गुरुवार, 31 मार्च 2011

क्षणिकायें --५


दीप
की सुज्वाल में शलभ राख जा बना ,
उड्गनों की ज्योति से न हट सका कुहर घना ,
सृष्टि क्रम उलझ सुलझ खो रहा है ज़िंदगी ,
नियति खोजती सुपथ बढ़ रही है उन्मना !


देख कर अवसान तारक वृन्द का ,
खिलखिला कर हँस पड़े पक्षी मुखर ,
है पतन उत्थान का अंतिम चरण ,
क्या कभी देखा किसीने सोच कर !


शलभ दीपक की शिखा पर रीझ कर ,
जब बढ़ा तब काँप कर उसने कहा ,
'ज्वाल हूँ मैं दूर रह पागल शलभ' ,
किन्तु सात्विक प्रेम कुछ सुनता कहाँ !


कल्पना ने जब वरण कवि को किया ,
साधना ने शक्ति अरु साहस दिया ,
लगन ने बाँधा उन्हें दृढ़ पाश में ,
शारदा ने प्रेम का आशिष दिया !


किरण


सोमवार, 28 मार्च 2011

क्षणिकायें-- ४


बीज में ही वृक्ष का अस्तित्व है ,
दीप की लौ में दहन का तत्व है ,
लघु नहीं है कोई भी कण सृष्टि का ,
निहित शिशु में ही महा व्यक्तित्व है !


चाँदनी रोती रही है रात भर ,
आँसुओं से भर उठा सारा जहाँ ,
पर न निष्ठुर चाँद का पिघला हृदय ,
है पुरुष पाषाण में ममता कहाँ !


देवता पर फूल ही चढ़ते सदा ,
पर बेचारी धूल का अस्तित्व क्या ,
भूल जाते उस समय यह बात वे ,
धूल से ही फूल को जीवन मिला !


किरण



शुक्रवार, 25 मार्च 2011

क्षणिकायें - ३


हृदय
की कथा नयन कह भी न पाये ,
रहे छलछलाए , व्यथा सह न पाये ,
हुई मूक वाणी विदा के क्षणों में ,
वे रुक ना सके , पैर बढ़ भी न पाये !



जा रहा इस सृष्टि से विश्वास का बल भी ,
छिन रहा इस अवनि से अब स्नेह संबल भी ,
लुट रहा है आज प्राणी सब तरह बिलकुल ,
प्रभु हुए पाषाण तो फिर छा गया छल भी !


लाज का बंधन नयन कब मानते हैं ,
स्नेह की ही साधना सच जानते हैं ,
वे सदय हों या कि निष्ठुर कौन जाने ,
ये मधुर उस मूर्ति को पहचानते हैं !



देखता है भ्रमर खिलते फूल की हँसती जवानी ,
युगल तट को सरित देती धवल रज कण की निशानी ,
प्रेम का प्रतिदान पाना अमर फल सा है असंभव ,
आश तृष्णा मात्र है , विश्वास भूले की कहानी !




किरण


गुरुवार, 17 मार्च 2011

आई भारत में होली

आज माँ की कविताओं के संकलन से यह बेमिसाल रचना आपके लिये लेकर आई हूँ ! उनकी रचनाएं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी कितनी प्रासंगिक होती हैं यह देख कर विस्मय से भर जाती हूँ ! हर्ष और उल्लास से ओत प्रोत होली का पर्व द्वार पर दस्तक दे रहा है ! सभी रचनाकार इस पर्व पर अपनी भावनाओं, कल्पनाओं और कामनाओं को कलमबद्ध कर रहे हैं ! माँ की वर्षों पुरानी इस रचना में होली को उन्होंने कितनी अभिनव शैली में चित्रित किया है आप भी देखिये ! इसमें आपको होली के सभी रंगों का उल्लेख मिलेगा लेकिन एकदम अनोखे अंदाज़ में !

सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

नीला रंग खुशी का ओढ़े खिलती हँसती आई ,
धन वाले अधिकारी दल में शोखी मस्ती लाई ,
देखा कहीं सुरा के प्याले खनक रहे हैं खन-खन ,
कहीं भंग भोले बाबा की घुटती बँटती पाई !

रंग गुलाल अबीर छिड़कते मदमाते हमजोली,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

हरे रंग की चूनर में पीला नीला रंग भर कर ,
नये राष्ट्र की नयी नीति निकली अगणित कर लेकर ,
नयी समस्याएं आती रहती हैं सन्मुख हर दम ,
चलो जेल में मौज करो यदि तुम न चुका सकते कर !

अपने तन मन धन की भी बोलो नीलामी बोली ,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

पीला रंग खिला खेतों में किन्तु छिपा कोठों में ,
एक आह उठती अंतर से पर ताले होठों में ,
सस्ता माल खरीद कृषक से बेच रहे ये मँहगा ,
कैसा स्वार्थ समुद्र भरा इन पूंजीपति सेठों में !

एक क़र्ज़ दे चार लिखाते ठगते दुनिया भोली ,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

लाल चूनरी मिल से निकली मजदूरों की टोली ,
भेद भाव हों दूर माँगते वे फैला कर झोली ,
रहें न बिस्कुट चाय सिल्क मोटर बंगले या कोठी ,
एक समान वस्त्र भोजन हो और एक सी खोली !

