रविवार, 30 जनवरी 2011

क्या यही तुम्हारा है वसन्त

तुम कहते यह फूली सरसों पृथ्वी पर नवयौवन लाई ,
पर मुझे दीखता रुग्ण धरा है पाण्डु रंग से सकुचाई !

तुमको फूले पलाश लगते प्रियतमा प्रकृति के आभूषण,
पर मुझे दग्ध अरमानों के लगते ये चमक रहे हैं कण !

क्यों तुम्हें प्रकृति का मदिर हास कोमल किसलय में दीख रहा,
मैं कहती पादप लुटा कोष हो दीन माँग अब भीख रहा !

मुकुलित पुष्पों की छटा देख कहते तारे फैले भू पर
मैं देख रही अवनि अंतर के व्रण ये झलक रहे ऊपर !

तुम कोकिल का पंचम स्वर सुन कहते गा स्वागत गीत रही,
मैं सोच रही यह बुला रही बिछुड़ा जो इसका मीत कहीं !

तुम कहते मलय पवन आक़र सुरभित कर जाता है कण-कण ,
मैं देख रही दुखिया उर से यह आह निकलती है प्रति क्षण !

लख आम्र बौर से लदी डाल तुम कहते नवजीवन आया ,
मैं सोच रही यह अमृत घट क्यों यहाँ स्वयं लुटने आया !

सुन-सुन गुंजन भौंरों का तुम कहते कितना मादक स्वर है ,
मैं कहती श्याम वस्त्र धारी स्यापे वालों का यह घर है !

जो बचपन, युवा, प्रौढ़ता की नश्वरता बता रहे गाकर ,
जब तक रस है सब अपने हैं फिर कौन यहाँ आता जाकर !

ये अपने-अपने भाव सखे, है दृष्टिकोण अपना-अपना ,
कहता इस जग को सत्य एक, कहता दूजा इसको सपना !

यदि यह ऋतुपति है, यही कहा जाता पृथ्वी का सत्य कंत ,
तो क्यों न सदा रहता भू पर, होता क्यों इसका शीघ्र अंत !

जिसकी थोथी मादक छवि का गुण गाते हैं कवि गण अनंत ,
क्या यही तुम्हारी है बहार, क्या यही तुम्हारा है वसन्त !

किरण












शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

कलिका के प्रति

री इठलाती क्यों बार-बार !
मदमस्त हुई चंचल कलिके,
क्यों झूल रही तू डार-डार !

री इठलाती क्यों बार-बार !

टुक दे तो ध्यान अरी पगली
क्या जीवन का है अर्थ अरे,
क्यों व्यर्थ गर्व में दीवानी
तू निज तन में सौंदर्य भरे,
ओ मतवाली ले नयन खोल
बस है जीवन में हार-हार !

री इठलाती क्यों बार-बार !

है अभी बालपन भोला सा
पर सजनि रहेगा सदा नहीं,
आयेगा मतवाला यौवन
जो ले जायेगा तुझे कहीं,
आयेंगे प्रेमी मधुप सखी
दो एक नहीं हाँ चार-चार !

री इठलाती क्यों बार-बार !

वे भरे स्वार्थ से मतवाले
तव सुषमा लूट चुकेंगे जब,
उड़ जायेंगे फिर दूर दिशा
तेरी मनुहार करेंगे कब,
हो जायेगा मधुरे तेरा
यह सुन्दर यौवन भार-भार !

री इठलाती क्यों बार-बार !

आवेगा बन प्रचण्ड झंझा
बहता रहता जो मलयानिल,
शीतलता देती चन्द्रकिरण
तब बन जायेगी अरी अनल,
गिर जायेगी फिर धरिणी पर
हाँ हो करके तू छार-छार !

री इठलाती क्यों बार-बार !

कर मर-मर शब्द कथा अपनी
फिर कहा करेंगे अंग तेरे ,
उड़ करके आँधी के संग हा
मिट जायेंगे अरमान भरे ,
कहने सुनने को कथा तेरी
रह जायेगी बस सार-सार !

री इठलाती क्यों बार-बार !


