बुधवार, 28 दिसंबर 2011

विजय मुकुट पहनायेंगे

आज माँ की काव्य मंजूषा से एक अनमोल रचना आपके लिये प्रस्तुत कर रही हूँ ! इसका सृजनकाल भारत की स्वतन्त्रता से पूर्व का है ! माँ की लेखनी की धार कितनी प्रखर और उनकी रचना का कथ्य कितना प्रेरक है इसका आकलन आप स्वयं करें और रचना का आनद उठायें !

आशायें हैं मुझे हँसाती भारत मेरे जीवन धन ,
आज नहीं तो कल तक तेरे कट जायेंगे सब बंधन !

तू स्वतंत्र होगा गूँजेगी घर-घर तेरी जय जयकार ,
विजय पताका फहराएगी कीर्ति दीप्त शोभा साकार !

मचल पड़े फिर मृत्युलोक में आने को वे तेरे लाल ,
भीष्म, भीम, अर्जुन, प्रताप, अभिमन्यु, शिवाजी, मोतीलाल !

हम सब पहन केसरी बाना साका साज सजायेंगे ,
अब भी भारत शून्य नहीं वीरों से यह दिखलायेंगे !

आज शिवा, दुर्गा, चामुण्डा देशभक्त ये वीर सुभट ,
ढिल्लन, सहगल, शाहनवाज़, सेनापति बन कर हुए प्रकट !

चमक पड़ी है अब कण-कण में बन स्वतन्त्रता चिनगारी ,
उमड़ उठे हैं शस्त्र उठाने बालक, वृद्ध, युवा, नारी !

पुन: पूर्व गौरव का तेरे मस्तक तिलक लगायेंगे ,
प्यारे भारत शीघ्र तुझे हम विजय मुकुट पहनायेंगे !

दे आशीष बढ़ा पग आगे विजय ध्वजा फहरायें हम ,
मातृभूमि पर हँसते-हँसते मस्तक भेंट चढायें हम !


किरण





शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

साध

लेकर के उर में एक साध !

मैं आई तेरे द्वार आज
पूरण कर मेरी अमिट चाह ,
सुस्मित अधरों से एक बार
दे बहा मधुर ध्वनि का प्रवाह ,

भर जाये प्रेम सागर अगाध !
कर पूरण मेरी अमर साध !

ऐसा मृदु मंजुल राग बजा ,
अविराम अचल अविरल अनंत ,
नीरस जग जीवन में फिर से
छा जाये कुसुमित नव वसन्त ,

मिट जावे जग से चिर विवाद !
कर पूरण मेरी अमर साध !

वन-वन उपवन गृह नगर-डगर
सौरभमय जिससे दिग्दिगंत ,
वितरित कर अपनी मलय पवन
सुरभित श्वांसों से रे अनंत ,

रे नहीं तुझे कुछ भी असाध !
कर पूरण मेरी अमर साध !

जग नयनों की जलधारा से
कर लेता तेरे पग पखार ,
जग की आहें बन कर पराग
पहुँचें तुझ तक कर क्षितिज पार ,

निर्विघ्न चली जायें अबाध !
कर पूरण मेरी अमर साध !

हो जाये तरल तेरी करुणा
दुखियों पर बरबस पड़े बरस ,
लहलहा उठें सूखे जीवन
हो जायें मधुर, हो उठें सरस ,

निर्जीव बने नैराश्य व्याध !
कर पूरण मेरी अमर साध !

आनंद प्रेम से मतवाली
फिर चहक उठे दुनिया भोली ,
करुणामय करुणा कर इतनी
भर दे मेरी रीती झोली ,

मैं आई लेकर एक साध !
कर पूरण मेरी अमर साध !


किरण

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

आशा

देव ! तुम्हारा ध्यान हृदय में कई बार आता ,
नयी इक ज्योति जगा जाता ,
मान का कमल खिला जाता ,
योजना नयी बना जाता ,
दे जाता है अहा हृदय को वह सांत्वना महान ,
भूल जाती हूँ दुःख अपमान !

निराशा होती जीवन में ,
दुःख हो जाता है मन में ,
रोग लग जाते हैं तन में ,
तेल घटता है क्षण-क्षण में ,
तभी शीघ्र आ जाता प्रियतम अहा तुम्हारा ध्यान ,
फूल उठता है हृदयोद्यान !


किरण

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

माँ का चित्र


चतुर चितेरे अंकित कर दे
माँ का ऐसा रूप महान् ,
चित्रपटी पर रच दे सुन्दर
नयन नीर, मुख पर मुस्कान !

संसृति के विशाल प्रांगण में
ऐसा अद्भुत तने वितान ,
विजयोत्सव का दशों दिशा में
गूँजे अविरल शाश्वत गान !

रचना मरकत का सिंहासन
कदलि खम्भ चहुँ ओर सजे ,
देव देहधारी मनुजों से
अमरावति का रूप लजे !

सित वसना सुन्दरी एक
दिखलाना सिंहासन आसीन ,
पीत कमल, मुख पर स्मित की
खिली हुई हो रेखा क्षीण !

चित्रकार उस महिमामयी पर
बीते हों जितने दुःख भार ,
क्षत-विक्षत वृणपूर्ण देह में
दिखलाना दृढ़ धैर्य अपार !

नव आगत सुख के स्वागत में
झंकृत उर तंत्री के तार ,
ढुलकाना स्निग्ध नयन से
उर का सारा संचित प्यार !

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा
लहर-लहर लहराता हो ,
सत् रज तम तीनों भावों को
संसृति में फैलाता हो !

ध्वनि-प्रतिध्वनि होवे त्रिलोक में
भारत माँ का जय जयकार ,
ऐसा सुन्दर सत्य चित्र रच
बन जाओ गुण के आगार !


किरण




शनिवार, 3 दिसंबर 2011

उस पार


नभ गंगा की चारु चमक में
देख सखी एकांत विचार ,
पीत वसन, धर अधर मुरलिका
रख कर गौ पर कर का भार !

बने त्रिभंगी सुना रहे कुछ
अर्जुन को अर्जुन के गीत ,
तभी उठ रहा तारक द्युति से
मधुर-मधुर मधुमय संगीत !

यह जगमग आधीन पार्थ है
प्राणी तो बस साधन है ,
भ्रम है, व्यर्थ मोह है जग में
क्षण स्थाई जीवन है !

इसी भाँति संसृति के क्रम में
जीवन धन हैं बता रहे ,
भूले पथ पर चलने वालों को
सुराह हैं बता रहे !

हम भी भूले हैं पथ सजनी
भूले प्रियतम करुणागार ,
चलो ढूँढने चलें , "कहाँ ?"
"इस नभ गंगा के भी उस पार !"


किरण