के उद्विग्न से भाव व्यक्त करती सुन्दर रचना ...बहुत अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंक्या बात है...बहुत ही सुंदर...वसंत के आगमन की सार्थकता दर्शाती आपकी रचना.....विविध भावों से परिपूर्ण।
जवाब देंहटाएंवसंत के आगमन की सार्थकता दर्शाती आपकी रचना बहुत अच्छी लगी|धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंवसंत के आगमन का अहसास दिलाने के लिए मनभावन प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंआशा
बहुत ही खूबसूरत भावमय करती शब्द रचना ।
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक प्रस्तुति..बहुत भावपूर्ण
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 01- 02- 2011
जवाब देंहटाएंको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
कवियत्री का प्रश्न सार्थक है...एक कवि-मन वह सबकुछ देख लेता है और व्यथित हो जाता है....जो लोगो की नज़रों में नहीं आते
जवाब देंहटाएंयदि यह ऋतुपति है, यही कहा जाता पृथ्वी का सत्य कंत ,
तो क्यों न सदा रहता भू पर, होता क्यों इसका शीघ्र अंत !
सच ऋतुपति इतने कम दिनों के लिए क्यूँ आते हैं भू पर
एक कवि के मन की बात उभारती बहुत सुंदर कविता धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबसन्त पर बहुत सशक्त अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंआपकी मात जी की रचनाएँ आज भी प्रासंगिक है!
adbhud.
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया
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