किरण

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

अमर रहे यह गणतंत्र

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर माँ की लिखी यह कविता आप सबके लिये उपलब्ध करा रही हूँ ! आशा है आपको पसंद आयेगी !

क्यों उषा की लालिमा मुसका रही है,
क्यों निशा की कालिमा सकुचा रही है,
कर रहीं शहनाइयाँ क्यों मधुर सा रव,
क्यों मृदुल स्वर से प्रभाती गा रही है !

क्यों वसंती पवन यह बौरा रहा है,
क्यों कली पर झूम यह भौंरा रहा है,
क्यों गगन में मन रही दीवालियाँ हैं,
सूर्य क्यों अद्भुत प्रभा फैला रहा है !

कोकिला किनकी गुणावलि गा रही है,
कीर्ति किनकी गगन को गुन्जा रही है,
सप्त सागर जलांजलि देते किन्हें हैं,
जाह्नवी की क्यों लहर गरुवा रही है !

यह विजय उत्सव मनाया जा रहा है,
हर्ष का सौरभ लुटाया जा रहा है,
आज है गणतंत्र दिन इस हिंद का,
अमर वीरों को बुलाया जा रहा है !

यह विजय हमको बड़ी मँहगी पड़ी है,
भेंट अगणित प्राण की देनी पड़ी है,
फल गयी हैं आज सब कुर्बानियाँ वे,
यातना झेली, व्यथा सहनी पड़ी है !

उन शहीदों की चिता पर बढ़ चलो जन,
दीप श्रद्धा के जला कर ले चलो जन,
भेंट कर दो भावना के पुष्प मंजुल,
अभय हो गणतंत्र यह वर माँग लो जन !

जय भारत ! जय गणतंत्र ! वंदे मातरम !

किरण

बुधवार, 19 जनवरी 2011

कर लेना भूले से याद

सखे तुम्हारे उर प्रदेश में
जब स्मृति का ज्वार नहीं ,
मेरे इस दुखिया जीवन की
तुच्छ भेंट स्वीकार नहीं !

पागल उर में अरमानों का
साज सजा फिर क्या होगा ,
तिमिरावृत कुटिया में आशादीप
जला कर क्या होगा !

छल-छल करके नयन कटोरे
स्नेह वारि ढुलका देंगे ,
मधुर स्वप्न जब वियोगाग्नि को
और अधिक भड़का देंगे !

दूर बसे तुम, दूर तुम्हारी
स्मृति भी करनी होगी ,
अंतरतम की भग्न दीवालें
आहों से भरनी होंगी !

अब सुखियों की संसृति में
पागल जीवन का क्या होगा ,
हँसने वालों के जमघट में
रोते मन का क्या होगा !

धरा धराधर के अधरों में
मधुर मिलन मुस्कायेगा ,
सांध्य सुन्दरी का सुन्दर मुख
लज्जित हो झुक जायेगा !

तब मीठी सी याद किसी की
पीड़ा बन बस जायेगी ,
रजनी सी निर्जीव कालिमा
जीवन तट पर छायेगी !

तब हताश अस्ताचलगामी
चन्द्र बिम्ब का लख अवसाद ,
सखे कभी इस तुच्छ हृदय की
'भूले से कर लेना याद !'


किरण

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

अनोखा संसार

तुमने आ मेरे जीवन में रचा नया संसार
अनोखा स्वप्नों का संसार ,
निराला स्वप्नों का संसार !

यहाँ मचलती इठलाती सरिता में बहती आहें,
यहाँ बीन की झंकारों में खोती कसक कराहें,
यहाँ प्यार के प्यासे तट रह जाते फैला बाहें,
यहाँ थिरकती मुस्कानों में छिपी निराश निगाहें !

यहाँ मचलता अग्निशिखा पर परवानों का प्यार !
अनोखा स्वप्नों का संसार,
निराला स्वप्नों का संसार !

यहाँ अंगारों में चंदा को पाती मस्त चकोरी,
यहाँ वियोगिनी चकवी करती सूर्य किरण की चोरी,
यहाँ अमा की गहन रात्रि में जलती सुख की होरी,
यहाँ स्वाति पर बलि होता पागल चातक बरजोरी !

