सोमवार, 28 मई 2012

अश्रुमाल















नाथ तुम्हारी क्षुद्र सेविका लाई यह रत्नों का हार ,
तुम पर वही चढ़ाती हूँ मैं करना मेरे प्रिय स्वीकार !

मेरा मुझ पर नाथ रहा क्या जो कुछ है वह तेरा है ,
मुझे निराशा अरु आशा की लहरों ने प्रभु घेरा है !

तुम लक्ष्मी माँ के प्रिय पति हो रत्न भेंट हों कैसे नाथ ,
रत्नों की जब खान स्वयं माँ होवें प्रियतम तेरे साथ !

बस हैं यह आँसू ही भगवन्  जिनका है यह हार सजा ,
करती  भेंट करो स्वीकृत प्रभु यद्यपि तुम्हें यह रहा लजा !

किरण

शुक्रवार, 11 मई 2012

माँ की याद


आज आपको अपनी माँ की एक दुर्लभ रचना पढ़वाने जा रही हूँ जिसका रचना काल सन् १९५५-५६ का रहा होगा ! उन दिनों मातृ दिवस मनाने का चलन नहीं था ! माँ को किसी दिवस विशेष पर याद किया जाना चाहिये ऐसी प्रथा भी भारतीय समाज में तब प्रचलित नहीं थी ! लेकिन माँ के प्रति बेटी के प्रेम और श्रद्धा की यह शाश्वत धारा अनादि काल से प्रवाहित हो रही है और शायद जब तक सृष्टि का क्रम चलेगा यह प्रवाहित होती रहेगी ! लीजिए आज प्रस्तुत है एक ऐसी रचना जिसमें मेरी माँ ने अपनी माँ को व्याकुल होकर याद किया है ! मेरी नानीजी का देहांत सन् १९५५ में हुआ था !

माँ कैसे अब धीर धरूँ मैं ! 
जन्मदायिनी जननी तूने उकता कर क्यों छोड़ी ममता ,
अरी कौन सी परवशता में पड़ यों जग से तोड़ी ममता ,
माँ बतला दे एक बार अब कैसे जीवन में विचरूँ मैं !
माँ कैसे अब धीर धरूँ मैं !
पल भर मेरी इन आँखों में आँसू तुझे न भाते थे माँ ,
उन आँखों में उमड़ सरोवर पल क्षण तुझे बुलाते हैं माँ ,
हृदय बना पाषाण छिपी जा कैसे तेरी खोज करूँ मैं !
माँ कैसे अब धीर धरूँ मैं !
हमें बिलखता छोड़ तुझे क्या अमरावति का सुख मन भाया ,
जो पीड़ा से अपने ही अंशों के अंतर को छलकाया ,
बिलख रहे ये प्राण इन्हें क्या कह समझा कर कष्ट हरूँ मैं !
माँ कैसे अब धीर धरूँ मैं !
भुला न पाती मैं तेरे अंतर का स्नेह सरोवर छल-छल ,
मिटा न पाती सौम्य मूर्ति अंतस से अपने हा क्षण पल ,
तेरे बिना दु:ख रजनी के , अन्धकार से क्यों न डरूँ मैं !
माँ कैसे अब धीर धरूँ मैं !
मिला तुझे क्या मेरा बचपन अपने हाथों मिटा गयी जो ,
बना सुरक्षित निज प्राणों को मेरी हस्ती मिटा गयी जो ,
माँ, ओ मेरी माँ , तेरी सुधि अंतर से कैसे बिसरूँ मैं !
माँ कैसे अब धीर धरूँ मैं !
देख उदासी हाय कौन दुखिया मन की मनुहार करेगा ,
पा आभास कष्ट का हा अब कौन धीर दे प्यार करेगा ,
माँ को खोकर ओ निर्दय प्रभु नव अभिलाषा कौन करूँ मैं !
माँ कैसे अब धीर धरूँ मैं !

किरण