रविवार, 30 मई 2010

रीते आँगन का सूनापन

रीते आँगन का सूनापन
भर जाता दसों दिशाओं में,
विगलित हो जाता है कण-कण !
रीते आँगन का सूनापन !

नव पल्लव आच्छादित पीपल
रक्तिम तन सिसकी सी भरता,
सूने कोटर के पास बया
चंचल हो परिक्रमा करता,
उसके नन्हे-मुन्नों के स्वर
ना उसे सुनाई देते हैं,
पीपल की नंगी बाहों पर
नि:संग उसाँसें लेते हैं,
उनके अंतर की व्यथा कथा
नि:स्वर भर जाती अंतर्मन !
रीते आँगन का सूनापन !

क्षण भर को कोकिल आ करके
उनको आश्वासन दे जाती,
तोतों, मोरों, चिड़ियों की धुन
भी पीर न मन की हर पाती,
बढ़ जाती और वेदना ही
नयनों में सावन की रिमझिम,
स्वांसों में दुःख की शहनाई
बज उठती है हर पल हर क्षण,
इन सबमें सुख की क्षीण किरण
पा लेता मेरा पागल मन !
रीते आँगन का सूनापन !

किरण

शुक्रवार, 28 मई 2010

उर की डाली

हा सूखी उर की डाली !
आज गया है रूठ अनोखा इस उपवन का माली !
हा सूखी उर की डाली !

स्वाँस पवन की शीतलता से मिटा न उसका ताप,
आशा की किरणें आकर के बढ़ा गयीं संताप,
नयन सरोवर लुटकर भी हा कर न सके हरियाली !
हा सूखी उर की डाली !

भाव कुसुम अधखिली कली भी हाय न होने पाये,
असमय में ही विरह ज्वाल में दग्ध हुए मुरझाये,
शब्द पल्लवों से आच्छादित काव्य-कुञ्ज हैं खाली !
हा सूखी उर की डाली !

किरण

बुधवार, 26 मई 2010

* तारे *

ये रजनी के उर क्षत सजनी !

चम-चम करते रहते प्रतिपल,
झर-झर झरते रहते हर क्षण,
पी-पी कर ह्रदय रक्त पागल
ये लाल बने रहते सजनी !
ये रजनी के उर क्षत सजनी !

वह दीवानी ना जान सकी,
पागल सुख के क्षण पा न सकी,
सूने उर में भर अंधकार
जग को चिर सुख देती सजनी !
ये रजनी के उर क्षत सजनी !

दुखिया जीवन में हाय न कुछ,
रोना, रोकर खोना सब कुछ,
सीखा रजनी से मैंने भी
यह धैर्य अटल अद्भुत सजनी !
ये रजनी के उर क्षत सजनी !

उसके उर क्षत मेरे वे पथ,
औ प्रिय नयनों के बने सुरथ,
मेरे ये उत्सुक नयन वहाँ
उनको लख सुख पाते सजनी !
ये रजनी के उर क्षत सजनी !

किरण

रविवार, 23 मई 2010

साथी मेरे गीत खो गए !

साथी मेरे गीत खो गए !

उस दिन चन्दा अलसाया था,
मेरे अंगना में आया था,
किरणों के तारों पर उसने
धीमे-धीमे कुछ गाया था !
जग के नयनों में स्वप्नों के,
साज सजे, विश्वास सो गए !
साथी मेरे गीत खो गए !

रजनी थी सुख से मुस्काई,
मधु ऋतु में फूली अमराई,
शांत कोटरों में सोई कोकिल
ने फिर से ली अंगड़ाई !
पीत पत्र बिखरे पेड़ों के,
अस्त-व्यस्त श्रृंगार हो गए !
साथी मेरे गीत खो गए !

किरण

शुक्रवार, 21 मई 2010

स्वप्न आते रहे

चाँद तारे दीवाली मनाते रहे,
रात जगती रही स्वप्न आते रहे !

चंद्रिका ने दिया आँसुओं को लुटा,
उनको ऊषा ने निज माँग में भर लिया,
पुष्प झरते रहे, वृक्ष लुटते रहे,
भ्रमर आते रहे, गुनगुनाते रहे !
चाँद तारे दीवाली मनाते रहे,
रात जगती रही, स्वप्न आते रहे !

