सोचा यह मैंने इक
दिन, उपहार उन्हें क्या दूँ मैं ,
किस भाँति रिझा कर
प्रभु को, उनसे शुभ आशिष लूँ मैं !
कुछ चुन कर उर उपवन
से, कोमल मुकुलित कलियों को
इक हार बनाया मैंने,
फिर गूँथ-गूँथ कर उनको !
वह भव्य मूर्ति जब
देखी, नैनों से मैंने जाकर ,
तब छिपा लिया आँचल
में, उपहार तनिक सकुचा कर !
उस जीर्ण-शीर्ण पट
भीतर, जो तंदुल लख सकता था ,
तब हार छिपा वह कैसे,
आँचल में रह सकता था !
मैं सोच रही थी कैसे,
यह हार उन्हें पहनाऊँ ,
क्या कह कर मुरलीधर
को, मैं अपने पास बुलाऊँ !
वे मुस्काये लख
मुझको, मेरे इस पागलपन को ,
फिर ग्रहण किया वह
खुद ही, नीचे कर निज मस्तक को !
किरण