इनकी यह आवाज़ दबाने छूटे डंडे गोली ,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

रंग गुलाबी ओढ़ पार्टी बाँदी बन मुस्काई ,
बीज बैर के और फूट के झोली भर कर लाई ,
एक दूसरे का अनिष्ट निज नया सोचते रहते ,
घोर अराजकता की बदली इस भारत पर है छाई !

रोज चुनाव हुआ करते हैं चलती गाली गोली ,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

काला रंग देश में कैसा बेकारी का छाया ,
कभी न तन पर कपड़ा पहना कभी न मन भर खाया ,
कोई डूब रहा पानी में, कोई फाँसी झूला ,
देखो तड़प रही धरती पर छिन्न-भिन्न इक काया !

माँ की गोद लुटा करती नित, नित पत्नी की रोली ,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

देख दुर्दशा भारत भू की लाल लाडला माँ का ,
केसरिया बाना धारण कर निकला करने साका ,
केसर की क्यारी पर उसने अपना लहू बहाया ,
पर भारत के अंग भंग को फिर भी बचा न पाया !

पर दुःख कातर आँखें मूँदीं, गयीं न फिर जो खोली ,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

श्वेत संदेशा शांति सुरक्षा का पूरब को देकर ,
शान्ति दूत कहलाये दुनिया भर में वीर जवाहर ,
गैरों ने भी बात मान ली किन्तु देश बहरा है ,
इसमें शान्ति न ला पाये हाँ बापू जी भी मर कर !

आग बुझी बाहर की लेकिन जलती घर में होली ,
सतरंगी चूनर ओढ़े आई भारत में होली !

किरण









शुक्रवार, 11 मार्च 2011

क्षणिकायें -- २


छल
भरा नर तन स्वयम् बदनाम है,
खोजना छल छिद्र उसका काम है,
खोजती जो कालिमा रजनीश में,
आँख की पुतली स्वयम् भी श्याम है !


मृत्यु मानव के लिये अभिशाप है,
ज़िंदगी भी पाप है, परिताप है,
झूलता है मध्य में इनके मनुज ,
बना अनबूझी पहेली आप है !

3
कुछ फूलों में ही शूल हुआ करते हैं,
भावों के पंछी गगन छुआ करते हैं,
है भूल भरा जीवन बह जाने वाला,
रह जाने वाले कूल हुआ करते हैं !

किरण

सोमवार, 7 मार्च 2011

क्षणिकायें


समय के साथ जीवन में नया ही मोड़ आता है,
हृदय पट पर अनेकों घाव सुख के छोड़ जाता है,
कहाँ तक हम इन्हें भूलों में बहलाते रहें साथी ,
किसीका स्वप्न सारे बंधनों को तोड़ जाता है |



आज अभावों की ज्वाला में झुलसा हर इंसान रो दिया,
अन्वेषण से थक नयनों ने भू में करुणा पुन्ज बो दिया,
कुछ ऐसे मौसम में साथी यह खेती लहलहा उठी है,
जग ने निर्ममता अपना ली, मानवता ने प्यार खो दिया !



जीवन है अभाव की मंजिल, नहीं तृप्ति की परिभाषा,
है अतृप्ति की सफल शिखरिणी चिर अभिशापित अभिलाषा !


किरण

बुधवार, 2 मार्च 2011

संध्या का वियोग

झिलमिल करती झीनी किरणों का मुख पर अवगुंठन डाले ,
अरुण वदन, लज्जित अधरों में भर स्मिति के मधुमय प्याले !

प्रियागमन की किये प्रतीक्षा उत्सुक नयन बिछाये पथ पर ,
आशा अरु अरमान भरे अंतर में सिहरन का कम्पन भर !

पश्चिम दिशि में खड़ी हुई प्राची मुख नव वधु संध्या बाला ,
जब बिखराये सघन केश रजनी बुनती पट झीना काला !

नील गगन की सुघर सेज को चुन-चुन तारक कुसुम सजाई ,
नभ गंगा की धवल ज्योत्सना की अनुपम चादर फैलाई !

निकल रहे थे अंतरतम से गुनगुन गीत मिलन के पल छन ,
स्वर, लय, तान मिलाने उसमें झींगुर वाद्य बजाते झन-झन !

मस्त पवन अठखेली करके रह-रह उसका पट उलटाता ,
बादल आँख मिचौली करते, सारा जग था बलि-बलि जाता !

पहर तीसरा बीत चला प्रिय चंद्र न आया, म्लान थकी वह ,
उस निष्ठुर से हुई उपेक्षित यह अवहेला सह न सकी वह !

फूट-फूट रो उठी हाय वह आँसू बरस मही पर छाये ,
नव दूर्वा, मुकुलित कुसुमों ने अधर खोल जग को दिखलाये !

नयन थके रोते-रोते, लालिमा सुघर आनन पर छाई ,
नव प्रभात का देख आगमन व्यथित हुई, निराश, अकुलाई !

भ्रात सूर्य जब डाल रश्मि पट रथ लेकर लेने को आया ,
देख बहन की अवहेला नयनों में भर क्रोधानल लाया !

चला खोजने भगिनीपति वह शांत हृदय उसका करने को ,
दुखिया के सूने जीवन में फिर से नेह नीर भरने को !

नित्य क्रोध से भरा पूर्व से चलता खोज लगाने को वह ,
हो हताश सोता पश्चिम में जाकर उसे न पाने पर वह !

आदिकाल से चली आ रही खोज न पूरी कर पाया वह ,
चंद्र सूर्य मिल सके, न फिर संध्या पर नव निखार ही छाया !

किरण