छोड़ हिम को सरित बह चली चंचला,
सिंधु की शांत सुषमा ने उसको छला,
वीचि हँसती रही, खिलखिलाती रही,
तट उन्हें बाँह फैला बुलाते रहे !
चाँद तारे दीवाली मनाते रहे,
रात जगती रही स्वप्न आते रहे !

कुहुक कर कोकिला के कहा “कौन है ?’
“पी कहाँ”, कह पपीहा हुआ मौन है,
मेघ उत्तर न देकर बिलखते रहे,
मोर उन्मत्त खुशियाँ मनाते रहे !
चाँद तारे दीवाली मनाते रहे,
रात जगती रही स्वप्न आते रहे !

सृष्टि का क्रम सदा से विषम ही रहा,
सुख औ दुख का जो समन्वय रहा,
कुछ तड़पते रहे, कुछ बिलखते रहे,
कुछ मिटा और को सुख सजाते रहे !
चाँद तारे दीवाली मनाते रहे,
रात रोती रही स्वप्न आते रहे !

किरण

बुधवार, 19 मई 2010

सखी न कुछ भी भाता आज !

सखी न कुछ भी भाता आज !
गुंजित मधुर कूक कोयल की,
मादक अलियों का सरसाज !
सखी न कुछ भी भाता आज !

आज न भाता मदिर भाव से
प्रमुदित ऊषा का आना,
आज न भाता मृदु मलयानिल
का सुमनों को छू जाना,
अरी न भाती चंद्र ज्योत्सना
और न रजनी का प्रिय साज !
सखी न कुछ भी भाता आज !

आज न जाने कैसा मन है,
कैसा है संसृति का राग,
मेरी उर वीणा से प्रतिपल,
झंकृत क्यों है करूण विहाग,
हुआ न जाने क्या री मुझको
भूली हूँ सारे ही काज !
सखी न कुछ भी भाता आज !

चलित चित्र से मधुर गत दिवस
क्यों आते स्मृति में आज,
उत्सुक हो उन्मत्त नयन क्यों
सजा रहे हैं नव सुख साज,
अश्रु लुटाते पल क्षण जीवन,
छाया असफलता का राज !
सखी न कुछ भी भाता आज !

किरण

रविवार, 16 मई 2010

हताशा

तुम न आये मैं तुम्हारी बाट ही तकती रही,
और स्वागत को तुम्हारे साज नव सजती रही !
तुम न आये सूर्य की अंतिम किरण भी खो गयी है,
तुम न आये चन्द्र की यह ज्योत्सना भी सो गयी है !
तुम न आये पर निशा ने कालिमा जग पर बिछा दी,
तुम न आये फिर उषा ने अरुणिमा भू पर लुटा दी !
तुम न आये कामना की कली भी मुरझा चली है,
तुम न आये साधना की श्रंखला सकुचा चली है !
तुम न आये लगन की डोरी ह्रदय की टूटती है,
तुम न आये सब्र की पतवार कर से छूटती है !
तुम न आये नाव जीवन की अतल में जा रही है,
तुम न आये ज्योति आशा की तिमिर से छा रही है !
तुम अगर आते मनुज की भावना सूनी न रहती,
तुम अगर आते धरा की विकलता दूनी न रहती !
किन्तु मानव की पुकारें लौट आईं तुम न आये,
और धरती की कराहें लौट आईं तुम न आये !
द्वार पर जा मंदिरों के लौट आई तुम न आये,
तुम रहे पाषाण ही क्यों देवता तुम बन न पाए !

किरण

शुक्रवार, 14 मई 2010

कारवाँ संहार का

रो रही है सर पटक कर ज़िंदगी
और बढता जा रहा है कारवाँ संहार का !

कंठ में भर स्वर प्रभाती का मधुर
अलस कलिका संग कीलित नव उषा,
खिलखिलाती आ गयी जब अवनितल
देख उसका लास यह बोली निशा,
ह्रास मेरा दे रहा जीवन तुझे,
क्रम यही है निर्दयी संसार का !
रो रही है सर पटक कर ज़िंदगी
और बढता जा रहा है कारवाँ संहार का !