यहाँ खिलखिलाता काँटों में कलियों का अभिसार !
अनोखा स्वप्नों का संसार,
निराला स्वप्नों का संसार !

यहाँ भँवर से खेल रही जीवन नौका सुखसानी,
यहाँ पुष्प के मिट जाने पर अलि गाते आभिमानी,
यहाँ मुस्कुराते नयनों से गिरता रिमझिम पानी,
इस सूखे मरुथल में आकर यह मधु ऋतु बौरानी !

यहाँ सिसकते अरमानों में है जग का श्रृंगार !
अनोखा स्वप्नों का संसार,
निराला स्वप्नों का संसार !

यहाँ विषमता समता में नित होती है रंगरेली,
यहाँ निराशा आशा पर छा जाती निपट अकेली,
यहाँ लुटा करती वैभव पर मानवता अलबेली,
यहाँ दीनता की करुणा बन जाती सहज सहेली !

यहाँ विवशता झुलसा जाती भाव कुञ्ज सुकुमार !
अनोखा स्वप्नों का संसार ,
निराला स्वप्नों का संसार !

किरण

शनिवार, 8 जनवरी 2011

कल्पना की कान्त कोकिल

कल्पना की कान्त कोकिल कुहुकना नित रैन बासर !

जब सुभावों से हृदय हो शून्य रो-रो प्राण खोये,
नयन निर्झरिणी उमड़ कर स्मृति पट को नित भिगोये,
तब सुनाना सुखद, मंगल मधुर आश्वासन दिलाना,
दूर कर नैराश्य तम को, आश का दीपक जलाना,
मुखर कोकिल कुहुकना निज प्राण में नव ओज भर कर !

कल्पना की कान्त कोकिल कुहुकना निज रैन बासर !

जब भयानक अन्न संकट घेर ले चहुँ ओर आकर,
अस्थि पंजर शेष मनुजाकृति क्षुधा से तिलमिला कर,
एक दाना देख कर झपटें, तड़प कर प्राण खोयें,
देख बलि निज बांधवों की अश्रुजल से उर भिगोयें,
फूँक देना प्राण उनमें सुखद स्वप्नों को दिखा कर !

कल्पना की कान्त कोकिल कुहुकना नित रैन बासर !

जब किसी अपराध में बंदी पड़ा हो कोई भी जन,
याद कर निज स्नेहियों की दुखी उसके प्राण औ मन,
विवशता के पाश को असमर्थ हो वह काटने में,
हो अकेला, कोई भी साथी न हो दुःख बाँटने में,
तब सुला देना उसे दे थपकियाँ लोरी सुना कर !

कल्पना की कान्त कोकिल कुहुकना नित रैन बासर !

किरण

रविवार, 2 जनवरी 2011

प्राण तुम्हारे नयनों में

प्राण तुम्हारे नयनों में मैं
खोज रही कुछ सुख का स्त्रोत,
दीन निर्धनों की आहों से
करुणामय हो ओत-प्रोत !

आज हृदय में शक्ति न इतनी
नयनों का अभिसार करूँ,
प्रणय सिंधु के तीर खड़ी मैं
कैसे तुमको प्यार करूँ !

मुझे बुलाती अट्टहास कर
उन लहरों की तीव्र पुकार,
स्वयम् बिखर जाती टकरा कर
चट्टानों से हो जो छार !

आज सहोदर भ्राताओं में
है कितना वैषम्य महान्,
एक झुक रहा है चरणों में
और दूसरा लिये कृपाण !

सुख की सेज, राजसी भोजन
वस्त्रों से पूरित भण्डार,
एक सुखी है और दूसरा
नंगे भूखों का सरदार !

भूखे नन्हे बच्चों की वे
करुण पुकारें उठ कर आज,
अंतरिक्ष से जा टकरातीं
और लौटतीं बेआवाज़ !

दुःख के भीषण अंधकार में
सुख की किरण न पहुँची एक,
नयनों का निर्झर झर करता
दरिद्र देव का है अभिषेक !

हृदय कष्ट से रो-रो उठता
पर कैसे प्रतिकार करूँ ,
दुखियारे मानव समाज पर
दया करूँ या प्यार करूँ !

किरण