छोड़ हिमगिरी अंक को उन्मत्त सी
उमड़ कर सरिता त्वरित गति बह चली,
माँगते ही रह गए तट स्नेह जल,
बालुका का दान रूखा दे चली,
जब मिटा अस्तित्व सागर अंक में
कह उठी, ‘है अंत पागल प्यार का’ !
रो रही है सर पटक कर ज़िंदगी
और बढता जा रहा है कारवाँ संहार का !

जन्म पर ही मृत्यु ने जतला दिया
सृजन पर है नाश का पहला चरण,
क्षितिज में अस्तित्व मिटता धरिणी का,
खिलखिलाता व्योम कर उसका हरण,
अश्रु जल ढोता सदा ही भार है,
प्रेम का और हर्ष के अभिसार का !
रो रही है सर पटक कर ज़न्दगी,
और बढता जा रहा है कारवाँ संहार का !

किरण

गुरुवार, 13 मई 2010

आकांक्षा

अश्रु मेरी अमर निधि हैं, तुम मधुर मुस्कान ले लो,
किन्तु प्रियतम तुम न मेरे भग्न उर के साथ खेलो !

है मुझे अभिशाप ही प्रिय आस क्यों वरदान की फिर,
क्या कभी सुखमय पलों की कल्पना रह सकी स्थिर !

अब न उतनी शक्ति मुझमें सह सकूँ अवहेलना प्रिय,
और साहस भी न इतना कह सकूँ जो वेदना प्रिय !

मैं न दीपक ही बनी जो ज्वाल प्राणों में सँजोती,
और पागल शलभ भी ना बन सकी जो प्राण खोती !

मैं कलंकी चन्द्र के संग क्षीण क्षण-क्षण हो रही हूँ,
सखे वारिद की कनी बन भार दुःख का ढो रही हूँ !

खिलें जग में फूल सुख के, चुन रही मैं शूल साथी,
व्यथित उर आँसू लुटाता, हँस रहा जग निठुर साथी !

पुष्प वे ही धन्य हैं प्रिय कंठ की जो माल होते,
स्वेद सौरभ से लिपट कर स्नेह सरि में दुःख डुबोते !

चाहती पर मैं न बनना पुष्प जो प्रिय उर लगायें,
धूलि कण ही बन सकूँ जो प्रिय चरण में लिपट जायें !

किरण

मंगलवार, 11 मई 2010

साँझ घिर आई प्रवासी !

साँझ घिर आई प्रवासी !
तुम न आये, छा गयी जग पर न जाने कब उदासी !
साँझ घिर आई प्रवासी !

ह्रदय में तूफ़ान मचले, नयन में वारिद घनेरे,
बढ़ गए पश्चिम दिशा में निविड़ तम के व्यस्त घेरे,
तरसती है सिंधु तट पर मीन भी व्याकुल पियासी !
साँझ घिर आई प्रवासी !

चंद्रिका की सेज के बिखरे गगन में पुष्प सारे,
निशा विरहाकुल बिलखती गगन गंगा के किनारे,
चन्द्र की आकृति जलाती लाल लोहे के तवा सी !
साँझ घिर आई प्रवासी !

मनुज, पशु, पक्षी सभी अपने घरों में शांत सोते,
स्नेह सुख में लींन, निज श्रम बिंदु परिजन बीच खोते,
एक तुम ही भूल बैठे पंथ घर का दूर वासी !
साँझ घिर आई प्रवासी !

किरण

रविवार, 9 मई 2010

बासी फूल

मैं पतझड़ का बासी फूल !
चढ़ न सकूँगी देव मूर्ति पर, मिटना होगा बन कर धूल !
मैं पतझड़ का बासी फूल !

प्रिय के युगल चरण साकार, सह न सकेंगे मेरा भार,
सौरभ हीन शून्य जीवन मम, इसे सजाना है बेकार,
कान्त कल्पना प्रिय चरणों पर चढ़ने की, थी मेरी भूल !
मैं पतझड़ का बासी फूल !

शून्य सदा मेरा उर अंतर, शून्य मेघ, निर्मल है अम्बर,
गगन पंथ में चढ़ता ढलता शांत चन्द्र, उत्तप्त दिवाकर,
मेरी भाव लहरियों से टकराता उर सागर का कूल !
मैं पतझड़ का बासी फूल !

विस्मृति मुझे जगा कर जाती, स्मृति मुझे रुला कर जाती,
सुप्त दशा में जागृति का सुख सदा ध्यान में प्रिय के पाती,
जब स्थिर नयनों के झूले में प्रिय आकर जाते झूल !
मैं पतझड़ का बासी फूल !

किन्तु निराशा का आधार मेरे लिए सदा साकार,
आशा का छल मुझे दिखाता प्रियतम का मृगजल सा प्यार,
अपने को खोकर उनको ही पाना है, जीवन का मूल !
मैं पतझड़ का बासी फूल !

किरण

गुरुवार, 6 मई 2010

तुम न आये

आज भी प्रिय तुम न आये,
और मैं बैठी अकेली राह में पलकें बिछाये !
आज भी प्रिय तुम न आये !

सप्त ऋषियों ने गगन में आज वन्दनवार बाँधे,
सोहता मंगल कलश सा धवल चन्दा मौन साधे,
जोहती हूँ बाट प्रियतम नयन में आँसू छिपाये !
आज भी प्रिय तुम न आये !

खिल उठी है रातरानी गंध चरणों पर चढ़ाने,
बह उठा है पवन चंचल प्रिय परस पर वारि जाने,
गगन गंगा में किसी ने दीप तारों के बहाये !
आज भी प्रिय तुम न आये !

स्वाँस वीणा पर दुखों की रागिनी प्रिय नित बजाती,
विरहिणी प्रिय आगमन हित मौन भावांजलि चढ़ाती,
झिलमिलाते दीप की मैं आरती बैठी सजाये !
आज भी प्रिय तुम न आये !


किरण

मंगलवार, 4 मई 2010

धूल का अधिकार

मुझको फूलों से बहुत प्यार है लेकिन
अधिकार धूल का ही मुझ पर भारी है !

माना फूलों में है सुगंध मतवाली,
सुरभित जिससे उपवन की डाली-डाली,
इन फूलों से फल, फल से जीवन मिलता,
इन फूलों से श्रृंगार प्रकृति का खिलता,
पर मेरी धरती तो अवढर दानी है ,
इसकी महिमा देवों ने भी मानी है !
क्षण भंगुर वैभव, उपवन का क्या होगा,
मुझको धरती की समरसता प्यारी है !

सुनते हैं ब्रह्मा ने यह सृष्टि बनाई,
विष्णू ने पालन करके दिया बढाई,
शिव ने अपना संहारी चरण उठाया,
पल में संसृति का सुन्दर रूप मिटाया,
हैं पुरुषोत्तम श्रीराम गुणों के सागर,
कान्हा ने धर्म बचाया भू पर आकर,
हैं देव सदा रक्षक जग ने जाना है,
सब सिद्धिदात्र गणपति को ही माना है !
पर किसने उनका रूप रंग देखा है,
हमको पाषाणी प्रतिमा ही प्यारी है !

पाई देवों में भी विरोध की झाँकी,
पढ़ ली है इनकी कीर्ति कथा भी बाँकी,
ईर्ष्या की ज्वाला जलती उनमें पाई,
भय शंका भी तो उनमें रही समाई,
देखी उनमें भी पक्षपात की छाया,
उनको भी तो है भेंट भोग मन भाया,
पर उनके सब अवगुण हैं गुण बन जाते,
तब गुणी मनुज क्यों नहीं देव बन जाते ?
क्या होना है ऐसा देवत्व मना कर,
हमको अपनी मानवता ही प्यारी है !

नीलांगन में झिलमिल दीपक से जलते,
तारे केवल रजनी का ही तम हरते,
ये चन्दा सूरज भी उग कर छिप जाते,
आवश्यकतावश हम उन्हें जला न पाते,
उन पर न पतंगों की टोली मंडराती ,
उनके छिप जाने पर अंधियारी छाती,
तब अपना दीपक हमें जलाना पडता,
जिसकी ज्योती से मुग्ध पतंगा लड़ता,
चन्दा सूरज से बड़ी हमें अपनी यह
मिट्टी के दीपक की लौ ही प्यारी है !

किरण